एक महीना पहले ही मध्य प्रदेश में कच्ची दवाओं के परीक्षण (ड्रग ट्रायल) पर प्रतिबंध हटाया गया था. लेकिन इसके तुरंत बाद इंदौर में मानसिक रोगियों पर गैरकानूनी दवा परीक्षण का एक और मामला सामने आने के बाद अब सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट
मरीजों पर उनकी अनुमति के बिना किए जा रहे कच्ची दवाओं के परीक्षण या ‘ड्रग ट्रायल’ के मामले में लगातार आलोचना झेल रही मध्य प्रदेश सरकार की मुश्किलें हर नए खुलासे के साथ बढ़ती ही जा रही हैं. पिछले पखवाड़े इंदौर के सरकारी डॉक्टरों द्वारा कुल 233 मानसिक रोगियों पर यौन रोगों के उपचार के साथ-साथ ऐंटी-डिप्रेसेंट (अवसाद के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली एक दवा) के तौर पर विकसित की जा रही दवाओं के परीक्षण से जुड़े दस्तावेज सामने आने के बाद राज्य में फिर सनसनी फैल गई. लगभग एक महीना पहले ही राज्य में दवा परीक्षण पर से प्रतिबंध हटाया गया है. इसलिए जैसे ही यह मामला सामने आया, जांच के लिए आनन-फानन में एक कमेटी गठित कर दी गई. लेकिन पिछली कमेटियों की जांच रिपोर्टों पर राज्य सरकार के रवैये को देखते हुए जैसी आशंका थी, इस जांच कमेटी की रिपोर्ट भी दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में कोई उम्मीद नहीं जगा पाई. गौरतलब है कि मामले की प्राथमिक जांच रिपोर्ट दिसंबर के आखिरी हफ्ते में सामने आई थी. और इसके बाद राज्य सरकार ने अपनी कार्रवाई में 78 दोषी डॉक्टरों में से सिर्फ 12 सरकारी डॉक्टरों पर मात्र 5,000 हजार रुपये का आर्थिक दंड लगाकर मामले को रफा-दफा कर दिया. इस मसले से जुड़ी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राज्य सरकार पर्याप्त कार्रवाई करने में खुद को असमर्थ बता रही है. हाल ही में चिकित्सा शिक्षा स्वास्थ्य मंत्री महेंद्र सिंह हार्डिया ने मीडिया में एक बयान जारी करते हुए कहा था कि राज्य सरकार अपने स्तर पर पूरी कार्रवाई कर चुकी है, इसके बाद मामला केंद्र और ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) के हाथों में है.
गौरतलब है कि मध्य प्रदेश विधानसभा के हालिया शीतकालीन सत्र में स्वतंत्र विधायक पारस सकलेचा द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में मिली जानकारी से इंदौर के 233 मानसिक रोगियों पर ‘प्रीमेच्योर इजैक्यूलेशन’ (शीघ्रपतन नामक एक यौन रोग) को ठीक करने के लिए बनाई जा रही दवाअों के परीक्षण का चौंका देने वाला मामला सामने आया था. यह दवा परीक्षण इंदौर के महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज (एमजीएम) से संबद्ध महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय एवं मानसिक चिकित्सालय के सरकारी डॉक्टरों द्वारा निजी क्लीनिकों में किया गया था. इस पूरे मामले में संदेह की सबसे बड़ी वजह यह थी कि डॉक्टरों ने एमजीएम शासकीय अस्पताल की एथिक्स कमेटी को अनदेखा करते हुए, अपनी सुविधा के अनुसार स्वतंत्र एथिक्स कमेटियों से अनुमति ली थी. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के नियमों के अनुसार किसी भी दवा परीक्षण से पहले संबंधित अस्पताल में मौजूद एथिक्स कमेटी से अनुमति लेना अनिवार्य होता है. सरकारी अस्पतालों के संबंध में तो यह और भी जरूरी है क्योंकि स्वतंत्र एथिक्स कमेटियों का प्रावधान केवल उन दवा परीक्षणों के लिए है जहां संबंधित अस्पताल की अपनी कोई एथिक्स कमेटी न हो. पर इंदौर के मानसिक रोगियों पर उनकी अनुमति के बिना कच्ची दवाओं का परीक्षण करने वाले डॉ रामगुलाम राजदान, डॉ वीएस पाल, डॉ उज्ज्वल सरदेसाई, डॉ अभय पालीवाल और डॉ पाली रस्तोगी नामक पांचों डॉक्टरों ने मध्य प्रदेश के साथ-साथ अहमदाबाद और पुणे की स्वतंत्र एथिक्स कमेटियों से अनुमति लेकर परीक्षण किए थे.
एक और चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि पिछले तीन साल से जिन प्राइवेट क्लीनिकों में इन मानसिक रोगियों पर डेपोक्सीटाइन और रेमेलटिऑन जैसी कई कच्ची दवाओं के परीक्षण किए जा रहे थे, उनमें से मात्र दो क्लीनिक मध्य प्रदेश नर्सिंग होम एेक्ट के तहत पंजीकृत हैं. गैरकानूनी ड्रग ट्रायल से जुड़े मसलों को जोर-शोर से उठाने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ आनंद राय कहते हैं, ‘इन डाक्टरों ने शासकीय कर्मचारी होते हुए भी आईसीएमआर के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए निजी क्लीनिकों में दवा परीक्षण किए हैं. एमजीएम की एथिक्स कमेटी को अनदेखा इसलिए किया गया ताकि सूचना के अधिकार के तहत जानकारी देने से बचा जा सके. मानसिक रोगी तो पहले ही कमजोर वर्ग में आते हैं और नियमानुसार उन पर परीक्षण नहीं किया जा सकता. और सबसे बड़ा सवाल है कि वे यह कैसे बता सकते हैं कि किसी यौन रोग की दवा का उन पर क्या असर हो रहा है. ऐसे में मरीजों से सहमति लेने के नियम का कितना पालन किया गया होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.’
