अपूर्वा पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर हैं। उम्र क़रीब 32 साल। 16 महीने पहले बेटे को जन्म दिया। यह उनकी पहली संतान है। कोरोना महामारी के चलते वह भी दुनिया की लाखों कामकाजी महिलाओं की तरह घर से कार्य (वर्क फ्रॉम होम) कर रही थीं। घर में एक सहायिका थी, जिसका काम बच्चे की देखरेख करना था। लेकिन कुछ महीने पहले कम्पनी ने दफ़्तर में आकर काम करने का आदेश जारी कर दिया। वह दिल्ली में अपने पति के साथ अकेले रहती हैं। अब उसके सामने यह दुविधा पैदा हो गयी कि वह नौकरी जारी रखें या बेटे के पालन-पोषण के लिए नौकरी से इस्तीफ़ा दे दें। उसके सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह अपने बेटे को 12-14 घंटे के लिए अकेले कैसे सहायिका के साथ छोड़ दे। दरअसल अपूर्वा अकेली ऐसी पेशेवर महिला नहीं हैं, जो इस समस्या का सामना कर रही हैं, बल्कि दुनिया में लाखों ऐसी महिलाएँ हैं।
रात्रि-पारी में काम करने वाली एक महिला ने बताया कि माँ बनने के बाद उसके सामने नौकरी छोडऩे के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था, क्योंकि बच्चे की देखरेख के लिए उसके पास परिवार का कोई भी सदस्य नहीं था। कोरोना महामारी ने हज़ारों महिलाओं को घर से कार्य करने दिया; लेकिन अब जब उन्हें दफ़्तर आने का आदेश मिलना शुरू हो गया है, तो उनके सामने कई चुनौतियाँ आकर खड़ी हो गयी हैं। कई जगह यह सुगबुगाहट भी ज़ोर पकडऩे लगी है कि जब घर से काम हो रहा है, तो फिर दफ़्तर आने के लिए दबाव क्यों? एपल कम्पनी के सीईओ टिम कुक ने हाल में एक आदेशात्मक सन्देश जारी किया कि 11 मई से एप्पल में घर से कार्य धीरे-धीरे ख़त्म होगा। आधार दिया कि पूरी दुनिया में कोरोना नियंत्रण के कारण दफ़्तर में आकर काम करने की व्यवस्था प्रभावी हो रही है। कई जगह मास्क लगाना भी ज़रूरी नहीं है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि सीईओ टिम कुक की इस चिट्ठी का विरोध भी शुरू हो गया है। कम्पनी में ही काम करने वाले कर्मियों में से 200 कर्मियों के एक समूह ने सीईओ टिम कुक को चिट्ठी भेजी है, जिसमें लिखा है कि इस आदेश से कम्पनी पुरुष प्रधान हो जाएगी। इससे युवाओं, गोरे लोगों, पुरुषों और सक्षम लोगों को कम्पनी में तरजीह मिलेगी; क्योंकि इसके मुक़ाबले अधिक आयु वाले, अश्वेत, महिलाओं और दिव्यांगों को दफ़्तर आने में परेशानी होना तय है। इस सूची में महिलाओं को भी शामिल किया गया है, क्योंकि प्रतिकार करने वाले एप्पल टुगेदर नाम से बने इस समूह में संवेदनशील कर्मियों ने महिलाओं की समस्याओं, चुनौतियों को गम्भीरता से समझते हुए ही उन्हें इस सूची में रखा होगा।
ग़ौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के ग्लोबल सर्वे 2021 ने दर्ज किया कि घर से कार्य या जॉब फ्लेक्सिबिलिटी महिलाओं के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। आधी ज़मीं, आधा आसमाँ हमारा; लेकिन हक़ीक़त में तो बंदिशें पीछा छोड़ती नज़र नहीं आतीं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार बनने के बाद वहाँ महिलाओं के हालात को लेकर राहत भरी ख़बरों का सबको इंतज़ार रहता है। हाल ही में एक ख़बर आयी है कि तुर्कमेनिस्तान में महिलाओं के पहनावे और कॉस्मेटिक्स के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। मध्य एशिया में सोवियत संघ का हिस्सा रहे तुर्कमेनिस्तान की सरकार ने सभी बयूटी सैलून बन्द कर ब्यूटी सर्विस पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। महिलाओं के किसी संस्थान में दाख़िल होने से पहले उनके पहनावे की जाँच की जाती हैं। महिलाओं को नौकरी ज्वाइन करने से पहले नो मेकअप बॉन्ड भरना होता है। वहाँ की महिलाएँ मजबूरन ऐसा बॉन्ड भर देती हैं, क्योंकि नौकरी करना उनकी पारिवारिक व आर्थिक ज़िम्मेदारी है। कहीं कम्पनियों की नीतियाँ तो कहीं सामाजिक-धार्मिक कट्टरता महिलाओं को कार्यबल का सक्रिय हिस्सा बनने की राह में रोड़ा डालते हैं। दुनिया भर में बेरोज़गारी एक विकराल समस्या बन गयी है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की इस साल जनवरी में जारी रिपोर्ट ‘वल्र्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक-ट्रेंड 2022’ के मुताबिक, इस साल यानी 2022 में दुनिया भर में क़रीब 20.7 करोड़ लोग बेरोज़गार होंगे। और यह संख्या सन् 2019 में 18.6 करोड़ थी। यानी इस दरमियान बेरोज़ग़ारों की संख्या में 11 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा होने की सम्भावना व्यक्त की गयी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 के दौरान काम के जिन घंटों में कमी आने का अनुमान है, वो 5.2 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों के बराबर है। विश्व के सभी क्षेत्रों में श्रम बाज़ार पर इस महामारी का प्रभाव पड़ा है।
