(इस लेख में ‘मैं’ आज के भारत में रहने वाली एक सचेत, जागरूक और संवेदनशील स्त्री है. प्रेम और देह को लेकर इस स्त्री की संवेदनाएं जितनी दिल्ली-मुंबई की किसी लड़की के विचारों से जुड़ती हैं उतनी ही बैतूल-हरदा के कस्बों में डर-छिपकर प्रेम करने वाली कस्बाई लड़की से भी)
एक इंसान और शायद एक स्त्री के तौर पर भी मुझे पहला प्यार अपने आप से ही हुआ था. बचपन में मुझे अपने लंबे बाल और गहरी भूरी आंखें बहुत पसंद थीं. अपने आप से ही बातें करने की पुरानी आदत की वजह से मैं हमेशा ही अपने अंदर हो रहे शारीरिक और मानसिक बदलावों को लेकर बेहद सजग रही. एक स्त्री के तौर पर मैंने बहुत गहराई से अपने बड़े होने को महसूस किया है और घंटों अपने शरीर से बातें भी की हैं. किशोरावस्था आते-आते मुझे विश्वास हो गया था कि सौन्दर्य सिर्फ स्त्रियों के पास है और मुझे हमेशा अपनी नाजुक, रहस्यमयी और खूबसूरत शारीरिक बनावट पर नाज होता रहा. और सच, इस बीच कभी भी मेरे मन में ‘पुरुष’ या उसकी तरह बनने की इच्छा नहीं जागी. शायद इसलिए कि मैं हमेशा स्त्री होने के अद्वितीय अहसास को बहुत गहराई से जीती रही.
मैं तेजी से बदलते भारत में बड़ी हो रही थी. मेरे चारों तरफ सब कुछ तेजी से बहा जा रहा था. इस दौरान अपनी एक पहचान, अपने कौशल द्वारा कमाए गए अपने एक स्थान और आत्म-सम्मान की जद्दोजहद ने प्यार को भी कई परतों में उलझा कर मेरे सामने पेश किया.
मामला बहुत पहले ही उलझ गया था. बचपन में ठीक तब जब मेरे एक ममेरे भाई ने एक लड़ाई के दौरान अकड़ते हुए मुझसे कहा था कि वह जब चाहे मुझे पीट सकता है क्योंकि वह लड़का है. 12 साल की छोटी-सी उम्र में इस बात ने मेरे दिल पर गहरा असर किया. मैं दौड़ कर अपनी मां के पास गई थी और उनसे कहा था कि वे मुझे सीमेंट की एक बोरी लाकर दें. उनके चौंकने पर मैंने बताया कि मैं उस पर मुक्के मार-मार कर ताकतवर बनना चाहती हूं. घर में सब जोर से हंस दिए थे. शायद उसी दिन मेरे अंदर यह बात बैठ गई थी कि मैं किसी से कमतर नहीं बनूंगी. मैं जिससे भी प्रेम करूंगी, भले ही वह मेरा दोस्त, भाई या पिता ही क्यों न हों, कोई मुझे लड़की होने की वजह से कमजोर या कमतर नहीं आंकेगा. यहां प्रेम से पहले बराबरी का दर्जा आ गया था. एक ऐसी समानता जिसे मैंने पूरी ईमानदारी और कड़ी मेहनत से हासिल किया हो, पूरे सम्मान के साथ.
अपने यूनिवर्सिटी के सालों में मैंने धीरे-धीरे दुनिया की कुछ और दबी-छिपी परतों को डिकोड करना सीखा. मैंने महसूस किया कि अभी भी कट्टर उत्तर भारतीय मानसिकता ज्यादातर पुरुषों पर हावी है. मैंने पाया कि ज़्यादातर मामलों में वर्दी पहनने वाले पहरेदारों, बड़े अधिकारियों, नेताओं से लेकर गली-मोहल्लों में गुटका खाकर सफेद दीवारों पर थूकने और सीटियां बजाने वाले शोहदों तक की सोच स्त्रियों को लेकर बदली नहीं है. उनके लिए स्त्रियां सिर्फ मां-बहन की गालियां देकर गुस्सा निकालने या फिर शराब के प्यालों के बीच उछाले गए किसी भद्दे मज़ाक से उपजी किसी सेक्सुअल फंतासी तक सिमट कर रह गई हैं. पुरुषों द्वारा अपने परिवारों में रहने वाली मांओं, बहनों और पत्नियों को दिया जाने वाला सम्मान मुझे कभी संतुष्ट नहीं कर पाया. मैंने हमेशा अपने आसपास के पुरुषों की नजरों में छिपे उस भद्दे मजाक को पकड़ लिया था जो उन्होंने अपनी किसी महिला मित्र या किसी अन्य की महिला मित्र के वक्षों के ‘प्रोमिसिंग’ होने को लेकर किए थे. बस, उस लम्हे के बाद से मैं ऐसे लोगों से सहजता का कोई रिश्ता नहीं बना पाई.
