‘ट्रिकल डाउन थ्योरी से देश के गरीबों की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी. हमारा राष्ट्रीय उद्देश्य युवाओं के लिए अवसर उत्पन्न करने का हो ताकि वे देश को कुदा कर आगे ले जा सकें.’ हमारे नए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के इन शब्दों का पुरजोर स्वागत किया जाना चाहिए.
‘ट्रिकल डाउन’ थ्योरी की सोच है कि आर्थिक विकास से अमीरों की आय बढ़ेगी तो गरीबों के घर में भी उस आय का एक अंश टपकेगा. अमीर की आय तब बढ़ेगी जब उसके द्वारा खरीदे गए शेयर के दाम बढ़ेंगे. शेयर के दाम तब बढ़ेंगे जब उत्पादन बढ़ेगा. उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक संख्या में श्रमिकों की जरूरत होगी. इस प्रकार अमीरों की आय का एक हिस्सा गरीबों तक पहुंचेगा. इस सोच के चलते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बड़ी कंपनियों को खुली छूट देने को तत्पर हैं.
अब समस्या यह है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए रोजगार सृजन आवश्यक नहीं है. उद्यमियों के लिए फायदे की स्थिति यह है कि ऑटोमेटिक मशीनों से उत्पादन बढ़ाया जाए. ऐसे में कंपनियों का लाभ और उत्पादन बढ़ता है, लेकिन रोजगार घटते हैं. आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अमीर लोग समृद्ध होते हैं. पूंजी की अधिकता के कारण ब्याज दर में गिरावट आती है. ब्याज दर में कमी आने से मशीनों में निवेश लाभप्रद हो जाता है. दूसरी तरफ आर्थिक विकास के कारण ही श्रमिकों का जीवन स्तर उठता है. उनके वेतन बढ़ते हैं. पूंजी के सस्ते होने एवं श्रम के महंगे होने से उद्यमी के लिए श्रमिक को रोजगार देना हानिप्रद हो जाता है.
अर्थशास्त्रियों को नए ढंग से सोचना पड़ेगा. ऑटोमेटिक मशीनों एवं इंटरनेट के कारण श्रम ही अप्रासंगिक होता जा रहा है. वैसे एक प्रकार से यह एक सुखद उपलब्धि है. जीवित रहने के लिए मनुष्य का श्रम करना अनिवार्य नहीं रह गया है. समय का सदुपयोग वह अपने आत्म विकास के लिए कर सकता है जैसे क्रिकेट खेलने, चित्रकारी करने, संगीत का रियाज करने में. लेकिन श्रम के साथ-साथ उसका जीवन भी व्यर्थ होता जा रहा है. उसके पास रोजगार नहीं है.
ऐसी अर्थव्यवस्था बनानी होगी कि श्रम की मांग बढ़े. पूंजी सघन के स्थान पर श्रम सघन आर्थिक विकास करना होगा. मशीनों पर टैक्स और श्रम पर सब्सिडी देनी होगी. इससे आर्थिक विकास धीमा पड़ेगा जिसे स्वीकार करना होगा. जाड़े में सिगड़ी रख कर सोने से आराम मिलता है लेकिन मृत्यु भी हो जाती है. उसी प्रकार पूंजी-सघन आर्थिक विकास से कुल उत्पादन बढ़ रहा है परंतु संपूर्ण मानवता मृतप्राय होती जा रही है. आर्थिक विकास पर लगाम लगाकर मानव विकास को लक्ष्य बनाना होगा. समस्या का हल सरकारी नौकरियों में वृद्धि से हासिल नहीं होगा. जब अधिकाधिक श्रमिक सरकारी कर्मचारी होंगे तब इन्हें वेतन देने के लिए टैक्स किससे वसूल किया जाएगा? कम्युनिस्ट देशों का अनुभव बताता है कि सरकार का असीमित विस्तार संभव नहीं है. सोवियत रूस के पतन का एक प्रमुख कारण सरकारी फौज में अतिशय वृद्धि था.