‘जब तक दवा परीक्षणों पर हम जिम्मेदार संस्थान खड़ा नहीं कर लेते या कानून नहीं बदलते तब तक इन पर रोक लगानी चाहिए’
इंदौर के इस मामले की हाल ही में इतनी चर्चा हुई कि पिछले दो साल से चल रहे ड्रग ट्रायल विवाद से बेखबर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और राज्य मानव अधिकार आयोग भी अचानक सक्रिय हो गए और तुरंत मुख्य सचिव को तलब किया गया. जवाब में मुख्य सचिव ने स्वास्थ्य सचिव और राज्य चिकित्सा शिक्षा के निदेशक को तलब किया और इंदौर में मामले की जांच के लिए एक पांच सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया गया. इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इंदौर के 78 डॉक्टरों को विभिन्न नियमों का उल्लंघन करके कच्ची दवाओं का परीक्षण करने का दोषी पाया. भारी अनियमितताओं को देखते हुए रिपोर्ट में डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द करके उन पर आपराधिक कार्रवाई शुरू करने की अनुशंसा की गई थी. लेकिन सरकार ने केवल 12 सरकारी डॉक्टरों पर मात्र 5000 रु का न्यूनतम आर्थिक दंड लगाया और कमेटी की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी. गौरतलब है कि राज्य सरकार पहले के ड्रग ट्रायल मामले पर बनी आर्थिक अपराध शाखा और चिकित्सा शिक्षा विभाग की दो अलग-अलग जांच रिपोर्टों पर भी चुप्पी साध लेने की वजह से भी काफी आलोचना झेल रही है.
राज्य सरकार के इस कदम के तुरंत बाद कांग्रेस ने इस मसले को एक राजनीतिक मुद्दा बना दिया. प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह ने मामले की सीबीआई जांच की मांग करके यह स्पष्ट कर दिया कि पिछले दो साल से इस मसले पर लापरवाही भरा रवैया दिखाने वाली राज्य सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘भाजपा सरकार प्रत्यक्ष रूप से दोषी डॉक्टरों को संरक्षण दे रही है. पिछले दो साल में इन्होंने सिर्फ कमेटियां बनाईं और फिर अपनी ही बनाई हुई कमेटियों की सिफारिशों को मानने से इनकार कर दिया. और यह 5000 रुपये का जुर्माना तो सिर्फ जनता को मूर्ख बनाने के लिए घोषित किया गया है.’
मध्य प्रदेश में ड्रग ट्रायल के मुद्दे पर जारी पक्ष-विपक्ष की लड़ाई के बीच राज्यसभा के हालिया सत्र में इस मसले से जुडी कुछ मत्वपूर्ण जानकारियां उजागर हुईं हैं. मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद कप्तान सिंह सोलंकी को स्वास्थ्य मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक 2008 से 2010 के बीच भारत में ड्रग ट्रायल से उपजे गंभीर प्रतिकूल प्रभावों के चलते कुल 1,593 लोगों की मौत हुई है. और अब तक इनमें से सिर्फ 25 लोगों को नियमानुसार मुआवजा दिया गया है. इस मामले को केंद्रीय स्तर पर उठाने का मन बना चुके कप्तान सिंह तहलका को बताते हैं, ‘इनमें से 81 लोगों की मौत तो हमारे मध्य प्रदेश में ही हुई है. स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने मुझे चिट्ठी लिखकर कहा है कि केंद्र सरकार ड्रग ट्रायल में मरीजों के बीमा और मुआवजे संबंधी पक्षों को और मजबूत बनाएगी. साथ ही एथिक्स कमेटी की जवाबदेही बढ़ाई जाएगी और ‘सूचित सहमति पत्र’ लेने के मामले को और पारदर्शी बनाया जाएगा.’
स्वास्थ्य मंत्रालय के इस पत्र और इससे जुड़ी कार्रवाई के संबंध में जब तहलका ने केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग की प्रमुख संसदीय कमेटी के अध्यक्ष बृजेश पाठक से बात की तो उन्होंने इसकी पुष्टि करते हुए कहा, ‘इंदौर जैसे मिनी मेट्रो शहरों में छोटे-छोटे विदेशी संस्थानों से पैसा लेकर गैरकानूनी ढंग से कच्ची दवाओं का परीक्षण करने का एक नया ट्रेंड शुरू हो गया है. यह देश की गरीब जनता के साथ खिलवाड़ है. हमने इस बारे में स्वास्थ्य मंत्रालय को स्पष्ट लिखा है कि जब तक दवा परीक्षणों को करवाने के लिए हम एक ज्यादा पारदर्शी और जिम्मेदार संस्थान खड़ा नहीं कर लेते या कानून में जरूरी फेर-बदल नहीं कर लेते, तब तक हमें इन दवा परीक्षणों पर रोक लगानी चाहिए. सबसे दुखद बात यह है कि इसमें मरीज को सूचित नहीं किया जाता है और न ही शारीरिक क्षति की स्थिति में उन्हें मिलने वाला मुआवजा ही उन तक पहुंचता है.’
कुल मिलाकर हाल के घटनाक्रम और नियम-कानूनों में बदलाव की संभावना के बाद कम से कम मध्य प्रदेश सरकार से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वह अपने स्तर से राज्य में ड्रग ट्रायल पर लगाम लगाए.