सर्वोच्च न्यायालय के राजद्रोह क़ानून पर रोक के बाद गेंद केंद्र के पाले में
ठीक एक साल वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ ने हिमाचल प्रदेश के शिमला में उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह के आरोप वाली प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) रद्द करने के लिए याचिका डाली थी। और सर्वोच्च न्यायालय ने जून में उनके हक़ में फ़ैसला सुनाया था। दुआ आज हमारे बीच नहीं हैं; लेकिन मई के पहले पखवाड़े सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे राजद्रोह क़ानून पर रोक लगाने और राजद्रोह के नये मामले दर्ज नहीं करने को कहा। राजद्रोह क़ानून को लेकर देश का एक बड़ा वर्ग सवाल उठाता रहा है। कांग्रेस ने तो सन् 2019 लोकसभा चुनाव के अपने घोषणा-पत्र में इसे ख़त्म करने का वादा किया था; लेकिन सत्ता उसे नसीब ही नहीं हुई। अब मोदी सरकार ने इस क़ानून के पुनरीक्षण की बात सर्वोच्च न्यायालय के सामने कही है। इस फ़ैसले से पहले ऐसा कई बार हुआ है कि न्यायालय इस क़ानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठा चुका है और इसके ग़लत इस्तेमाल पर सरकारों को लताड़ भी लगा चुका है।
हाल के वर्षों, ख़ासकर मोदी राज में देश में जिस तरह लोगों को राजद्रोह का क़ानून लगाकर गिरफ़्तार कर जेलों में डाला गया है; उसके ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ उठी है। विनोद दुआ ने पिछले साल तब सर्वोच्च न्यायालय का रुख़ किया था, जब उनके ख़िलाफ़ शिमला में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ अपने यूट्यूब चैनल में कथित आरोप लगाने वाली टिप्पणियों के लिए देशद्रोह के तहत एफआईआर दर्ज की गयी थी।
बुद्धिजीवियों में इस बात पर गहरी चिन्ता थी कि अपने विचार व्यक्त करने के हर मामले को यदि राजद्रोह क़ानून के तहत डाल दिया जाएगा, तो इसके बहुत भयंकर नतीजे होंगे।
केंद्र सरकार ने अब सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि वह राजद्रोह क़ानून की समीक्षा के लिए तैयार है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके बाद आदेश दिया कि जब तक सरकार की तरफ़ से राजद्रोह क़ानून के भविष्य पर पुनरीक्षण नहीं होता, इस क़ानून पर रोक रहेगी। इस दौरान इसके आरोपी जमानत याचिका दायर कर सकते हैं। कोर्ट और केंद्र की तरफ़ से राजद्रोह क़ानून पर इस रुख़ के बाद क़ानून के औचित्य पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं और लोग कह रहे हैं कि ऐसे क़ानून की ज़रूरत ही क्या है?
मामलों की बाढ़
सरकारी डाटा (एनसीआरबी) देखें, तो यह राजद्रोह के तहत दर्ज मामलों की संख्या अपेक्षाकृत कम दिखाता है। लेकिन एक ग़ैर-सरकारी संस्था की वेबसाइट, जो अनुच्छेद-14, के राजद्रोह क़ानून के मामलों पर पूरी नज़र रखती है; के मुताबिक, सन् 2010 से सन् 2021 तक राजद्रोह के 867 मामले दर्ज हुए।
एनसीआरबी, जिसने पहली बार राजद्रोह से जुड़े मामलों का डाटा सन् 2014 से ही जुटाना शुरू किया; के आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2014 (मोदी सरकार आने के बाद) से सन् 2020 के बीच राजद्रोह के 399 मामले ही दर्ज हुए हैं। हालाँकि वेबसाइट अनुच्छेद-14 के मुताबिक, इस दौरान राजद्रोह के 557 मामले दर्ज हुए हैं। वेबसाइट के मुताबिक, आँकड़े ज़िला न्यायालय, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, पुलिस थानों, एनसीआरबी रिपोर्ट और अन्य माध्यमों के ज़रिये तैयार किये गये हैं।
अनुच्छेद-14 के मुताबिक, उसके आँकड़े वाले मामलों में 13,306 लोगों को आरोपी बनाया गया। हालाँकि जितने भी लोगों पर मामला दर्ज हुआ, डाटाबेस में उनमें सिर्फ़ 3,000 लोगों की ही पहचान हो पायी। अनुच्छेद-14 के मुताबिक, एनसीआरबी का डाटा राजद्रोह के सभी मामले कवर नहीं करता। कारण यह है कि ऐसे मामले, जिनमें कई और धाराओं का इस्तेमाल किया जाता है; एनसीआरबी उन्हें राजद्रोह के डाटा में शामिल नहीं करता।
वेबसाइट के मुताबिक, सन् 2014 में देश में मोदी सरकार के आने के बाद से सन् 2021 तक 595 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। यानी सन् 2010 से दर्ज हुए कुल मामलों में से 69 फ़ीसदी मामले मोदी सरकार के दौरान ही दर्ज हुए। इन मामलों का औसत देखें, तो जहाँ सन् 2010 के बाद से यूपीए (मनमोहन सिंह) सरकार में हर साल औसतन 68 मामले दर्ज हुए, वहीं एनडीए सरकार में हर साल औसतन 74.4 मामले दर्ज हुए।
