रामविलास पासवान 50 साल की सक्रिय राजनीति में नौ बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा और एक बार विधानसभा के सदस्य रहे। करीब 25 साल तक वह छ: प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में मंत्री पद से नवाज़े गये या कहें उनकी ज़रूरत बने रहे। बिहार से ताल्लुक रखने वाले दिग्गज दलित नेता पासवान की सन् 2000 में बनायी लोक जनशक्ति पार्टी सम्भवत: दुनिया की एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसकी विधानसभा के मुकाबले लोकसभा में उपस्थिति ज़्यादा रही। पिछले ढाई दशक से गठबंधन सरकारों के दौर में छोटी क्षेत्रीय पार्टी होने के बावजूद केंद्र सरकार में हमेशा प्रतिनिधित्व और अहमियत साबित करके बता दिया कि वह वर्तमान दौर के सियासी वैज्ञानिक थे। दिल की बीमारी से 74 वर्षीय रामविलास पासवान के जाने के साथ बिहार ही नहीं, बल्कि देश में दलित राजनीति के एक युग का अन्त हो गया। उनकी दलित समाज में पहुँच और उनके राजनीतिक कद का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1996 में प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा की केंद्र सरकार से लेकर वर्तमान में मोदी नीत केंद्र सरकार तक सभी सरकारों में मुख्य दलित चेहरा बने रहे। हालाँकि इससे पहले सन् 1989 में वी.पी. सिंह की सरकार से ही केंद्र सरकार में बतौर मंत्री दलित चेहरा बनकर उभर चुके थे। बिहार में भले ही उनकी पार्टी कभी टॉप-3 में न रही हो, लेकिन केंद्र में हिस्सेदार रही। उनका मिलनसार अंदाज़ पक्ष-विपक्ष के साथ पत्रकारों को भी खूब भाता था। पासवान सबको साधने और सबसे सधने वाले नेता के तौर पर हमेशा याद किये जाएँगे।
पासवान के सियासत में आने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। बिहार के खगडिय़ा में दलित परिवार में जन्मे रामविलास पासवान ने एमए और एलएलबी की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी थी। शुरुआत में उनका रुझान पुलिस फोर्स में जाने का था, उनका चयन डीएसपी के पद पर हो भी गया था। मगर इस बीच एक वाकये ने उनके करियर का अलग ही रास्ता खोल दिया। दरअसल एक बार घर लौटने के दौरान रामविलास ने देखा कि उनके गाँव के पास कुछ लोग एक दलित शख्स की पिटाई कर रहे हैं। शख्स पर 150 रुपये न लौटाने का आरोप था। तभी पासवान ने मामले में हस्तक्षेप किया और पुलिस वालों को जमकर खरी-खोटी सुनायी। इतना ही नहीं, इस घटना से वह इतने आहत हुए कि उन्होंने डीएसपी की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने सियासत की ओर रुख किया। उसी दौरान वह जयप्रकाश नारायण के समाजवादी आंदोलन से जुड़े। इसे महज़ संयोग कहें या कुछ और कि जे.पी. ने 41 साल पहले 8 अक्टूबर को अंतिम साँस ली थी और रामविलास ने भी इसी तारीख को अपना नश्वर शरीर त्यागा। पासवान को राजनीति में लाने का श्रेय समाजवादी नेता राम सजीवन को जाता है। उनके सम्पर्क में आने के बाद ही पासवान की सियासत में दिलचस्पी जगी। इसके बाद उन्होंने जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर जैसे सियासतदाँ से गुर सीखे। पासवान ने पहला चुनाव 1969 में लड़ा। अलौली विधानसभा से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर उनको मौका मिला और चुनकर विधानसभा पहुँचे। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा। सन् 1977 में वह जनता पार्टी के टिकट पर हाजीपुर से लोकसभा का चुनाव लड़े और सबसे अधिक 4.24 लाख वोटों के अन्तर से चुनाव जीतने का विश्व रिकॉर्ड बना लिया। सन् 1989 में रामविलास ने इसी सीट से अपना ही रिकॉर्ड तोडक़र नया कीर्तिमान स्थापित किया। हालाँकि बाद में यह रिकॉर्ड दूसरे नेताओं ने तोड़ दिया। दिलचस्प है कि जिस हाजीपुर सीट से जीत का रिकॉर्ड बनाया था, उसी सीट से सन् 1984 में पासवान हार भी गये थे।
सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में भी पासवान को राम सुंदर दास जैसे बुजुर्ग समाजवादी से हार का सामना करना पड़ा था। सन् 2014 में लोकसभा में पासवान ने हाजीपुर से चुनाव जीता और संसद पहुँचे। हालाँकि 17वीं यानी पिछली लोकसभा का चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा, बल्कि राज्यसभा के रास्ते से संसद परिसर में अपनी सीट सुरक्षित की। अपनी पूरी राजनीतिक यात्रा में पासवान नौ बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा, तो एक बार विधानसभा के सदस्य रहे। उनके लिए सुखद अहसास यह रहा है कि उनको सत्ता के लिए नाक नहीं रगडऩी पड़ी; बल्कि सत्ता खुद उनके पास चलकर आती रही। सन् 2004 में पासवान को साधने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी पैदल ही उनके निवास पर पहुँचीं, तो सन् 1989 में वी.पी. सिंह ने उन्हें मंत्री ही नहीं, लोकसभा में सदन का नेता भी बनाया। फिर जबसे गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, तो मानो पासवान की लॉटरी ही लग गयी। सन् 1996 से लेकर अब तक वह हर सरकार का हिस्सा या कहें कि ज़रूरत बने रहे। खास बात यह रही कि दलित राजनीति में चाहे बाबू जगजीवन राम का दौर हो या कांशीराम का या अब मायावती का, मात्र बिहार में क्षेत्रीय पार्टी या स्थानीय नेता होने के बावजूद पासवान का िकला दलित राजनीति के मोर्चे पर मज़बूत रहा।
बिहार से ज़्यादा दिल्ली में अहमियत
20 साल पहले पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी बनायी लम्बे समय तक इसके अध्यक्ष रहे। पासवान ने सन् 1981 में अनुसूचित जाति के लोगों को इंसाफ और हक दिलाने के लिए दलित सेना संगठन की भी स्थापना की थी। पासवान के सियासी वैज्ञानिक होने का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दी पट्टी के बिहार की सबसे छोटी पार्टियों में शामिल होने के बावजूद उनकी सत्ता में भागीदारी हमेशा रही। पर उनकी यह भागीदारी उनके अपने राज्य बिहार में नहीं, बल्कि केंद्र सरकार में ज़्यादा रही।
सरकार कोई भी, पर मंत्री ज़रूर रहे
पासवान की ज़िन्दगी तमाम उतार-चढ़ाव वाली रही। इसके बावजूद वह सन् 1969 से लेकर आधी सदी तक ‘माननीय’ के तौर जीये। सन् 1996 से लेकर वर्तमान मोदी नीत केंद्र सरकार तक सभी सरकारों में मंत्री रहना भी असाधारण योग्यता को दर्शाता है। पासवान सन् 1989 में वी.पी. सिंह सरकार से लेकर एच.डी. देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की कैबिनेट का अहम हिस्सा रहे। पासवान सन् 1989 से 90 के बीच वी.पी. सिंह सरकार में केंद्रीय श्रम और कल्याण मंत्री, सन् 1996 से सन् 1997 तक देवगौड़ा सरकार में रेलमंत्री, सन् 1997 से सन् 1998 तक गुजराल सरकार में रेलमंत्री, सन् 1998 से सन् 2001 तक वाजपेयी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री, सन् 2001 से सन् 2002 तक वाजपेयी सरकार में ही कोयला मंत्री, सन् 2004 से सन् 2009 तक मनमोहन सरकार में रसायन एवं उर्वरक मंत्री और सन् 2014 से सन् 2019 में मोदी सरकार में उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री और सन् 2019 से 8 अक्टूबर, 2020 तक वर्तमान केंद्र सरकार में उपभोक्ता मामलों के मंत्री रहे।
सन् 1990 में संसद में अंबेडकर का चित्र लगवाया
पासवान के प्रयासों का ही परिणाम था कि सन् 1990 में संसद के सेंट्रल हॉल में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का चित्र लगाया गया। यह पासवान ही थे, जिन्होंने सरकार को इस बात के लिए राज़ी किया कि जो दलित बुद्ध धर्म अपना रहे हैं, उन्हें भी आरक्षण का फायदा मिले। पासवान की यह माँग भी चर्चा का विषय रही थी कि सीवर की सफाई करने वाले कर्मचारियों का वेतन एक आईएएस अफसर जितना हो।
हाजीपुर को बनाया रेलवे का क्षेत्रीय मुख्यालय
निजी ज़िन्दगी में तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद पासवान ने अपने लम्बे सियासी करियर में कार्यकर्ताओं का भी पूरा खयाल रखा। कभी भी उनके कार्यकर्ताओं या समर्थकों की बड़ी नाराज़गी का उदाहरण देखने को नहीं मिलता है। यह उनके चाहने वालों का ही नतीजा रहा कि जब रामविलास रेल मंत्री बने, तो अपने निर्वाचन क्षेत्र हाजीपुर में रेलवे का क्षेत्रीय मुख्यालय खुलवा दिया। इतना ही नहीं, पिछले लोकसभा चुनाव 2019 में मोदी-शाह की अटूट जोड़ी से भी अपना सियासी नफा तय कर लिया। बिहार में लोकसभा की छ: सीटों पर अपनी पार्टी सदस्यों के लडऩे का समझौता करने के साथ ही असम से खुद राज्यसभा पहुँचने का इंतज़ाम कर लिया।