इस देश की विडंबना रही है कि जब-जब धार्मिक मुद्दे उठे हैं। उन पर राजनीति के सिवाय किसी भी सियासी दल ने पानी डालने की नहीं, बल्कि उसको धधकाने की कोशिश की है। ऐसा लगता है कि जब तक हिंसा भड़क नहीं जाती, राजनीतिक लोगों के कलेजे में ठंडक नहीं पड़ती। कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में पहले धर्म की राजनीति होती थी; लेकिन अब धर्म पर राजनीति होती है। यही वजह है कि अब कोई-न-कोई धार्मिक मुद्दा गर्म रहता है और जिन नेताओं को देश के विकास के लिए राजनीति करनी चाहिए, वे देश में फूट डालो और राज करो वाली राजनीति करते हैं। इन दिनों मस्जिदों में लाउडस्पीकरों को लेकर शुरू हुई राजनीति ने देश में अराजकता के माहौल को जन्म दिया हुआ है। इसमें कोई शक नहीं है कि पूजा-पाठ और अज़ान आदि के लिए लाउडस्पीकर की ज़रूरत नहीं है; लेकिन इसके लिए राजनीति करने के बजाय समान रूप से क़ानून लाकर इस पर रोक लगायी जा सकती है। क्योंकि राजनीति करने से विवादों के सिवाय कोई हल निकलने वाला नहीं। पिछले एक दशक में हिन्दुस्तान की एक बड़ी आबादी इसी तरह के धार्मिक विवादों उलझी है। आज जहाँ भी दंगे होते हैं, उन पर राजनीति हावी रहती है। किसी को चिन्ता नहीं है कि महँगाई, बेरोज़गारी की दर कहाँ पहुँच गयी है, लगातार अवसाद और आत्महत्याओं के मामले और अपराध बढ़ते जा रहे हैं।
हाल ही में राजस्थान के दो शहरों करोली और फिर जोधपुर में भड़की हिंसा और हिमाचल में इस तरह की कोशिश पर हो रही राजनीति इस बात का सुबूत है कि नेताओं को जनता की परेशानियों से कोई सरोकार नहीं है। देखने वाली बात यह है कि देश के किसी कोने में जब-जब हिंसा भड़कती है, जो आड़ धार्मिकता की ली जाती है। राजस्थान के करौली में हिंसा भी हिन्दू त्योहार पर हुई और दोबारा जोधपुर में ईद से एक दिन पहले। करौली में क़रीब एक महीने पहले हिन्दू नव संवत्सर के दिन साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती है, जिसके ठीक पहले पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की ओर से इसकी चेतावनी दी जाती है। पीएफआई यह चेतावनी प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और डीजीपी एमएल लाठर को बाक़ायदा चिट्ठी लिखकर देता है। पहली बार हिंसा के बाद सरकार रामनवमी और हनुमान जयंती पर पूरे राजस्थान में धारा-144 लगा देती है। लेकिन दूसरी बार ईद से ठीक पहले रात में जोधपुर में हिंसा भड़क जाती है। सवाल यह है कि जब राज्य में अशान्ति और दंगों की साज़िश का माहौल था, तो फिर मुसलमानों के इस सबसे बड़े त्योहार पर पुलिस का बंदोबस्त क्यों नहीं किया गया? क्यों दंगे की रात के बाद दिन में दोपहर तक न कोई पुलिस कार्रवाई हुई और न ही शहर में धारा-144 लगायी गयी? विपक्ष और स्थानीय लोगों को आरोप है कि अगर सरकार समय रहते कर्फ़्यू लगाती, तो हिंसा नहीं भड़कती। राजस्थान सरकार और राज्य की पुलिस की नाकामी पर बड़ा सवाल यह उठता है कि क्यों उसने दंगाइयों को चिह्नित नहीं किया?
