कुछ बातें थोड़ी पुरानी हैं, कुछ नई. दोनों को मिलाने से जिद, रणनीति, दांवपेंच आदि के घालमेल वाली एक लंबी राजनीतिक कहानी बनती है. साथ में सवालों की लंबी फेहरिस्त भी तैयार होती है. सवालों की बात बाद में, पहले वह कहानी संक्षेप में. 12 साल पहले झारखंड नामक अलग राज्य बन जाने के बाद शेष बचे बिहार के नेता और राजनीतिक दल परेशान हुए कि सब तो झारखंड में गया, बाढ़ और बालू के भरोसे बिहार कैसे चलेगा? सबने शेष बिहार को विशेष राज्य बनाने की मांग पर सहमति जताई, विधानमंडल में प्रस्ताव पारित कर दिया गया. कुछ समय बाद इसके समर्थन में अभियान शुरू हुआ. अभियान का पासा सत्तारूढ़ जदयू की ओर से फेंका गया, भाजपा साथ रही. अचानक चले गए इस दांव का विपक्ष के पास जवाब नहीं था. कुछ ही दिनों बाद जदयू ने इस अभियान में उफान लाने के लिए इसके समर्थन में हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत कर दी. भाजपा को झटका लगा, लेकिन गठबंधन की मजबूरी थी तो वह हां में हां मिलाती रही. जदयू ने सवा करोड़ बिहारियों के हस्ताक्षर दिल्ली पहुंचा दिए. इससे बात नहीं बन सकी. इस बीच नीतीश कुमार की देखादेखी अधिकांश जदयू नेताओं ने विशेष राज्य दर्जे पर कुछ वाक्य अच्छी तरह रट लिए. बोलने का पूरा अभ्यास किया कि कैसे हर मर्ज के लिए इसे इकलौते इलाज की तरह पेश करना है. विशेष राज्य दर्जा लेख की रटंत और फिर उसका प्रयोग उस चुटकुले की तर्ज पर होने लगा जिसमें एक बच्चा गाय पर ही निबंध याद कर लेता है और परीक्षा में निबंध किसी भी विषय पर आए वह उसे गाय के दायरे में ले आता है. जैसे कि नदी पर आए तो वह लिखता है कि मेरे गांव किनारे एक नदी बहती है, उसके किनारे अनेक जानवर पानी पीने आते हैं, उनमें कुछ गायें भी आती हैं. गाय बहुत ही सुंदर जानवर है, उसके चार पैर होते हैं, दो सींग…
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ प्रखंड से लेकर राज्य स्तर तक के जदयू नेता इस निबंध को बारंबार रटते रहे. लेख एकरस-सा लगने लगा था कि अचानक नई घोषणा हुई. जदयू की ओर से अधिकार यात्रा निकालने की घोषणा की. एलान हुआ कि नीतीश पूरे राज्य में जाएंगे, लोगों को विशेष राज्य दर्जे के प्रति जागरूक करेंगे और चार नवंबर को पटना के गांधी मैदान में होने वाली अधिकार रैली में भाग लेने का आह्वान भी करेंगे. बतौर मुख्यमंत्री छठी यात्रा के तौर पर शुरू हुई ‘सेवा यात्रा’ को पूरा किए बिना ही नीतीश ने जदयू नेता के रूप में सातवीं यात्रा की शुरुआत ‘अधिकार यात्रा’ के रूप में कर दी.
लेकिन शुरुआत से ही मामला उल्टा पड़ने लगा. नारेबाजी होने लगी. नीतीश को काले झंडे दिखाए जाने लगे. उनके काफिले पर पत्थरबाजी भी हो गई. जूते-चप्पल भी दिखाए जाने लगे. बड़ी फजीहत हुई. रोज-ब-रोज बढ़ते अराजक विरोध को देखते हुए अधिकार यात्रा को जदयू कार्यकर्ता सम्मेलन की शक्ल में बदलना पड़ा. पार्टी नेताओं के बयान आए कि यह तो जदयू कार्यकर्ता सम्मेलन ही था, अधिकार यात्रा की तो बात ही नहीं थी.
