खेती-किसानी तो भूरजी की •िान्दगी में उम्र के तेरहवें बरस में ही रच बस गयी थी। पिता की ऊँगली थाम कर खेत-खलिहान जाने लगे तो पुश्तैनी धन्धे की बारीिकयों से भी बावस्ता हो गये। लेकिन इस पूरे दौर में उन्होंने मौसम को बदमिजाज़ होते नहीं देखा। गर्मी, सर्दी और फुहार छोड़ते बरसाती थपेड़े अपने वक्त के साथ आते जाते रहे। मानसून की विदाई भी तय वक्त पर होती रहीं। मौसम की इस नियमित आवाजाही को भूरजी ने चढ़ती उम्र के साथ बखूबी देखा। कुदरत के इस मिजाज़ के टूटने-बिखरने की उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता यह तस्वीर धुँधलाने लगी। उम्र के 50वें साल की दहलीज लाँघते भूरजी के बालों में सफेदी झलकने लगी है। चेहरे पर उम्र की दस्तक देती झुर्रियों के बीच मिचमिचाई आँखों से झाँकते भूरजी की बातों में गहरा अवसाद झलकता है कि राजस्थान में तो इस सदी की शुरुआत में ही बरसात ने अपने तेवर बदलने शुरू कर दिये थे। भूरजी कहते हैं, पिछले एक दशक में तो सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया। अजमेर •िाले के रेगिस्तानी हलके में पडऩे वाले नरेरा गाँव में ईंटों से बनी अपनी टापरी में बिछी चारपाई पर बैठे भूरजी की आँखें यह कहते हुए डबडबा जाती है कि अंधाधुन्ध बारिश के बाद सुलगते आसमान से कहर बरसाता तापघात पानी की बूँद भी नहीं छोड़ेगा? ऐसे में क्या उगाएँगे? और क्या खाएँगे? नतीजा होगा- गावों से पलायन! किसान की इससे बड़ी बदनसीबी और क्या होगी कि अपनी धरती खेती और ढोर-डंगर छोडक़र रोटी-रोजगार के लिए भटकना पड़ जाए?
इतिहास के फलक पर तियालीस अकाल देख चुके राजस्थान का दो-तिहाई हिस्सा मरुस्थलीय है। जैसलमेर जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़ और सीकर समेत तेरह •िालों वाले इस हिस्से में औसत वर्षा 354 मिली मीटर होती रही है, जो कि सबसे कम है। नतीजतन यहाँ सर्वाधिक तापमान रहता है। गुरुवार 12 दिसंबर को यह रेस्तिानी इलाके तूफानी बारिश और ओलों की सफेद चादर में लिपट गये। रेगिस्तान में कश्मीर सरीखा नज़ारा था। मौसम विभाग का कहना था कि जम्मू-कश्मीर पर बने पश्चिमी विक्षोभ से राजस्थान तथा इससे सटे भागों पर बने कम दबाव के कारण मौसम ने करवट ली। गुरुवार 12 दिसंबर को शेखावाटी में तो मौसम पूरी तरह बदल गया। जबकि मौसम विभाग ने इस बार तो 9 अक्टूबर को थार में मानसून विदाई की घोषणा कर दी थी। इस बारिश ने थार में 1961 का रिकॉर्ड धराशायी कर दिया।
इससे पहले 1961 में 01 अक्टूबर को मानसून की विदाई हुई थी। इस बार मानसून राजस्थान में न सिर्फ एक सप्ताह देरी से आया था। जबकि पश्चिमी राजस्थान में तो इसकी आमद 20 दिन की देरी से हुई थी। वरिष्ठ पत्रकार गजेन्द्र सिंह दहिया का कहना है कि पश्चिमी विक्षोभों और उष्ण चक्रवाती तूफानों ने भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु में बड़े परिवर्तन के संकेत दिये हैं। मौसमी जानकारी से जुड़े सरकारी प्रतिष्ठान ‘काजरी’ के निदेशक डॉ. ओ.