देश की राजनीति में दलितों, आदिवासियों को लम्बे समय तक अनदेखा किया जाता रहा है और उनका इस्तेमाल स्वयंभू उच्च वर्ग के जनप्रतिनिधियों ने हमेशा सिर्फ़ वोट बैंक के रूप में किया है। लेकिन 80 के दशक के बाद दलितों-आदिवासियों के बीच से निकले जनप्रतिनिधियों की राजनीति में एकाएक भागीदारी बढऩे लगी और अब दलितों-आदिवासियों को देश की राजनीति से स्वयंभू उच्च वर्ग के जनप्रतिनिधि भी अनदेखा नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन क्या दलितों, आदिवासियों के बीच से चुनकर आ रहे उनके जनप्रतिनिधियों (विधायकों, सांसदों) को सरकारों के गठन में उनकी उपस्थिति के हिसाब से भागीदारी मिल पा रही है? हालाँकि उन्हें सरकारों में इस बार कुछ भागीदारी मिली है; लेकिन वो बहुत कम है। भविष्य में मंत्रालयों के बँटवारे में दलित, आदिवासी विधायकों एवं सांसदों को कितनी प्राथमिकता मिल पाएगी?
हाल ही में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में दलित-आदिवासी मतदाताओं की बंपर वोटिंग का फ़ायदा भाजपा को सबसे ज़्यादा मिला है। अकेले मध्य प्रदेश में दलितों-आदिवासियों के लिए आरक्षित 82 सीटों में से भाजपा और कांग्रेस के 81 दलित-आदिवासी प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुँचे हैं। इसमें से आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा के 24 और कांग्रेस के 22 आदिवासी प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुँचे हैं। वहीं एक सीट पर आदिवासी पार्टी प्रत्याशी ने जीत हासिल की है। वहीं दलितों के लिए आरक्षित 35 में से भाजपा के 26 प्रत्याशी और कांग्रेस के 9 प्रत्याशी जीतकर विधानसभा पहुँचे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार के गठन में दलित-आदिवासी जनप्रतिनिधियों की भागीदारी के हिसाब से मंत्रालय वितरित किये जाएँगे? यदि देखें, तो भाजपा के शासन वाले राज्यों में दलित-आदिवासी जनप्रतिनिधियों को मंत्रालयों के वितरण में अधिकतर अनदेखा किया जाता रहा है और उनसे भेदभाव भी किया जाता रहा है। लेकिन अब दलित-आदिवासी मतदाताओं की संख्या के अनुमानित आँकड़े सामने हैं और देश की राजनीति में अब इनकी भागीदारी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन वर्गों के जनप्रतिनिधियों को मंत्रालयों के वितरण में भाजपा की सरकारों में कितनी हिस्सेदारी दी जाएगी? यह देखना होगा।
देश में कई दलित, आदिवासी संगठन हैं और कई राजनीतिक पार्टियाँ भी हैं, जिनके जनप्रतिनिधि पहले भी चुनकर विधानसभा पहुँचे हैं। अपना अलग अस्तित्व बनाने वाले ये संगठन और इनके समर्थन से इन वर्गों की राजनीतिक पार्टियाँ भी काफ़ी अच्छा प्रदर्शन करती रही हैं। अभी नयी आदिवासी पार्टी ‘भारत आदिवासी पार्टी’ ने मध्य प्रदेश में एक और राजस्थान में तीन सीटें जीती हैं। इनमें भारत आदिवासी पार्टी से राजकुमार रोत ने दूसरी बार राजस्थान की चौरासी विधानसभा से जीत हासिल की है। इस बार उन्होंने इस सीट पर 69,166 मतों से जीत हासिल की है। वहीं आसपुर विधानसभा सीट से इस पार्टी के उमेश मीणा 28,940 मतों से और धरियावद विधानसभा सीट से थावर चंद 6,691 मतों से जीत हासिल की है। वहीं मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले की सैलाना विधानसभा सीट से भारत आदिवासी पार्टी के प्रत्याशी कमलेश्वर डोडियार ने 4,648 मतों से जीत हासिल की है। वहीं पहले से कमज़ोर हुई बहुजन समाज पार्टी को राजस्थान में दो सीटें मिली हैं।