कांग्रेस जानती है कि यदि वह नियमों में जोड़-घटाव करके बिहार को यह दर्जा देने की कोशिश भर करेगी तो कई राज्य एक साथ इसके लिए खड़े हो जाएंगे
जदयू और नीतीश की ओर से यात्रा में खेल बिगाड़ने का आरोप पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद पर लगता रहा. लेकिन इस बीच अपनों ने भी रंग को बदरंग करने में कसर नहीं छोड़ी. सहयोगी भाजपा के एक सांसद उदय सिंह ने अधिकार यात्रा के समानांतर वेदना रैली करके राज्य सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार कह डाला. हलचल मची. अंदरखाने बात फैली कि यह विशेष राज्य दर्जा अभियान से अलग किए जाने के बाद खार खाए भाजपाइयों की शह पर हुआ. लेकिन कुछ रोज बाद जदयू के भी एक धाकड़ मुसलिम नेता ने वही राग दुहरा दिया. बेमौसमी बारिश करते हुए सीमांचल इलाके से आने वाले तस्लीमुद्दीन ने गर्जना की कि यह सरकार भ्रष्ट, निकम्मी और धोखेबाज है.
तरह-तरह के मोड़ों से गुजरते हुए बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिलाने का अभियान पटना के गांधी मैदान में अधिकार रैली के रूप में सामने आ चुका है. अब फिर वही सवाल आता है कि विशेष राज्य दर्जा सच में बिहार को उबारने के लिए इकलौता और जरूरी विकल्प है या महज एक राजनीतिक जाल. उधेड़बुन में फंसे एक नेता की सियासी चाल है या कई किस्म की विफलताओं पर परदा डाले रहने और उनके दुष्परिणाम से बचने के लिए मजबूत ढाल? इस सबके बीच एक शाश्वत सवाल बना हुआ है कि क्या वाकई इस तरह के अभियान से केंद्र सरकार नियमों में बदलाव करके बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देगी. उधर, विरोधी पूछते हैं कि आज विशेष राज्य दर्जे को बिहार के हर मर्ज की इकलौती दवा बताने वाले नीतीश कुमार जब वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री थे और इससे संबंधित प्रस्ताव केंद्र के पास गया था तो तब उन्होंने इस पर क्यों चुप्पी साध रखी थी. जबकि उस समय बिहार को विशेष सहायता के लिए बनी समिति के अध्यक्ष भी नीतीश ही थे और केंद्र में बिहार से पांच-छह मंत्री भी थे. तब चुप्पी साधने वाले नीतीश को अब क्यों ऐसा लगने लगा है कि बिहार को विशेष बनाना ही इकलौता रास्ता है?
‘बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलेगा या नहीं’ वाला जो पहला सवाल है उसका जवाब पिछले दिनों योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन जैसे लोग साफ-साफ दे चुके हैं कि यह असंभव है. अभिजीत सेन जैसे लोग इतने आत्मविश्वास से यदि तीन शब्दों का एक वाक्य ‘यह असंभव है’ कहकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे बड़े और महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान को जोरदार धक्का दे देते हैं तो यह ऐसे ही हवा में हुई बात मानी भी नहीं जा सकती. सेन कहते हैं कि बिहार को विशेष राज्य दर्जा देने के पक्ष में जब जदयू की ओर से सवा करोड़ लोगों के हस्ताक्षर दिल्ली पहुंचे तो इस पर विचार के लिए एक अंतरमंत्रालयी समूह का गठन किया गया था. समूह ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है जिसमें कहा गया है कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिल सकता. राज्य के पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे जैसे लोग भी मानते हैं कि बिहार जिन बिंदुओं पर विशेष राज्य का दर्जा पाना चाहता है उन बिंदुओं के आधार पर दूसरे राज्यों के तथ्य ज्यादा मजबूत हैं, इसलिए ऐसा होना इतना आसान नहीं.
सिर्फ अभिजीत सेन या वीएस दुबे नहीं, यह बात नीतीश और उनके साथ विशेष राज्य दर्जा अभियान को अधिकार यात्रा, अधिकार सम्मेलन, अधिकार रैली आदि के जरिए परवान चढ़ाने में मेहनत से लगे रहे संगी-साथी भी जानते हैं. पहली बात तो यह कि बिहार तय मानदंडों को पूरा ही नहीं करता. इसे खुद नीतीश के बयानों के बदलाव से भी समझा जा सकता है. जब विशेष राज्य दर्जा अभियान शुरू हुआ था तो रोजाना ही नीतीश कहते थे कि बिहार सभी मानदंडों पर खरा उतरता है, केंद्र को चाहिए कि वह उसे जल्दी विशेष राज्य का दर्जा दे दे. अब वे और उनके सिपहसालार कहते हैं कि केंद्र को मानदंडों में बदलाव करना चाहिए. इस बाबत जदयू के वरिष्ठ नेता, राज्यसभा सांसद और विशेष राज्य दर्जा अभियान के आरंभिक सूत्रधारों में प्रमुख रहे शिवानंद तिवारी से बात होती है तो पहले वे कहते हैं, ‘अब मैं सीधे इस अभियान में नहीं हूं, यह पार्टी चला रही है इसलिए इस पर ज्यादा नहीं बोल सकता.’ बहुत कुरेदने पर बाद में कहते हैं कि मानदंड और नियम बदलकर भी बिहार को यह दर्जा देना चाहिए.