पी. यादव का कहना है कि जलवायु के विभिन्न कारकों में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है। विश्व को एक साथ बैठकर संकल्प के साथ इससे निपटना होगा। मौसम विभाग के अनुसार, पिछले पाँच साल में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवाती तूफानो में 20 फीसदी इज़ाफा हुआ है। नवंबर के पहले सप्ताह में ही तीन चक्रवात ‘क्यार’ ‘महा’ और ‘बुलबुल’ आ गये। थार में इस बार मानसून देरी से 2 जुलाई को पहुँचा और 9 अक्टूबर को सिर्फ कथित रूप से विदा हुआ। इस तरह मानसून 100 दिन रहा, जो कि मौसम विभाग के इतिहास में रिकॉर्ड है।
मौसम विभाग के सूत्रों का कहना है कि इस साल भूमध्य सागर और कैस्पियन सागर से आने वाली हवाएँ देरी से आयीं। नतीजतन सर्दी 20 मार्च तक खिंच गयी। पश्चिमी से चलने वाली हवाएँ मई, जून तक चलती रहीं। नतीजतन अंधड़ उठे, तो मानसून आने में देरी हो गयी। मौसम विज्ञानियों का कहना है कि उत्तरी हिन्द महासागर में पिछले 10 साल में चक्रवाती तूफानों की तीव्रता 11 प्रतिशत बढ़ गयी। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी दोनों में चक्रवाती तूफानों का औसत अनुपात 1.4 है। पिछले 10 साल में अरब सागर में 33 और बंगाल की खाड़ी में 262 चक्रवाती तूफान आये। लेकिन 2018 और 2019 में सात-सात चक्रवाती तूफानों ने वैज्ञानिकों की नींद उड़ा दी। जबकि सात में से छ: तो बहुत ही खतरनाक िकस्म के थें। चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि 1980 के बाद से देश में हैजे के बढ़ते प्रकोप की वजह भी जलवायु परिवर्तन रही। बेशक मलेरिया में कमी आयी, लेकिन डेंगू ने भारी आतंक मचाया। सेन्ट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट (काजरी) जोधपुर की एक रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को प्रदेश के रेगिस्तानी इलाकों में मानवीय जीवन केे लिए ज़बरदस्त खतरा बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि, तापमान बढऩे से पानी का वाष्पीकरण बढ़ेगा। रिपोर्ट में इस बात का साफ अंदेशा जताया गया है कि 35 मिलीमीटर से 96 मिलीमीटर तक वाष्पीकरण तो होना तय है। नतीजतन किसान भारी संख्या में खेती-बाड़ी और अपना पशुधन छोडक़र जाने को बाध्य हो जाएँगे।
काजरी के सूत्रों का कहना है कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी का मतलब है गंगानगर को 276.19 एमसीएम पानी की दरकार होगी और हनुमानगढ़ को 245.33 एमसीएम पानी की ज़रूरत बढ़ जाएगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि थार क्षेत्र में सिंचाई के लिए कुल उपलब्ध भूजल 3516.9 एमसीएम है। लेकिन एक प्रतिशत बढ़ते तापमान से भूजल की ज़रूरत में 44 प्रतिशत का इज़ाफा हो जाएगा। नतीजतन अतिरिक्त जल की आवश्यकता •यादा तादाद में भूजल क्षेत्रों को डार्क जोन में धकेल देगी। अतिरिक्त पानी की ज़रूरत का मतलब होगा अतिरिक्त ऊर्जा और अतिरिक्त संसाधन। नतीजतन लोगों का जीवनयापन मुश्किल हो जाएगा। परिणामस्वरूप काश्तकारों के लिए अपना घर-बार छोडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। समाज विज्ञानियों का कहना है कि ‘काश्तकारों के पलायन