एक समय में बहुजन समाज पार्टी का कोर मतदाता दलित समुदाय रहा है; लेकिन अब इसमें दूसरी दलित पार्टियाँ सेंध लगा रही हैं। इनमें से एक आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) है। मध्य प्रदेश में क़रीब 15 फ़ीसदी दलित मतदाता और 20 फ़ीसदी आदिवासी मतदाता हैं। लेकिन मतदाताओं के बँटवारे के कारण बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट इस बार नहीं मिली, जबकि 2018 में उसे दो विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी। वहीं राजस्थान में भी इस बार उसे सिर्फ़ दो सीटें ही मिलीं हैं, जबकि 2018 के विधानसभा चुनाव में उसके हिस्से में छ: सीटें आयी थीं। अगर दलित राजनीति करने वाली आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) की बात करें, तो राजस्थान में इस बार उसे एक भी सीट नहीं मिली है। लेकिन पहले ही प्रयास में उसका प्रदर्शन काफ़ी अच्छा रहा है।
बड़ी पार्टियों में हिस्से में गयी दलित सीटों का कुल अनुपात देखें, तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की 72 फ़ीसदी दलित सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी जीतकर विधानसभा पहुँचे हैं। वहीं आदिवासी सीटों पर इस बड़ी संख्या में भाजपा के प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुँचे हैं। सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी जनप्रतिनिधियों के भाजपा के टिकट से जीतकर विधानसभा पहुँचने के बावजूद इस पार्टी की राजनीति का मूल आधार हिन्दुत्व ही क्यों है? यहाँ तक कि कई दलित और पिछड़े वर्ग के जनप्रतिनिधि भाजपा में हिन्दुत्व की राजनीति करके उभरे हैं। इन जनप्रतिनिधियों ने अपने समुदाय के मतदाताओं को हिन्दुत्व के एजेंडे का असली चेहरा कभी नहीं दिखाया, भले ही पार्टी में इनके साथ कितना भी भेदभाव हुआ हो।
मध्य प्रदेश की राजनीति में 80 के दशक से पहले तक कांग्रेस ने भी दलितों, आदिवासियों को नज़रअंदाज़ किया। लेकिन जब 80 के दशक में भाजपा से कांग्रेस को कड़ी चुनौती मिली, तो उसने दलित, आदिवासी प्रतिनिधियों को पार्टी से जोडऩे के प्रयास करने पड़े, जिसके लिए पार्टी हाईकमान ने कई क़दम उठाये। मध्य प्रदेश की राजनीति में भागीदारी के लिए कई दलित संगठनों ने आन्दोलन किये। हालाँकि मध्य प्रदेश में दलित आन्दोलन कभी उभरकर सामने नहीं आ सका। वहीं आदिवासी आन्दोलनों का मध्य प्रदेश में लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन इस बार दलित-आदिवासी बहुल इलाक़ों में जितनी बड़ी जीत भाजपा को मिली है, उसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। क्योंकि अपनी कई माँगों और महँगाई, बेरोज़गारी, हक़मारी और दलितों, आदिवासियों के ख़िलाफ़ बढ़ते आपराधिक मामलों के चलते मध्य प्रदेश में भाजपा के प्रति जिस तरह की नाराज़गी है, उसके बावजूद इस तरह का चुनाव परिणाम आना बहुत चौंकाने वाला है।
पिछले कुछ वर्षों में शिवराज सिंह चौहान, जो कि एक हिन्दुत्ववादी नेता हैं; के प्रति दलितों-आदिवासियों में नाराज़गी बढ़ी है। शिवराज सिंह चौहान सरकार के पिछले कार्यकालों में जिस प्रकार से दलितों, आदिवासियों पर अत्याचार हुए हैं, उनके चलते दलित-आदिवासी जनता और उनके विभिन्न संगठनों में ख़ासी नाराज़गी बढ़ी है।
हालाँकि हो सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में दलित-आदिवासी मतदाताओं का बहुमत हासिल करने के लिए भाजपा इन समुदायों के विजेता प्रत्याशियों को सरकार में कुछ महत्त्वपूर्ण पद भी दे दे। केंद्र सरकार द्वारा पहले एक दलित को और अब एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद पर नियुक्त करने के पीछे भी भाजपा का यही मक़सद छिपा था। लेकिन क्या इससे पूरे दलित, आदिवासी समुदाय का भला होगा? यह तो रोज़गार, सम्मान और दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों से मुक्ति मिलने पर ही सम्भव है, जो कि भाजपा के मुख्य एजेंडे में नहीं है। इसके लिए सरकार में दलित आदिवासी जनप्रतिनिधियों को बड़ी ज़िम्मेदारियाँ मिलनी चाहिए।
महिलाओं को कितना महत्त्व?