तिवारी मानदंडों को बदलकर दर्जा देने की बात ऐसे कहते हैं जैसे यह चुटकी बजाकर कर दिए जाने वाली बात हो. हालांकि जब वे यह कहते हैं कि अब यह पार्टी का अभियान है, मैं सीधे नहीं हूं तो यह देखकर थोड़ा अटपटा लगता है कि इसका तानाबाना बुनने वाले सूत्रधार ही ऐसा बोल रहे हैं. लेकिन बाद में गौर करने पर यह भी पता चलता है कि इस अभियान में और विशेष राज्य दर्जे पर पार्टी के दूसरे कद्दावर नेता शरद यादव भी बहुत रुचि लेते हुए नहीं दिखे.
इस बीच कई जानकार बताते हैं कि कांग्रेस यह नादानी कतई नहीं करेगी कि वह तय मानदंडों में बदलाव करके बिहार को विशेष दर्जा दे दे. वजह यह कि एनडीए के कार्यकाल में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से उसे खास सियासी फायदा नहीं होने वाला. उससे भी ज्यादा अहम यह है कि बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस जानती है कि यदि वह नियमों में जोड़-घटाव करके बिहार को यह दर्जा देने की कोशिश भर करेगी तो कई राज्य एक साथ इसके लिए खड़े हो जाएंगे. उनमें से कई के दावे और तर्क, दोनों बिहार से ज्यादा तथ्यगत और मजबूत होंगे. कई तो यूपीए के घटक दल ही होंगे.
तब ऐसी स्थिति में और इन सवालों के जाल में फिर एक अहम सवाल सामने होता है कि सब कुछ जानते हुए भी नीतीश विशेष राज्य दर्जा को लेकर क्यों अड़े हैं. क्यों वे एक अनिश्चित बिंदु पर अपनी पूरी राजनीतिक ऊर्जा लगा रहे हैं? आखिर इस मसले के जरिए उन्हें किन-किन बिंदुओं पर उम्मीद की किरणें दिख रही हैं? क्यों वे इसके लिए अपनी सहयोगी भाजपा को भी इस अभियान से दूर करके इसे सिर्फ जदयू के अभियान में परिणत करके अधिकार यात्रा के जरिए अधिकार रैली जैसे पड़ाव तक पहुंच गए?
अलग-अलग लोग इसके बारे में अलग-अलग राय रखते हैं. विशेष राज्य दर्जा अभियान में बिहारी उपराष्ट्रीयता के तत्व को समावेशित करने वाले सूत्रधार और एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य सचिव अर्थशास्त्री शैबाल गुप्ता जैसे लोग मानते हैं कि इस पर बात नहीं होनी चाहिए कि जब नीतीश केंद्र में मंत्री थे तब क्यों चुप्पी साध गए थे और अब क्या कह रहे हैं. शैबाल कहते हैं कि बिहार को आगे ले जाने के लिए यह जरूरी मांग है, इसलिए नीतीश कुमार इसमें जी-जान से लगे हुए हैं. हालांकि कई उनसे इत्तिफाक नहीं रखते. प्रो नवल किशोर चौधरी जैसे वरिष्ठ अर्थशास्त्री कहते हैं, ‘विशेष राज्य दर्जा अभियान सरकार की विफलता, कमियों और नाकामियों को छुपाने का हथियार बन चुका है.‘ पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र मानते हैं कि नीतीश राज्य को पटरी पर लाने के लिए ईमानदार कोशिश के तहत यह कर रहे हैं तो हार्वर्ड से पढ़े और मूल रूप से बिहार के निवासी अर्थशास्त्री शशिभूषण मानते हैं कि विशेष दर्जे के बगैर जो हो सकता है, नीतीश वही करके दिखाएं तो ज्यादा बेहतर होगा, वरना एक ही बात रटते रहना किसी लिहाज से ठीक नहीं.