अब अर्थ-व्यवस्थाएँ उबर रही हैं; लेकिन उच्च आय वाले देशों में अच्छी रिकवरी हो रही है, जबकि निम्न-मध्यम आय वाले देशों में बुरा हाल है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस संकट का महिलाओं पर जो विषम प्रभाव पड़ा है, आने वाले कई वर्षों तक उसके बने रहने की सम्भावना है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक गाय राइडर की राय है कि श्रम बाज़ार में व्यापक सुधार के बिना इस महामारी से उबरा नहीं जा सकता। इतना ही नहीं इन सुधारों के स्थायी होने के लिए इनका बेहतर काम के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि इसमें स्वास्थ्य, सुरक्षा, समानता, सामाजिक सुरक्षा और संवाद शामिल होने चाहिए। बेरोज़गारी की समस्या भारत में भी चिन्ता का विषय है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि काम नहीं मिलने से हताश होने वाले लोगों में महिलाओं की तादाद अधिक है। उन्हें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा है। हर साल नौकरी पाने में असफल रहने के बाद 45 करोड़ से अधिक लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने अब काम की तालाश ही छोड़ दी है। सन् 2017 से 2022 के बीच कुल कामगारों की संख्या 46 फ़ीसदी से घटकर 40 फ़ीसदी रह गयी है। भारत में अभी 90 करोड़ लोग रोज़गार के योग्य हैं; लेकिन इसमें से क़रीब 45 करोड़ से अधिक लोगों ने अब काम की तलाश ही बन्द कर दी है। यह बात दीगर है कि केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय ने इन दावों का खण्डन करते हुए कहा कि रोज़गार के योग्य आबादी में से आधी आबादी ने काम की तलाश की उम्मीद ही खो दी है, यह मानना तथ्यात्मक तौर पर ग़लत होगा; क्योंकि उनमें से अधिकतर उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं या देखभाल जैसी अवैतनिक गतिविधियों से जुड़े हुए हैं। ग़ौरतलब है कि देश में महिलाओं की आबादी तो 49 फ़ीसदी है; लेकिन श्रम बल में हिस्सेदारी केवल 18 फ़ीसदी है, जो कि वैश्विक औसत से लगभग आधी है। श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी में बीते दो दशकों में गिरावट जारी है। जबकि देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ी है। देश में श्रम बल में महिला भागीदारी दर 2011-2012 में 31.2 फ़ीसदी से गिरकर सन् 2018-2019 में 24.5 फ़ीसदी रह गयी, जो कि अब 18 फ़ीसदी पर आ गयी है।
भारत में श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी की दर ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। यह दक्षिण एशिया में श्रीलंका और बांग्लादेश से भी कम है। श्रम बाज़ार में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की कम भागीदारी से श्रम बाज़ार में असमानता आती है और यह देश की तरक़्क़ी में बाधा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद 27 फ़ीसदी अधिक होगा, यदि आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भी पुरुषों के समान संख्या में भागीदारी होगी। दरअसल श्रम बल में लैंगिक समानता लाना एक बड़ी चुनौती है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक-2021 के अनुसार, भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है, जो वर्ष 2006 में इसके 98वें स्थान की तुलना में एक बड़ी गिरावट को दर्शाता है। भारत में घरेलू उत्तरदायित्व महिलाओं के वैतनिक कामकाजी होने की राह में एक बड़ी रुकावट है।
इसके अलावा निजी कम्पनियों के नियम-क़ायदे भी उन्हें किसी हद तक निरोत्साहित ही करते हैं। दिल्ली में एक निजी संस्था में काम करने वाली एक महिला ने बताया कि अगर वह दफ़्तर में 10 मिनट लेट पहुँचे या 30 मिनट, उसे दफ़्तर में उतनी ही देर अधिक बैठकर काम करना पड़ता है। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था तक आसानी से पहुँच नहीं होना व ऐसे साधनों की कमी भी महिलाओं की गतिशीलता को बाधित करती है। लड़कियों व महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध भी उनके व उनके परिजनों के मन में असुरक्षा के भाव के साथ कई तरह की आशंकाओं को जन्म देते हैं। परिवार / समाज की लगातार सपोर्ट न मिलना, बच्चों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी व उनकी सुरक्षा करना आदि कारक महत्त्वपूर्ण है। आख़िर एक कामकाजी महिला पार्ट टाइम नौकरी करने के लिए क्यों हामी भर्ती है? यह सोचना सरकार, समाज की ज़िम्मेदारी है। महिलाओं की श्रम बाज़ार में संख्या बढ़ाने व उन्हें वहाँ रोके रखने के लिए मज़बूत सपोर्ट ढाँचा खड़ा करना होगा।