जहां अंधविश्वास का पाखंड सिर चढ़कर बोल रहा हो, वहां ना लागू हो पाने वाले कानून का राज हो जाता है। राजस्थान के आदिवासी जिले, बांसवाड़ा, चित्तौडग़ढ़, उदयपुर,भीलवाड़ा,डूंगरपुर, सिरेही और जालोर गणतंत्र की सत्तरवीं सालगिरह पर भी इस अभिशाप से मुक्त नहीं है। डायन, मौताणा और रुदाली सरीखी विकृतियों की कू्ररता ने जल, जंगल ओर जमीन के स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों की जिन्दगी की चूलें हिला दी है। सरकार की बेरूखी और ठिकानेदारों के पाखंड के दो पाटों में पिसते हुए आदिवासी दबंगों की ऐसी प्रताडऩा सह रहे हैं उनकी कल्पना भी सिहरा देने वाली है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों के मुताबिक कबीलाई हिंसक प्रथाओं और दबंगों की प्रताडऩों को भुगतने के मामले में राजस्थान देश में अव्वल नंबर पर है और इस निर्ममता की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हो रही है। आदिवासी इलाकों में कानून का राज ओझल रहा है तो दबंगों के तेवर जन प्रतिनिधियों को भी चुप्पी की चादर ओढऩे को विवश कर रहे हैं। आदिवासियों को पाखंड की निर्ममता से मुक्ति दिलाना इस शताब्दी का सर्वोच्च सामाजिक सुधार होना चाहिए था, लेकिन सियासी रिश्तों का कवच पहने रजवाड़ों का बाल भी बांका नहीं होता। राजनेता यह कह कर निर्मम घटनाओं से छुटकारा पा लेते हैं कि, आदिवासियों में काला जादू का अंधश्विस काफी गहरा है। ऐसा है भी तो राजस्थान हाईकोर्ट के जोधपुर खंडपीठ के न्यायाधीश गोपालकृष्ण व्यास के उन निर्देशों का क्या हुआ, जिसमें उन्होंनें राज्य सरकार को फटकार लगाई थी कि, महिलाओं को कोई डायन कैसे बता सकता है? लेकिन राज्य सरकार तो आज भी इस सवाल पर चुप्पी साधे बैठी है कि, ‘डायन प्रताडऩा के मामले रुक क्यों नहीं रहे? फिर राज्य सरकार के उस खटराग का क्या मतलब हुआ जिसमें दुहाई दी जा रही है कि,’नारी का सशक्तिकरण ही समाज का सशक्तिकरण है?ÓÓ राजस्थान के विशिष्ट सामंती ढांचे की बदोलत सामाजिक टकराव आदिवासियों ओर जनजातियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के रूप में दिखाई पड़ रहा है। जमीनी पड़ताल इस बात को पुख्ता करती है कि आदिवासियों की संपत्ति हड़पने के लिए उन्हें डायन करार देना, अप्राकृतिक मौतों पर मोताणें की कुरीति के जरिए धन वसूली करना और अपने परिजनों की मौत पर’रूदालीÓ सरीखी प्रथा की आड़ में आदिवासी औरतों को रोने के लिए विवश करना तो सीधे-सीधे सामाजिक ढांचे को जकड़बंदी में रखना है। इसका सीधा संबंध वर्चस्ववादी संस्कृति को बढ़ावा देना है।
सिरोही और जालोर के आदिवासी इलाकों में पराए लोगों की मौत पर रोने को अभिशप्त रुदालियों का क्रन्दन तो झुरझुरी पैदा करता है, जिनके आंसू कभी नहीं सूखते। वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं,’अपनों के लिए तो सभी आंसू बहाते हैं लेकिन ये वो महिलाएं हैं जो गैरों की मौत पर छाती-माता कूटती हई विलाप करती है। ‘रूदालीÓ के नाम से अभिशप्त पेशेवर रोने वालियां को गांव ढाणियों के दबंगों की मौत पर रोने के लिए जाना पड़ता है। दहाड़े मारकर रोने वालियों का विलाप बारह दिन तक चलता है और इसकी एवज में उन्हें खाने को मिलता है प्याज और बचे-खुचे रोटियों के टुकड़े! मीडिया से जुड़े लोगों ने सिराही जिले के रेवदार विधायक जगसीराम कोली से इस अमानवीय रिवाज के बारे में पूछा तो वे औपचारिक जवाब देकर खिसक लिए कि,’अच्छा! अगर ऐसा है तो हम रुकवाएंगे?ÓÓ दबंगों से जनप्रतिनिधि कितने डरे हुए हैं? इस बाबत जिले के गंवई इलाकों के सरपंचों से पूछताछ की तो उन्हांने कुछ भी कहने-सुनने से इन्कार कर दिया।
