मानवीयता के आधार पर दुनिया म्यांमार के रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ है। भारत में भाजपा सांसद वरूण गांधी ने भी उन्हें सहयोग देने की बात की है। हालांकि भारत सरकार अब भी उन्हें शरण देने से हिचक रही है। बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या चार लाख से भी कहीं ज्यादा है। रोहिंग्या लोगों की हिफाजत का दावा करने वाले उनके छापामार संगठनों की हिंसा का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं लेकिन भूख, बीमारी और बेघर बूढ़े-बच्चे-लड़कियां बेहद लाचार और परेशान हैं।
तकरीबन 10 लाख रोहिंग्या म्यांमार में रहते थे,लेकिन वहां की सरकार ने उनके साथ भेदभाव की नीति अपनाई। उनके ऊपर ढेरों पाबंदियां लगाई। जिसके विरोध में रोहिंग्या लोगों ने अपना एक भूमिगत संगठन भी बनाया। लेकिन हथियारबंद सेनाओं के सामने वह टिका नहीं। इस दमन में सबसे ज़्यादा तकलीफें बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को हुई। गरीब रोहिंग्या इस दमन का शिकार होने लगे। वे सीमा पार कर बांग्लादेश और भारत में आने लगे।
आज हालात येे हंै कि तुर्की, ईरान, सऊदी अरब, खुल कर रोहिंग्या शरणार्थियों के पक्ष में आ गए हैं। वे बांग्लादेश सरकार की रसद, धन और अन्य वस्तुओं से सहयोग कर रहे हैं। भारत सरकार ने भी बांग्लादेश सरकार के अनुरोध पर एक विमान से रसद भिजवाई है। भारत सरकार ने फैसला लिया है कि अब रोहिंग्या शरणार्थियों को देश में नही आने देगें क्योंकि इससे देश की सुरक्षा को खतरा है। हालांकि देश में रह रहे मुसलिम नेता, संगठन बड़ी-बड़ी रैलियां निकाल कर सरकार से अनुरोध कर रहे हैं कि इन्हें शरण दी जाए। भारत सरकार को अंदेशा है कि शरणार्थियों में पाक घुसपैठिए और आईएसआई के एजेंट भी हो सकते हैं, इसलिए ऐसा जोखिम नहीं उठाया जा सकता । उधर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने भारत के इस रवैए की निंदा की है।
रोहिंग्या दुनिया भर में सबसे बड़ा जातीय समुदाय है जो मुसलमान बिरादरी की ही एक धारा है। हालांकि इनमें रोहिंग्या हिंदू परिवार भी हैं। उनकी तादाद कुछ कम है। म्यांमार में उन्हें बाग्लादेश से आए शरणार्थी कहा जाता है। तकरीबन दस लाख की आबादी वाले रोहिंग्या आज म्यांमार से बाहर किए जा रहे हैं। भारत उन्हें लेने को तैयार नहीं है। बांग्लादेश में ये चार लाख से ऊपर हो चुके हैं।
रोहिंग्या लोगों का दावा है कि 15 वीं शताब्दी में वे बर्मा (म्यांमार) के राखिन क्षेत्र मेें बसाए गए थे, लेकिन वहां का शासक वर्ग ( जो बौद्ध है) उन्हीं लोगों को नागरिक का दर्जा देता है जो अपनी नागरिकता का सबूत 1823 के पहले दे सकें। यह ऐसा नियम है जिसे शायद ही कोई प्रमाणित कर पाए। सन 1823 को म्यांमार का शासक वर्ग ‘कट ऑफÓ वर्ष मानता है जिसके पीछे तर्क है कि तभी से लोग ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के विस्तारवादी योजना में आए होंगे, क्योंकि इसके बाद तब के राजा से 1826 में युद्ध हुआ जिसमें उसकी हार हुई।
बौद्ध हमेशा रोहिंग्या लोगों को बाहर से आया हुआ ही मानते हंै। हालांकि वहां के समाज सुधारक राजनीतिकों ने कई बार यह कोशिश की इन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ा जाए। एक बार तो उन्हें प्रतिनिधित्व भी देने की कोशिश हुई थी जिससे देश में उनकी मौजूदगी को मान्यता मिले। लेकिन तभी 2012 में एक बौद्ध महिला के साथ दुष्कर्म की वारदात हो गई। इस मामले में बताया गया कि दुष्कर्म में कथित तौर पर रोंिहंग्या समुदाय के लोगों कर हाथ है। इस मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि तब हुई व्यापक हिंसा के चलते पांच लाख रोहिंग्या शरणर्थियों ने बांग्लादेश में शरण ली। कई भारतीय सीमाओं पर रहे। कई साल बाद ज़्यादातर रोहिंग्या वापस लौट गए। लेकिन कुछ टिके रहे।