यह आम जनता का दुर्भाग्य और सरकारों की नाकामी है कि देश में कई ऐसी संस्थाएँ और संगठन हैं, जो हिंसा और दंगों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इतने पर भी इनके प्रमुखों से किनारा करने के बजाय पार्टियाँ उन्हें संरक्षण देती हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या यह संस्थाएँ और संगठन राजनीतिक दलों द्वारा ही खड़ी जाते हैं? क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता, तो इन संस्थाओं और संगठनों पर कार्रवाही ज़रूर होती।
इस दंगे में एक निजी न्यूज चैनल के एक पत्रकार का नाम सामने आया। कुछ लोग कह रहे हैं कि पत्रकार के पीछे राजस्थान सरकार पड़ी है। राजस्थान की पुलिस ने पत्रकार के घर के बाहर अरेस्ट वारंट लगाकर उसकी गिरफ़्तारी के लिए डेरा डाला तो, उत्तर प्रदेश पुलिस भी वहाँ पहुँच गयी, ताकि राजस्थान पुलिस इस पत्रकार पर कोई कार्रवाई न कर सके। हालाँकि दो राज्यों के पुलिस टकराव के बाद पत्रकार की गिरफ़्तारी मुमकिन नहीं हो सकी। बाद में जोधपुर उच्च न्यायालय ने पत्रकार की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी। न्यायालय ने यह फ़ैसला पत्रकार के ख़िलाफ़ डूंगरपुर के बिछवाड़ा थाने में दर्ज की गयी एफआईआर के ख़िलाफ़ दी गयी याचिका पर दिया। बिछीवाड़ा थाने की पुलिस ने 23 अप्रैल 2022 को पत्रकार के ख़िलाफ़ आईपीसी और आईटी की धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी। बताते हैं कि इस पत्रकार ने अपने शो में कथित तौर पर दावा किया था कि नई दिल्ली के जहाँगीरपुरी दंगे मामले का बदला लेने के लिए राजस्थान के अलवर में एक सदियों पुराना मन्दिर तोड़ा गया है।
ख़ैर, अब मामला पत्रकार की गिरफ़्तारी से ज़्यादा राजस्थान और उत्तर प्रदेश के बीच टकराव का बन गया। हालाँकि यह कोई पहला मामला नहीं है, पहले भी ऐसे कई मामलों में दो राज्यों की पुलिस में टकराव हुआ है, जिसके पीछे भी राजनीतिक दलों का ही हाथ रहा है। अभी हाल ही में पंजाब पुलिस द्वारा दिल्ली से भाजपा नेता तजिंदर पाल बग्गा को गिरफ़्तार करके ले जा रही थी; लेकिन रास्ते में ही हरियाणा पुलिस और दिल्ली पुलिस ने उन्हें छुड़वा लिया। हालाँकि इस घटना पर कहा गया कि जब पंजाब पुलिस दिल्ली से तेजिंदर सिंह बग्गा को गिरफ़्तार करके ले गयी थी, तब दिल्ली पुलिस कहाँ थी?
बहरहाल यह मामला तो राज्यों के टकराव का है, जो दो राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होने पर होता ही है। लेकिन अगर हिंसा की बात करें, तो हर राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती रही है और हिंसा होने के वक़्त केंद्र से लेकर राज्य की सरकारें कान में तेल डाले बैठी रही हैं। फ़िलहाल अगर मैं कांग्रेस शासन के पिछले तीन साल के दौरान राजस्थान में अब तक साम्प्रदायिक हिंसा की बात करूँ, तो अब तक वहाँ छ: बार हिंसा भड़क चुकी है। पहली बार 8 अप्रैल, 2019 को टोंक में, दूसरी बार 24 सितंबर 2020 डूंगरपुर में, तीसरी बार 11 अप्रैल 2021 को बारां में, चौथी बार 19 जुलाई 2021 झालावाड़ में, 2 अप्रैल 2022 को करौली में और 2 मई 2022 को जोधपुर के जालोरी गेट चौराहे पर। ऐसी हिंसाओं के लिए सबसे पहले स्थानीय प्रशासन और पुलिस और उसके बाद राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है। लेकिन केंद्र सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसी हिंसक घटनाओं में हस्तक्षेप करे और उन्हें आइंदा न भड़कने देने की दिशा में ठोस क़दम उठाये। हिंसा फैलाने वाले किसी भी संगठन के हों, किसी भी धर्म के हों; लेकिन उनके ख़िलाफ़ कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। इससे हिंसा करने और कराने वालों का मनोबल टूटेगा और देश में शान्ति का माहौल बनेगा, जिसकी आज हिन्दुस्तान के हर कोने में ज़रूरत है।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)