की पहली खेप तो शुरू हो भी चुकी है। राजस्थानी संस्कृति और विरासत के संरक्षण में जुटी ज़ाहिदा शबनम का कहना है कि यह स्थिति तो काश्तकारों को जबरन गरीबी की खंदक में धकेल देगी। किसान नेता रामसिंह कस्वां का कहना है कि थार में जलवायु तो पूरी तरह बदल चुकी है। हालाँकि रेगिस्तानी इलाकों को सूखे से निजात दिलाने में मुख्य भूमिका तो इंदिरा गाँधी नहर की रही। तब थार के टीबों में हरियाली का अछूता सौंदर्य बिखर गया था। लेकिन जलवायु परिवर्तन फिर इसे डार्क जोन में धकेल रहा है। मौसम की बदमिजाज़ी से उबारने की कोशिशों में तेज़ी लाने के लिए पिछले दिनों जयपुर के छात्र भी सक्रिय हुए थे। तब एलबर्ट हाल पर जुटे छात्रों ने तापमान में बढ़ोतरी के चलते काश्तकारों के पलायन और फसल चक्र में बदलाव को रोकने के मुद्दे उठाये थे। छात्रों की अगुआई कर रही अंशिका जैन का कहना था- ‘हर पल में हमें बरसात के मिजाज़ में बदलाव देखने को मिल रहा है। बारिश है कि थम नहीं रही है। इस समस्या से निपटने के लिए तो हम सबको मिलकर काम करना होगा।
कुदरती खौफ को लेकर मौसम विज्ञानी बहुत कुछ पहले ही कह चुके थे कि दिसंबर में उत्तरी पश्चिमी मध्य भारत और उत्तर-पूर्व राज्यों में औसत तापमान एक से तीन डिग्री •यादा रहेगा। इस तरह 2019-20 की सर्दियों के मौसम में लगातार पाँचवाँ साल होगा। ‘स्काईमेट’ के महेश पालावत के मुताबिक, सर्दियों में हिमालय के दक्षिणी हिस्से में पश्चिमी विक्षोभ बढ़ जाते हैं। अक्टूबर, 2019 से लेकर फरवरी 2020 तक चार से पाँच पश्चिमी विक्षोभ, तो आएँगे ही आएँगे। हालांकि इस मामले में जापान की राष्ट्रीय मौसम एजेंसी ‘एप्लीकेशन लेबोरेट्री ऑफ जेम्सटेक’ की भविष्यवाणी को भी दरगुज़र नहीं किया जा सकता कि इस बार मानसून लम्बा चलेगा। इसका असर सर्दी पर भी दिखेगा। मानसून की देर से हुई विदाई से अगर कोई अच्छी बात हुई, तो •यादा दिनों तक ठहरे बादलों ने तापमान में गिरावट पैदा की।’ नतीजतन प्रदेश में 100 से 150 लाख यूनिट बिजली का उपभोग कम हुआ। इस बात की तस्दीक जोधपुर डिस्कॉम के निदेशक अविनाश सिंघवी भी करते हैं कि तापमान कम होने से थोड़ा प्रभाव तो पड़ा ही। हर साल 5 से 7 प्रतिशत बिजली उपभोग बढ़ता है। लेकिन इस बार नहीं बढ़ा। समाज शास्त्रियों का कहना है कि विद्युत संचय अच्छी बात हो सकती है। लेकिन जनहानि की कीमत पर तो इस बात से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता।
पर्यावरण की •यादा ज़ाहिर त्रासदी तो बुरी तरह झकझोर देने वाली है। जल संकट दहलीज पर आ पहुँचा है और सरकार है कि अब भी तमाशाई की तरह खड़ी है। पर्यावरणविदों की इससे बड़ी चेतावनी क्या होगी कि, प्रदेश के जयपुर, जोधपुर, अजमेर और बीकानेर समेत 21 शहरों में 2020 तक भूजल पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। सूबे के 33 •िालों के कुल 275 भूजल ब्लॉक में से 184 अतिरोहित श्रेणी के हैं। चिंता की बात तो यह है कि पानी का दोहन जिस अंधाधुन्ध तरीके से हो रहा है। रिचार्ज उस स्तर पर नहीं हो रहा। जोधपुर में तो पानी 165 मीटर से भी •यादा नीचे चला गया है। केन्द्र व राज्य की सरकारें और देश की दशा व दिशा निर्धारित करने वाले राजनीतिक दल दशकों से योजनाएँ बना रहे हैं। भविष्य में हर घर में नल से पानी देने की घोषणाएँ हो रही है। लेकिन मसला इतना आसान नहीं रह गया है।