ऐसे क्षणों में मुझे अपने उन सहपाठियों की याद आ जाती जो शाम को मिलने पर सार्त्र, कामू और फूको जैसे दार्शनिकों की सूक्तियां सुनाया करते थे और अपनी करीबी महिला मित्रों का एक फोन वेट पर आते ही उन पर ऐसे चिल्लाते जैसे वे उनकी बंधुआ मजदूर हों. उन पत्रकार साथियों की भी जो अपने लेखों में और स्टेज से महिला अधिकारों की गलाफाड़ बातें करते हैं और अपनी पत्नियों और अपनी महिला सहकर्मियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं. इस तरह के उलझे हुए दोगले वर्ग से मैं कभी प्रेम करने की नहीं सोच पाई.
पुरुषों के पाखंड पर भी मुझे उतनी आपत्ति नहीं रही, जितनी कि उसे कभी स्वीकार न कर पाने की उनकी कायरता से
पुरुषों के पाखंड पर भी मुझे उतनी आपत्ति नहीं रही, जितनी कि उसे कभी स्वीकार न कर पाने की उनकी कायरता से. यहां यह कहना भी ज़रूरी है कि इस बारे में मेरी जैसी तमाम अन्य स्त्रियों के उलझे होने की भी पूरी संभावना है. पर मैं उस दोगलेपन को स्वीकार करके उस पर बात करना चाहती हूं. क्योंकि इतनी उलझनों के बाद भी आखिर मैं प्रेम करना चाहती हूं.
एक स्वतंत्र स्त्री होने और इसे अपने साथी द्वारा पूरी तरह पचा न पाने के बावजूद मैंने प्रेम करने की कोशिश की. अब सबसे विस्फोटक उलझन सामने आई. मेरी तरफ से पहले हुए प्रेम के निवेदन को बाद में ‘उन्मुक्तता’ का नाम दे दिया गया. प्रेम और विश्वास में डूबे मेरे अस्तित्व ने जब सहजता के उजले शिखर पर पहुंचकर प्रेम से जुड़ी अपनी कल्पनाएं, इच्छाएं और जानकारियां साझा कीं तो परंपराओं और आधुनिकता के बीच झूल रहे उत्तर भारतीय पुरुष ने तुरंत तरह-तरह के सवाल उठा दिए. तब मैंने उससे कहा कि प्रेम का हर स्वरूप जितना उसके लिए हैं, उतना ही मेरे लिए भी है. मैं अपने अस्तित्व, अपने शरीर और उनको लेकर मेरे व्यवहार में पूरी तरह सहज हूं और अपनी असहजता दूर करना उसकी जिम्मेदारी है. उसे यह याद रखना होगा कि ‘गुनाहों का देवता’ पढ़कर अंकुरित होने वाली लिजलिजी प्रेम कहानियों का दौर अब समाप्त हो चुका है. आज अगर प्रेम में मेरी स्वाभाविक उत्सुकता और भागीदारी से तुम्हारे मन में संदेह उपजता है तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी.
वक्त बीतने के साथ मैंने इंसानों की परतों को भी डिकोड करना सीख लिया और आत्मविश्वास से भरकर फिर से प्रेम करने की कोशिश की. इस बार मेरे साथी ने खुद को मेरे सामने एक मसीहा के तौर पर स्थापित करना चाहा. वह उस ‘गुड बॉयफ्रेंड’ की भूमिका में आना चाहता था जो सालों से भाइयों और पिताओं की संरक्षण रूपी सलाखों की कैद के पीछे सड़ रही लड़की को पहली बार अपनी मोटर-बाइक पर बैठाकर दुनिया दिखाता है. उसे झील किनारे ले जाकर एक वनीला आइसक्रीम खिलाता है और लड़की रोते हुए उससे कहती है कि वह उससे बहुत प्यार करती है. फिर लड़का उसे दुनिया भर का ज्ञान पिलाते हुए दुनियादारी समझाता है और हिदायत देते हुए कहता है, ‘तुम बहुत भोली हो, दुनिया बहुत खराब है. ज्यादा लड़कों से मेलजोल ठीक नहीं. जो भी करना है, सब मेरे साथ करो. मैं हूं न.’ भारत के तमाम शहरों और कस्बों में बसने वाले ऐसे ही तमाम मसीहा अपने खोखले व्यक्तित्व से उपजी असुरक्षा के आगे घुटने टेकते हुए अपनी प्रेमिकाओं के चेहरों पर रोज तेजाब फेंकते हैं, उन्हें जिंदा जला देते हैं या उनके साथ बिताए अंतरंग क्षणों को इंटरनेट या मोबाइल फोन के जरिए सार्वजनिक कर देते हैं.