इसके बाद फिर हिंसा का व्यापक दौर 2015 में शुरू हुआ जब उन्हें लोकतांत्रिक जनमत में हिस्सेदारी नहीं मिली । यह देश का पहला चुनाव था। इससे विस्थापन फिर शुरू हुआ और उनकी अंतरराष्ट्रीय समुदाय में ‘बोट पीपुलÓ के तौर पर पहचान बनी।
इस हिंसा में म्यांमार की सेना ने भी बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने इन लोगों पर अनेक तरह की बंदिशें लगाई और सताना शुरू किया। इनकी आबादी पर बम धमाके और शारीरिक – मानसिक तनाव रोजमर्रा का दस्तूर बन गया। यह सब उन्हें म्यांमार से भगाने के लिए ही किया गया। फर्जी खबरों और अफवाहों का जबरदस्त सहारा लिया गया। इस समुदाय के लोगों पर शादी,परिवार नियोजन, रोजगार, शिक्षा, धार्मिक सहिष्णुता और आने-जाने की आजादी छीन ली गई। ज़्यादातर रोहिंग्या बेहद दारिद्रय और बेहद बुरी हालत में रहते हैं।
इस दशा को देख कर रोहिंग्या समुदाय के ही कुछ युवाओं ने हथियार हाथ में लिए जिससे समुदास की रक्षा हो और हालात कुछ बेहतर हों। लेकिन युवाओं के इस सपने को आतंकवाद की श्रेणी में म्यांमार शासन ने माना और हथियारबंद बौद्ध संगठनों और सेना ने रोहिंग्या समुदाय पर हमला आगजनी घर पकड़ और यातनाओं के जरिए उनकी कमर तोड़ दी।
म्यांमार की नेता को शांति का नोबल पुरस्कार मिला है। विश्व समुदाय ने इस व्यापक बर्बर हत्या कांड पर मांग की कि उनसे शांति का नोबल पुरस्कार वापस ले लिया जाए क्योंकि सत्ता में आज उनकी भागीदारी है पर वे न तो बौद्धों को रोक पा रही हंै और न सेना को। बड़ी तादाद में रोंिहंग्या शरणार्थी दूसरे देशों की सीमाओं पर शरण लेने के लिए बाध्य हैं।
अभी पिछले ही दिनों अराका न रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (एआरएसए) ने पुलिस स्टेशन पर हमले किए और सेना के एक शिविर को अगस्त के आखिरी दिनों में उड़ा दिया । इसके बाद जो दमन चक्र म्यांमार की सैनिक टुकडिय़ों ने रोहिंग्या लोगों पर चलाया उसमें न जाने कितने मारे गए और तकरीबन तीन लाख लोगों ने देश छोड़ दिया। इस घटना पर तुर्की और ईरान ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और चेतावनी दी कि यदि यह मार-काट नहीं थमी तो सैनिक कार्रवाई भी हो सकती है।
भारत में तकरीबन 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी आ गए हंै। भारत सरकार ने साफ तौर पर कहा है कि इन शरणार्थियों को वापस जाना होगा क्योंकि इस से भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से खतरा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के बाद यांगून (रंगून) गए भी लेकिन इस मसले पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय और बांग्लादेश को भी इस मामले में भारत से सहयोग की उम्मीद थी, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर म्यांमार सरकार से कोई बातचीत नहीं की। भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से जारी संयुक्त विज्ञप्ति में भी इस मुद्दे पर खामोशी है।
स्ंायुक्त राष्ट्र संघ में मानवाधिकार के हाई कमिश्नर जेड रॉड अल हुसैन ने म्यांमार में हो रही हिंसा को ‘सामुदायिक सफाई मुहिम बताया और भारतीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिूज के बयान की निंदा की । उन्होंने जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के 36वें सत्र में बोलते हुए कहा कि भारत शरणार्थियों को ‘जबरन वापसÓ नहीं भेज सकता। जहां उन पर फिर यातनाओं का दौर शुरू होगा। म्यांमार सरकार को यह झूठ बोलने से बाज आना चाहिए कि रोहिंग्या ही अपने घरों में आग लगा रहे हैं और अपने गांव तबाह कर रहे हैं।
भारतीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने अपने बयान में कहा था भारत ने शरणार्थी सम्मेलन (रिफ्यूजी कन्वैशन) के कागजों पर दस्तखत नहीं किए हैं, इसलिए वह इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में ही नहीं आता। रिजिजू यह भूल गए कि भारत ने हमेशा शरणार्थियों को देश में शरण दी है चाहे वे तिब्बत के बौद्ध हो, खुद दलाई लामा हों, या फिर बांग्लादेश (पूर्व पाकिस्तान) से आए हजारों शरणार्थी रहे हों।
सबसे ज़्यादा दुखद है कि आंग सान सू की जिन्होंने खुद एक लंबा समय म्यांमार के सैनिक शासकों के खिलाफ आंदोलन चलाया और 15 साल तक का लंबा समंय नजऱबंदी में बिताया,को भी इन रोहिंग्या शरणार्थियों से कोई हमदर्दी नहीं है। उसी आंदोलन के चलते उन्हें शांति नोबल पुरस्कार भी मिला और सारी दुनिया में उनकी अपनी एक पहचान बनी। आज म्यांमार के शासन पर उनका प्रभाव है और उनके ही देश के नागरिक रोंिहंग्या शरणार्थी के तौर पर बांग्लादेश की सीमा पर ‘नो मेंस लैंडÓ में तकलीफ भरी जिंदगी जी रहे हैं और भारत की सीमा पर शरण की तख्ती लिए खड़े हैं।
पूरी दुनिया में रोहिंग्या शरणार्थियों की विपदा पर व्यापक चिंता है। कुछ संस्थाएं और देश तो इसे एक जाति विशेष के खिलाफ दमन भी कहते हैं। जर्मनी जहां सीरिया, मिस्र वगैरह देशों से आए शरणार्थियों को शरण मिली उसने म्यांमार को दी जा रही अपनी कई सहायक परियोजनाएं बंद कर दी हैं। तुर्की, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात , मलेशिया आदि ने इन रोहिंग्या शरणार्थियों के खिलाफ बौद्ध सेना और बौद्धों के सशस्त्र संगठनों द्वारा की जा रही हिंसक कार्रवाई की कड़े शब्दों में निंदा की हैं। भारत के विभिन्न नगरों में मुसलिम समुदाय ने भी रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ अपनी एकजुटता दिखाते हुए प्रदर्शन किए हैं। उधर इस पूरे मसले पर भारत सरकार के अस्पष्ट रुख से बांग्लादेश में भी खासी असहजता है। क्योंकि एक तरफ भारत ने बांग्ला देश के अनुरोध पर राहत सामग्री से लैंस विमान तो ढाका भेजा लेकिन यह भी कहा कि भारत शरणार्थियों को वापस भेजेगा।
पूरी दुनिया में म्यांमार शासन की हो रही निंदा के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय नेे जो बंयान जारी किया है उसमें कहा गया है कि म्यांमार राखिने (म्यामार का प्रांत) में हो रही घटनाओं पर भारत गंभीर रूप से चिंतित हैं । इन हालात को गंभीरता से सामान्य बनाने की कोशिश की जानी चाहिए जिससे नागारिकों की स्थिति सहज हो सके और सुरक्षा सेनाएं उनकी रक्षा कर सकें।
इसी बयान में कहा गया कि प्रधानमंत्री ने अभी हाल में यांगून की यात्रा की। उन्होंने सुरक्षा सेनाओं और निर्दोष लोगों के हताहत होने पर चिंता भी जताई । हमें उम्मीद है कि हिंसा जल्दी ही थमेगी और राज्य में शांति तेजी से वापस आएगी।
इस बयान से यह पता लगता है कि प्रधानमंत्री ने शांति, संप्रदायिक सौहार्द्रता ,न्याय, सम्मान और लोकतंात्रिक मूल्यों के तहत वहां की समस्याओं का समाधान चाहा है। इस बात पर दोनों देशों में सहमति बनी कि भारत राखिन राज्य विकास कार्यक्रम में म्यांमार सरकार के साथ सहयोग करना चाहेगा।
दरअसल बांग्लादेश में दिनों-दिन शरणार्थियों की तादाद बहुत बड़ी हो रही है। जिसे संभाल पाने में वहां की शासन-व्यवस्था के सामने तमाम तरह की परेशानियां हैं राहत सामग्री के वितरण में भी घनघोर अनियमितता है। पेयजल और इलाज की भी सुविधा लगभग नहीं है । बांग्लादेश किसी तरह शरणार्थियों को पनाह ज़रूर दे रहा है लेकिन आखिर में वहां अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को ही चीजों को संभालना होगा।