मौसम की बदमिजाज़ी का कहर फसलों पर बुरी तरह टूटा है। लागत बढ़ेगी और उत्पादन घटेगा तो किसान क्या करेंगे? किसान नेता राम सिंह कस्वां बताते हैं कि फसल चक्र में तो पूरी तरह बदलाव आ चुका है। किसान खरीफ की दूसरी फसलों की तरफ मुड़ रहे हैं। रामसिंह कहते हैं, संकर मूँग की फसल 60 दिन में पक जाएगी, तो किसान क्यों किसी और फसल का जोखिम लेगा? रामसिंह कहते हैं कि फिर सबसे बड़ी बात पैदावार का •यादा होना। इस सवाल पर कि फिर परम्परागत फसलों का क्या होगा? वे कहते है कि वो बात तो अब आप भूल जाइए। कृषि विभाग के एक बड़े अधिकारी जयंतीलाल कसेरा कहते हैं कि कोई तीन दशक पहले उड़द, मक्का और मूँगफली जैसी खरीफ की फसलें बोने वाले काश्तकारों ने कम लागत और अधिक पैदावार की उम्मीद में सोयाबीन की बुआई शुरू की थी। सोयाबीन की तरफ उनके रुझान को देखते हुए इसे पीला सोना कहा जाने लगा था। नतीजतन सोयाबीन का रकबा बढ़ा, तो माँग में भी तेज़ी आयी।
लेकिन मौसम ने इतना कहर ढाया कि इसी सोयाबीन ने कई किसानों को उजाड़ दिया। इस साल में अतिवृष्टि ने 60 फीसदी फसल को तबाह कर दिया। देश में मध्य प्रदेश को सोयाबीन का सबसे बड़ा उत्पादक सूबा माना जाता है। अकेले मध्य प्रदेश में अतिवृष्टि से 45 सौ करोड़ की फसल डूब गयी। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि देश से सोयाबीन का सालाना 25 लाख टन निर्यात होता है। अब यह घटकर चौथाई रह जाए, तो ता•ज़ुब नहीं होगा? अलबत्ता सरकार वक्ती तौर पर जो कर सकती है, वो कर रही है। फसल नुकसान से काश्तकारों को दमदार या फिर किसानों का पलायन और पशुओं का निष्क्रमण रोकना। लेकिन ये कोशिशें भी तो आपदा को देखते हुए पर्याप्त नहीं कही जा सकती। लेकिन सबसे बड़ा सुलगता सवाल तो जलवायु परिवर्तन का असर कम करना है। यह एक बड़ी वैश्विक मुहिम का हिस्सा है। लेकिन िफलहाल तो लोग खामियाज़ा ही भुगत रहे हैं।
देश के जिन राज्यों में जल संकट मुहाने पर है, राजस्थान भी उनमें से एक है। राजस्थान में जलसंकट से निजात दिलाने की नदी जोडऩे की चार परियोजनाएँ पिछले कई साल से केन्द्र सरकार में अटकी पड़ी है। राजस्थान की ईआरसीपी परियोजना को लेकर मध्य प्रदेश और राजस्थान सरकार के बीच तो पिछले एक साल में एक ही बैठक हुई। आिखर ऐसे कैसे बात बनेगी? जबकि ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट (ईआरसीपी) की डीपीआर मंज़ूर हो चुकी है; लेकिन यह केन्द्रीय जल आयोग के पास पड़ी है। जबकि करीब 40 हज़ार करोड़ की लागत वाली इस परियोजना से जयपुर समेत थार के 13 •िालों को मुश्किलों से निज़ात मिल सकती है। नीति आयोग इस मामले के राज्यों की खिंचाई कर रहा है कि नदी जोडऩे का मुद्दा सुलझाने में राज्यों का रवैया सहयोगी नहीं है। लेकिन राज्यों पर इसका कोई असर नहीं हो रहा?