हाल ही में हुए पाँचों राज्यों में महिला प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुँची हैं। भाजपा और कांग्रेस की कई महिला प्रत्याशी चुनाव जीती हैं। लेकिन क्या उनकी दशा में भी सुधार होगा? मध्य प्रदेश में भाजपा की पिछली शिवराज सरकार में दलितों, आदिवासियों की तरह ही महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में बढ़ोतरी देखी गयी। इनमें अपराधियों के निशाने पर सबसे ज़्यादा महिलाएँ भी दलित-आदिवासी समुदायों की ही हैं।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 में भाजपा और कांग्रेस ने कुल 57 महिलाओं को मैदान में उतारा था। इसमें से 27 महिला प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुँची हैं। इनमें भाजपा की 28 महिला प्रत्याशियों में से 21 महिलाएँ चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँची हैं। वहीं कांग्रेस की 29 महिला प्रत्याशियों में से छ: महिलाएँ चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँची हैं। मध्य प्रदेश में महिला मतदाताओं की कुल भागीदारी क़रीब 11.73 फ़ीसदी है। तीन राज्यों में सिर्फ़ राजस्थान में राजघराने से ताल्लुक़ रखने वाली दीया कुमारी को ही भाजपा ने उप मुख्यमंत्री बनाया है; लेकिन बा$की जगह मुख्य पदों पर एक भी महिला नहीं है।
विदित हो कि हाल ही में संसद में पास हुए 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण विधेयक को भाजपा ने अभी तक लागू नहीं किया है, अन्यथा मध्य प्रदेश में उसे क़रीब 74 महिला प्रत्याशियों को टिकट देना पड़ता। लेकिन भाजपा ने इस बार क़रीब 12 फ़ीसदी टिकट ही महिला प्रत्याशियों को दिये। वहीं कांग्रेस ने भी भाजपा से केवल एक टिकट ज़्यादा महिला प्रत्याशियों को दिया। हालाँकि इस बार के विधानसभा में चुनकर पहुँची महिला विधायकों की संख्या छ: ज़्यादा है। पिछली बार 2018 में महिला विधायकों की कुल संख्या 21 थी।
इस बार मध्य प्रदेश में महिलाओं ने रिकॉर्ड 76.03 फ़ीसदी मतदान किया था। वहीं पुरुषों ने 78.21 फ़ीसदी मतदान किया। प्रदेश में हुए इस बार के विधानसभा चुनाव में कुल 77.15 फ़ीसदी मतदान हुआ था। प्रदेश में क़रीब 5,60,60,925 मतदाता हैं। इनमें से क़रीब 2,88,25,607 पुरुष मतदाता हैं। क़रीब 2,72,33,945 महिला मतदाता हैं। वहीं 1,373 थर्ड जेंडर मतदाता हैं। देखते हैं कि महिला आरक्षण पर बात करने वाली भाजपा इस बार महिला विधायकों को सरकार में कितना महत्त्व देगी?