दिलचस्प बात यह है कि राजद्रोह के 867 मामलों में सिर्फ़ 13 लोगों को ही दोषी ठहराया जा सका। इसका मतलब यह हुआ कि जिन 13,000 लोगों को आरोपी बनाया गया, उनमें से महज़ 0.1 फ़ीसदी ही राजद्रोह के दोषी पाये जा सके। शायद यही एक बड़ा कारण भी है कि इस क़ानून के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठती रही।
यहाँ यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि हमारे देश में बेलगाम सोशल मीडिया (ख़ासकर एक ख़ास तबक़ा) ऐसे मामले में फँसाये गये लोगों को लेकर जैसा दुष्प्रचार करता है, उससे वह व्यक्ति क़ानून की तरफ़ से दोषी पाये जाने या बेगुनाह साबित हो जाने से पहले ही ग़लत तरीक़े से देशद्रोही ठहरा दिया जाता है। इस दौरान उसे किस परेशानी, जलालत और मानसिक गुज़रना पड़ता है, इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है।
बता दें इस क़ानून के तहत पकड़े गये व्यक्ति (आरोपी) को जमानत मिलने तक क़रीब 45 से 50 दिन जेल में रहना पड़ता है। यदि वह व्यक्ति आरोप के ख़िलाफ़ जमानत मिलने से पहले किसी उच्च न्यायालय की शरण में चला जाता था, तो उसे राहत मिलने में 175 से 200 दिन लग जाते थे।
अब क्या होगा?
सर्वोच्च न्यायालय की राजद्रोह क़ानून पर रोक के बाद यह बड़ा सवाल है कि अब क्या होगा? सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों को राजद्रोह के नये मामले दर्ज नहीं करने को कहा है। अगली सुनवाई जुलाई के तीसरे हफ़्ते होनी है। सवाल यह है कि जिन लोगों ओर राजद्रोह मामले चल रहे हैं, उनका क्या होगा? सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि जिन पर मामला चल रहा है और जो जेल में हैं, वे जमानत के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं। उन पर कार्रवाई पहले की तरह चलती रहेगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने नये मामले दर्ज करने पर रोक लगायी है। लेकिन फिर कोई मामला दर्ज भी होता है, तो आरोपी उसके (सर्वोच्च न्यायालय) के इस आदेश की कॉपी लेकर निम्न न्यायालय (निचली अदालत) में जा सकता है। इसमें जेएनयू के छात्र रहे उमर ख़ालिद भी शामिल हैं, जो विश्वविद्यालय परिसर में देश-विरोधी नारे लगाने के आरोप में राजद्रोह का मामला झेल रहे हैं। ख़ालिद जमानत के लिए निम्न न्यायालय में जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि यह उस पर निर्भर करेगा कि आरोपियों को जमानत दी जाती है या नहीं। चूँकि सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह क़ानून को स्थगित किया है, इसकी क़ानूनी वैधता अभी भी है। केंद्र को अब जुलाई के तीसरे हफ़्ते तक क़ानून पर विचार करने का वक़्त मिल गया है।
कहाँ, कितने मामले?
वेबसाइट के मुताबिक, अनुच्छेद-14 के तहत सन् 2010 से लेकर सन् 2021 तक देश भर में राजद्रोह के जो 867 मामले दर्ज हुए, वह उन राज्यों में ज़्यादा हुए, जिनमें या भाजपा की अपनी सरकारें थीं या उसके सहयोग वाली एनडीए की सरकारें थीं। सिर्फ़ एक में विपक्ष की पार्टी की सरकार थी। राजद्रोह के मामले दर्ज करने में सबसे पहले नंबर पर रहा बिहार, जहाँ इस दौरान 171 राजद्रोह मामले दर्ज हुए। वहीं दूसरे नंबर तमिलनाडु, तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश, उसके बाद झारखण्ड और कर्नाटक का नंबर रहा। जहाँ तक राजद्रोह के आरोपियों की बात है, तो सबसे ज़्यादा 4,641 आरोपी झारखण्ड में रहे; जबकि तमिलनाडु 3,601, बिहार 1,608, उत्तर प्रदेश 1,383 और हरियाणा 509 लोग राजद्रोह के मामले फँसे। सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर पत्रकार तक जिन लोगों पर राजद्रोह के सबसे ज़्यादा मामले बने, उनमें सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक समूह ज़्यादा निशाने पर रहे। उन पर इस दौरान कुल 99 मामले दर्ज हुए और कुल 492 आरोपी बनाये गये। वहीं अकादमिक और छात्र वर्ग के ख़िलाफ़ 69 मामले दर्ज हुए, जिसमें 144 आरोपी बनाये गये। राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर 66 मामले दर्ज हुए, जिनमें 117 आरोपी बनाये गये। आम कर्मचारियों और व्यापारियों के ख़िलाफ़ कुल 30 मामले दर्ज हुए, जिनमें 55 आरोपी बनाये गये। वहीं पत्रकारों के ख़िलाफ़ 21 मामले दर्ज हुए, जिनमें 40 आरोपी बनाये गये।