करीब दो सौ साल से चली आ रही, इस प्रथा के बारे में कहा जाता है कि, यह रजवाड़ों और ठिकानेदारों की देन है। रजवाड़ों में रोना-बिलखना ‘कायरताÓ माना जाता था, इसलिए जब भी उनके परिवार में किसी की मौत होती तो मातम करने के लिए बाहरी महिलाओं के बुलाया जाता था, जो या तो आदिवासी होती थी या दलित परिवारों से। वरिष्ठ पत्रकार रणजीत सिंह चारण सिरोही जिले के हाथल गांव की रुदाली सुखी का हवाला देते हैं जिसका कहना था अगर हम ठिकानेदारों के परिजनों की मौत पर रोने जाने से इंकार कर दे ंतो, हमें भारी खामियाजा उठाना पड़ता है यानी मारपीट से लेकर गांव बदर तक…! सुखी का कहना था,’जब जाना ही पड़ता है तो हील-हवाला करने से क्या फायदा?ÓÓ इस पाखंड पर समाजसेवी यतीन्द्र शास्त्री कहते हें, गजब है कि आज भी गांव-ढाणियों में रजवाड़ी जुल्म कायम है?ÓÓ आदिवासी महिलाएं मातम मनाती है तो, शोक मनाने के लिए दलित समुदाय के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को मुंडन करवाना पड़ता है। नागरीय अधिकारों के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एम.एम. लाठर का कहना है,’डायन प्रताडऩा निवारण की तरह इस प्रथा के खिलाफ कोई विशेष कानून नहीं है। इसलिए पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर पाती। इसके लिए तो समाज को ही पहल करनी पड़ेगी।ÓÓ
नौंवे दशक के उत्तरार्द्ध में ‘रुदालीÓ को केन्द्र में रखकर बालीवुड में एक फिल्म भी बनी थी, जिसकी नायिका डिम्पल कपाडिय़ा थी। सामाजिक बुराई पर ध्यान आकर्षित करने वाली इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था, लेकिन इस बुराई के उन्मूलन के लिए सामाजिक स्तर पर कोई पहल की हो? ऐसा कहीं भी संज्ञान में नहीं आया। फिल्म ‘रुदालीÓ में शनिचरी का पात्र निभाने वाली डिम्पल कपाडिय़ा का एक संवाद अत्यंत मार्मिक था,’ये आंसू हमारी जिन्दगी का हिस्सा है, ठीक वैसे ही जैसे हम फसल काटते है या खेत में हल चलाते हैं? हमें इन आंसुओं को संजोकर रखना होगा।Ó
आंसू बहाते हैं, पोंछते नहीं!
‘रूदालीÓ के नाम से अभिशप्त आदिवासी महिलाओं को गांवों के बीच रहने का हक नहीं होता। इनके घर गांव की सरहदों के बाहर बने होते हैं। ये पेशेवर औरतें होती है जो विलाप के दौरान मृतक के कार्यो का बखान करते हुए संवेदना का ऐसा माहौल रच देती है कि देखने सुनने वालों की आंखे बरसे ही बरसे। इनका क्रन्दन इतना आवेग भरा होता है कि लगता है मरने वाला इनका अपना ही कोई सगा-संबंधी था। यह एक प्रचलित परम्परा है कि गांवों के ठाकुरों और जमीदारों के परिवार में जब भी किसी की मृत्यु की खबर फैलती है हर कोई मृतक की हवेली परिसर में एकत्रित हो जाते हैं। परम्पराओं के मुताबिक मृतक के परिवार की महिलाएं बाहर नहीं निकलती, गांव के लोग ही ठाकुर की निगाह में चढऩे के लिए दाह संस्कार की व्यवस्था में जुट जाते हैं। किराए पर मातम करने वाली रुदालियां काले वस्त्र पहन लेती है और करुण विलाप के साथ छाती कूटती हुई जमीन पर लोट-पोट हो जाती है। रुदालियां ज्यादा से ज्यादा आंसू बहाने का प्रयास करती है लेकिन बहते हुए आंसूओं को पोंछने की कोशिश नहीं करती। रुदालियों द्वारा काले वस्त्र धारण करने के पीछे अवधारणा है कि काला रंग मृत्यु के देवता यमराज का पसंदीदा रंग है। इन महिलाओं को पारिवारिक जीवन जीने की इजाजत नहीं होती। क्योंकि खुशहाल पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाली महिलाएं भला कैसे किसी की मौत का मातम मना सकती है। उच्चकुल के ठाकुर और जमीदार परिवार की औरतों को अपने मर्तबे के मद्देनजर अपने परिजनों की मौत पर दूसरों के सामने आंसू बहाने की इजाजत नहीं होती। इस मातमपुर्सी के दौरान उन्हें हवेली के भीतर ही बना रहना होता है।
रुदालियों पर निधि दुगर कुंडालिया द्वारा लिखी गई पुस्तक में ठाकुर परिवार के एक मुखिया के हवाले से कहा गया है कि,’उच्चकुल की महिलाओं का आम लोगों के सामने आंसू बहाना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है। यदि उनके पति की मृत्यु भी हो जाए तो भी उन्हें अपने दुख को दबाए रखना पड़ता है। उनकी वेदना दर्शाने का काम रुदालियां करती है।