कांग्रेस एवं भाजपा की नीति है कि अमीर को और अमीर बनाकर बाद में उस पर टैक्स लगाया जाए. इसके स्थान पर ऐसी आर्थिक नीतियां बनानी चाहिए कि पूंजी के लाभ कम हो जाएं और श्रम के अवसर बढ़ जाएं. मसलन किन्हीं गांधीवादी ने सुझाव दिया था कि घरेलू बाजार में बिक्री के लिए बनने वाले कपडे़ को पूर्णतया हथकरघों के लिए आरक्षित कर दिया जाए. इससे टेक्सटाइल मिलों के लाभ घटेंगे और जुलाहों के बढ़ेंगे. बाजार में कपड़ों का दाम भी कुछ बढ़ेगा. योजना आयोग को चाहिए कि वह कोई ऐसा अध्ययन करे जिससे यह पता चले कि श्रम की वांछित मात्रा में मांग बढ़ाने के लिए किन उद्योगों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए.
दूसरा विषय सरकारी सेवाओं की डिलीवरी का है. खाद्य पदार्थ, फर्टीलाइजर एवं पेट्रोल सब्सिडी तथा सरकारी स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाएं सभी इस समस्या से पीडि़त हैं. इन योजनाओं का लाभ गरीब तक कम ही पहुंचता है. राजीव गांधी ने 15 प्रतिशत पहुंच का आकलन किया था. इस मुद्दे पर कांग्रेस एवं भाजपा प्रशासनिक सुधारों से डिलीवरी में सुधार करना चाहते हैं. जैसे छठे वेतन आयोग ने इंसेंटिव का सुझाव दिया है. साथ-साथ इन सुविधाओं को निर्धनतम लाभार्थियों पर लिए केंद्रित करने का प्रयास किया गया है. जैसे खाद्य सब्सिडी में बीपीएल का हिस्सा बढ़ा दिया गया है. लेकिन सरकारी कर्मचारियों का चरित्र चुंबक जैसा होता है. उनसे कुछ लेने के लिये जनता को विशेष ताकत लगानी पड़ती है जैसे चुंबक में चिपके लोहे को छुड़ाने में.
हमें नई सोच बनानी चाहिए. रिजर्व बैंक को चाहिए कि वह सारी सब्सिडी को इकट्ठा करके इस राशि के चेक प्रत्येक वोटर को सीधे भेज दे. साथ-साथ खाद्य, फर्टीलाइजर एवं पेट्रोल पर सब्सिडी बिल्कुल समाप्त कर देनी चाहिए. केंद्रीय सरकार के निम्नलिखित मदों पर खर्चों का एकत्रीकरण किया जा सकता हैः खाद्य सब्सिडी, शिक्षा, स्वास्थ्य, हाउसिंग, कृषि, ग्राम विकास, फर्टीलाइजर एवं बिजली व पेट्रोल सब्सिडी. लगभग 3,50,000 करोड़ रु. उपलब्ध हैं. राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर दिए जा रहे खर्च को जोड़ दिया जाए तो जन कल्याण के नाम पर खर्च की जा रही कुल रकम लगभग 700 करोड़ रु. हो जाएगी. इस विशाल रकम को 55 करोड़ वोटरों में वितरित किया जाए तो 13,000 रु. प्रति वोटर अथवा 26,000 रु. प्रति परिवार प्रतिवर्ष दिए जा सकते हैं. यह रकम सीधे वोटरों को देकर सब्सिडियों के तमाम मायाजाल से देश को मुक्त कर देना चाहिए. लेकिन मनमोहन सिंह को यह पसंद नहीं क्योंकि वे जनता को भ्रमित करके गरीब के नाम पर अपने जाति भाई सरकारी कर्मियों को अधिकाधिक सुविधाएं देने को तैयार हैं.
प्रणब दा को साधुवाद कि उन्होंने मनमोहन सिंह की ट्रिकल डाउन की गलत सोच पर सवाल उठाया. देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति पद का उपयोग करते हुए वे सरकार पर इस दिशा में दबाव बना पाते हैं कि नहीं?