जानकार बताते हैं कि विशेष दर्जा मिले या न मिले, दोनों ही स्थितियों में नीतीश खेल अपने पक्ष में बनाए रख सकते हैंयानी जितने मुंह उतने दृष्टिकोण हैं. हो सकता है सबका आकलन सही हो, लेकिन विशेष राज्य दर्जा अभियान को लेकर नीतीश के हठ के संदर्भ में और भी ढेर सारी बातें हैं. एक तो यह सच है कि नीतीश अभियानी राजनीति करने में ज्यादा भरोसा रखते हैं और इसे उन्होंने अधिकार यात्रा के पूर्व छह यात्राओं के जरिए दिखाया भी है. वे चार डिग्री से लेकर 40 डिग्री तापमान में भी यात्राओं को जारी रखते हुए अपनी जीवट, जिद और जुनून साबित कर चुके हैं. नीतीश दूसरी पारी खेल रहे हैं और यह जान रहे हैं कि इस पारी में बात बनाने से काम नहीं चलने वाला. इस बार अगर जनता को ठोस काम नहीं दिखाए जा सके तो फिर मामला गड़बड़ भी हो सकता है. लेकिन उनकी दूसरी पारी तरह-तरह के कलह-अंतर्कलह में ही घिरती हुई ज्यादा नजर आ रही है. ऐसे में वे विशेष राज्य दर्जा अभियान को जारी रख राज्य के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और चिंता को एक स्वर देने की कोशिश में लगे हैं. इन सबके अलावा कुछ और ठोस राजनीतिक वजहें भी हैं, जिनकी वजह से नीतीश इस अभियान को लेकर सक्रियता बनाए रखना चाहते हैं.
पहले जदयू से ही ताल्लुक रखने वाले बिहार के एक मंत्री की ही बात सुनते हैं. वे नाम न छापने की शर्त पर विशेष राज्य दर्जा पर खूब बात करते हैं और आखिर में सारांश के तौर पर कहते हैं, ‘जदयू एक क्षेत्रीय पार्टी है और बिहार जैसे राज्य में सत्तासीन है. अब क्षेत्रीय पार्टी और सत्तासीन होने की वजह से एक परेशानी यह है कि आखिर किस कार्यक्रम के तहत अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय और गतिशील रखा जाए ताकि वे अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक सक्रियता से लगे रहें. इसके लिए बिहार को विशेष राज्य दर्जा को जदयू को अपने पाले में करना जरूरी था और फिर इसे लेकर एक बड़े आयोजन की भी दरकार थी.‘
मंत्री जी की इस निजी राय के इतर और भी कुछ बातों पर गौर करते हैं. बिहार की आबादी में युवाओं का अनुपात बहुत ज्यादा है. नीतीश कुमार को पता है कि युवाओं को विशेष राज्य दर्जा वाला अभियान भा सकता है, क्योंकि इसमें जाति की राजनीति की बात नहीं होती बल्कि इसका कनेक्शन राज्य के विकास से जुड़ा हुआ है. दूसरी यह बात कि बिहार में मध्यवर्ग और नव मध्यवर्ग की आबादी भी अच्छी-खासी बढ़ी है. यह वर्ग बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के अभियान में रुचि न भी रखे तो इसके एक तत्व बिहारी उपराष्ट्रीयता में उसकी रुचि हो सकती है, क्योंकि यह भी जाति की राजनीति के बजाय बिहारीपन की बात करता है. बिहारीपन मध्यवर्ग, नव मध्यवर्ग और सवर्ण समूह को ज्यादा भाता है क्योंकि इसमें भी जाति की राजनीति हावी नहीं होती. जाति की राजनीति का थोड़ा हाशिये पर जाना नीतीश के लिए भी फायदेमंद हो सकता है क्योंकि भाजपा से अलगाव होने की स्थिति में नीतीश को भाजपा और लालू प्रसाद दोनों से पार पाने के लिए मध्यवर्ग, नव मध्यवर्ग, नौजवान वर्ग और सवर्ण समूह आदि को अपने साथ जोड़ना ही होगा. और अंत में विशेष राज्य दर्जे के मसले पर नीतीश के बालहठ की एक बड़ी वजह तो यह है ही कि इसके जरिए विरोधियों को नाथकर चुप रखा जा सकता है क्योंकि वे इस मांग के खिलाफ नहीं जा सकते और यह दर्जा मिलने, ना मिलने, दोनों की स्थिति में नीतीश खेल अपने पक्ष में बनाए रख सकते हैं. जानकारों के मुताबिक विशेष दर्जा नहीं तो कुछ भी विशेष जैसा मिल जाए तो उसका श्रेय नीतीश के खाते में ही जाएगा. अगर कुछ नहीं मिलता है तो भी नीतीश कह सकते हैं कि हमने क्या-क्या न किया लेकिन निष्ठुर कांग्रेस और केंद्र सरकार सुनती ही नहीं. यह मसला लोकसभा, विधानसभा दोनों चुनावों में समान रूप से भाषणबाजी में इस्तेमाल किया जा सकता है.