सूख जाएगा भूगर्भ जल?
राजस्थान में भूगर्भ जल दोहन के कारकों का अच्छा खासा अध्ययन कर चुके किसान नेता राम सिंह कस्वां दो टूक कहने से नहीं चूकते कि जल संचय के प्रति लोग अपेक्षित रूप से गम्भीर नहीं है। जल दोहन की रफ्तार अगर यही रही तो, जल्दी ही भगर्भ सूख जाएगा। इसका सीधा असर शुद्ध पेयजल, फसल सिंचाई और हरियाली पर पड़ेगा। ता•ज़ुब की बात है कि अजमेर सम्भाग में कई इलाके ‘डार्क जोन’ घोषित है। लेकिन बावजूद इसके धड़ल्ले से भूजल दोहन जारी है। रामसिंह कहते हैं कि राजस्थान में पीने के पानी का 87 प्रतिशत हिस्सा भूजल से लिया जाता है। सिंचित क्षेत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा भी भूजल से ही मिलता है। बावजूद इसके भूजल दोहन की रफ्तार नहीं घट रही है। कस्वां कहते हैं, ‘राजस्थान में भूजल की तस्वीर सिहराने वाली है। राज्य के केवल 30 जोन ही सुरक्षित है। अन्यथा बाकी के 203 ब्लॉक तो पूरी तरह डार्क जोन में है। इनमें भी छ: तो बेहद खतरनाक स्थिति में है। सुरक्षित क्षेत्र अगर कोई है तो, उत्तर में गंगानगर और हनुमानगढ़ है, जहाँ इंदिरा गाँधी नहर से सिंचाई होती है। जबकि दक्षिण में बांसवाड़ा और डूंगरपुर है , जहाँ तीन बाँधों से सिंचाई होती है। राज्य के उत्तरी पश्चिमी इलाके में जहाँ मरुस्थल है, वहाँ भूजल रिचार्ज की काफी सम्भावनाएँ है। लेकिन कुदरती रिचार्ज की स्थितियाँ नहीं के बराबर है। इसकी वजह औसत वर्षा की कमी होना है। रामसिंह दो प्रतिरोधी स्थितियाँ भी बयान करते हैं कि जहाँ रिचार्ज के लिए पानी है, वहाँ भूमि की स्थिति रिचार्ज के अनुकूल नहीं है और जहाँ रिचार्ज की सम्भावनाएँ है, वहाँ बारिश नहीं होती।
कस्वां कहते हैं कि राजस्थान में पिछले 40 साल में भूजल स्तर में 20 से 80 मीटर की गिरावट आ चुकी है। राजस्थान में भूजल अगर सबसे प्रदूषित है, तो इसकी बड़ी वजह भी यही है। कुछ राज्य जल अनुबन्धों की भी राम सिंह विवेचना करते हुए सुझाव देते हैं कि घग्गर के जल को पाकिस्तान जाने से रोका जा सकता है। यमुना जल को राजस्थान में लाने की योजना कहाँ गुम है? जबकि इस पानी को शेखावाटी सम्भाग के चूरू और झुँझनू •िालों में लाया जाना है। इसमें देरी क्यों? माही बाँध का 40 टीए पानी गुजरात के कड़ाणा बाँध में जाता है। इससे गुजरात सरकार खेड़ा •िाले में सिंचाई करती थी। अब खेड़ा में नर्मदा से सिंचाई होने लगी। तो इस अनुबंध को खत्म किया जाना चाहिए। यह पानी पाली, जोधपुर, नागोर सरसब्ज़ कर सकता है। कस्वां कहते हैं, पश्चिमी राजस्थान में पानी के सम्पूर्ण बंदोबस्त के लिए भूगर्भ जल को एकत्रित करना होगा। इसके लिए राजस्थान में चार चुनिंदा क्षेत्र भी है, जहाँ भूमि के अंदर बड़े एक्वाफायर है। लेकिन सवाल इस दिशा में ठोस कदम उठाने का है।