पर अफसोस कि इस बार ऐसा नहीं होगा. मैंने तो पहले ही तय कर लिया था कि दुनिया अपनी ही आंखों से देखूंगी, किसी स्वघोषित ज्ञानी मसीहा की आंखों से नहीं. अपनी बेड़ियां मैं खुद खोलूंगी. मैं किसी को मेरे मना करने या असहमत होने पर मेरे साथ कुछ भी बुरा करने की इजाजत नहीं दूंगी. मैं प्यार के नाम पर ब्लैकमेल करने वालों की आंखें नोंच लूंगी और सड़क पर ज़बरदस्ती करने वालों को पलट कर मारूंगी. पुलिस हेल्प लाइन नंबरों के बारे में मैं और मेरी तमाम महिला परिचित जानती हैं. अब हम सब जानने लगी हैं और जो नहीं जानते उन्हें बता रही हैं कि यदि स्त्री किसी संबंध में खुश नहीं है या उसके साथ किसी भी तरह की मानसिक-शारीरिक हिंसा हो रही है तो वह तुरंत उस संबंध से बाहर आ सकती है. और ऐसा करने पर उस पर कोई नैतिक निर्णय नहीं थोपा जा सकता. तो अगर तुम पहले ऐसे ही ‘फरेबी मसीहा’ के रूप में मुझसे प्रेम करके, बाद में अपने आप को तकनीक का एक्सपर्ट मानने वाले कोई ‘जिल्टेड लवर’ हो तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी.
हमारे समाज में स्त्री और पुरुष ऐसे क्यों हैं और उनमें आपस में हमेशा एक किस्म की रस्साकशी क्यों चलती रहती है, ये सवाल हमेशा मेरे दिमाग में कौंधते रहते थे. जवाब की तलाश में जो कुछ मिला उसने कुछ नए सवाल खड़े कर दिए. सत्रह साल की उम्र में पढ़ी गई ‘द सेकंड सेक्स’ स्त्री को समझने की दिशा में मेरा पहला प्रयास था. उन दिनों मैंने स्त्री और महिला आंदोलनों से जुड़ी तमाम किताबों को दूंढ-ढूंढ कर पढ़ना शुरू कर दिया था. एक बार मां ने मेज़ पर रखी स्थापित मूल्यों से उलट जाती कुछ किताबों को देख लिया. उन्होंने गुस्से में किताबों का बंडल पिता जी के सामने पटकते हुए कहा, ‘देखिए, ये लड़की क्या उल्टा-सीधा पढ़ रही है. इसीलिए कहती थी कि लड़कियों को बहुत नहीं पढ़ाया जाना चाहिए.’ मैंने रोते हुए अपनी किताबें वहां से उठा लीं और बेहद अपमानित महसूस किया. मैं किसी को समझाना नहीं चाहती थी कि मैं क्या और क्यों पढ़ रही हूं.
हमारे यहां के स्त्री-पुरुष संबंधों को समझने की राह में यह मेरा पहला सबक था. ज्ञान, शिक्षा, सुविधा, पोषण और निश्चल प्रेम से सदियों तक महरूम रही स्त्री किसी से भी सामान्य रूप से प्रेम कैसे कर सकती है? ऐसा सरलीकृत प्रेम जहां उसकी कोई पहचान या सम्मान न हो, वह सिर्फ उसके अंदर एक निरीह महिला और उपभोग की वस्तु होने के अहसास को ही और बढ़ाएगा. इसलिए स्त्री प्रेम की जटिलता को हमारे अपने सामाजिक ताने-बाने के परिणाम की तरह ही स्वीकार करना होगा.
दरअसल एक स्त्री के तौर पर मैं प्रेम को लेकर इतनी सशंकित क्यों हूं? क्यों प्रेम को लेकर मेरी बातें किसी ‘फेमिनिस्ट मैनीफेस्टो’ जैसी लगती हंै? जवाब शायद यह हो सकता है कि प्रेम करने का माध्यम भी तो आखिर मेरा यही अस्तित्व है न. और लंबे समय से मेरे अस्तित्व को नकारने वाले समाज ने मुझे ऐसा बना दिया है. मेरे अस्तित्व को नकारकर मुझे हासिल करने या अपने कब्जे में रखने की पुरुषों की भूख ने मुझे बागी बना दिया है. मुझ पर दिन-रात सालों से थोपे जा रहे नैतिक निर्णयों से अब मुझे कोफ्त होती है. मेरे लिए अब सम्मान पाने का एक ही रास्ता है, वह है मेरा काम और शिक्षा. और इस सब में प्रेम कहीं पीछे छूट-सा गया है. पर मेरा विश्वास करो, मैं वाकई प्रेम करना चाहती हूं. पर शर्तों में बंधा, एकतरफा प्रेम नहीं. मुझमें वाकई बहुत प्रेम है, करुणा है, जो बिखरने के लिए तुम्हारे साथ के लालित्यपूर्ण आकाश की राह देख रहा है. लेकिन जब तक तुम मेरे स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करोगे और बहुत मेहनत से बनाई, छोटी-मोटी, जो भी मेरी पहचान है, उसे नहीं स्वीकारोगे, तब तक मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी. यहां तुमसे यह कहना भी बहुत जरूरी है कि मुझे तुमसे बहुत आशाएं हैं. तुम अगर साथ नहीं आए तो भी मैं यह सफर पूरा कर ही लूंगी…पर अगर तुम आओगे तो जीवन के मायने ही बदल जाएंगे.
– प्रियंका दुबे