बात 1962 की है जब एक फिल्म आई थी ‘असली नकली’। देव साहिब की इस फिल्म में हसरत जयपुरी का एक गाना था –
”इक बुत बनाऊंगा तेरा और पूजा करुंगा’’
उस समय मेरे छोटे – मोटे से दिमाग में बुत की महत्वता नहीं आई थी। सोचा नहीं था कि इतने समय बाद ‘मूस’ के बुत को लेकर कनाडा और नार्वे के बीच कोई शीत युदध या स्पर्धा हो जाएगी। ‘मूस’ कनाडा के प्रमुख वन्य प्रणियों में आता है। इसकी शक्ल कमोवेश मेरे जैसी और इसके सींग हमारे यहां पाए जाने वाले ‘बाहरसिघां’ जैसे होते हैं। मामला यह था कि ‘मूस’ का एक बड़ा सा बुत बना कर स्थापित कर दिया गया। हमारे यहां की तरह बुत की स्थापना पर कोई विवाद नहीं हुआ। फिर नार्वे वालों का भी खून खौला और उन्होंने अपने एक वन्य प्राणी जो ‘मूस’ जैसा ही है का एक बुत अपने यहां बना लिया। अब यह इज्ज़त का सवाल बन गया क्योंकि नार्वे ने जो बुत बनाया वह 30 सेंटीमीटर ऊंचा है। समस्या यह है कि ‘मूस’ के बुत को ऊंचा कैसे करें।
हमारे यहां भी ऐसा ही कुछ होना चाहिए। अरे जब हाथियों और शेरों के बुत लग सकते हैं तो मेरा क्यों नहीं। हमारी प्रजाति कौन सा किसी से कम है। हाथियों के बीच यदि एक ‘गधा’ भी आ जाए तो क्या बुराई है। वैसे देश में मेहनतकश की क्या कीमत है यह तो मज़दूर की भूखमरी और किसान की आत्महत्या से पता चल जाता है पर फिर भी शायद ‘मूस’ को देखने के बाद मेरे भी दिन फिर जाएं। लेकिन मेरे लिए स्पर्धा तीखी होने वाली है। पहले तो सरकार कहेगी कि यदि इस ‘एक’ का बुत लगा दिया तो जो बाकी हमारे यहां आए हुए हैं उनका क्या करेंगे? फिर तो सभी के लगाने पड़ेंगे। दूसरी बात सरकारी विभाग पूछेगा एक ‘गधे’ का बुत लगाने का औचित्य क्या है? हमारा जवाब है कि जिनकी वजह से लोग कुर्सियों पर विराजमान हो जाते हैं उन्हें तो प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए। यदि हमारे जैसे न होते तो न जाने कितने बेचारे केवल दरियां ही झाड़ते रह जाते।
इसके अलावा एक और अड़चन है धोबी। सुबह सवेरे गालियों देकर डंडे मार कर मुझे उठाता है। उसे किसी ने बता दिया है कि अब जानवरों के बुत भी लगने लगे हैं। इस सूचना से वह ऐसे चौंका जैसे रिश्वत खाने के बावजूद भी ‘इनकम टैक्स’ वालों की रेड से कोई कालाबाज़ारी चौंकाता है। उसका सीधा शक मुझ पर गया। मुझे धमकाया -‘तू तो अपने बुत के बारे में सोचना भी मत। वहां बुत लगेगा तो मेरा। मेरा कद बुत और सीना तुझ से कही बड़ा है।’ धोबी का यह रुख देख मुझे उनकी याद आई जो हर कुर्सी पर अपना ही अधिकार समझते हैं। पहले ही कह देंगे-‘यह तो मेरी है’। पर यदि ‘लॉजिक’ की बात करें तो बुत तो मेरा ही लगना चाहिए। चारों ओर हाथी और शेर और बीच में ‘मैं’ कितना खूबसूरत मंजऱ बनेगा। डर बस यही है कि आजकल लॉजिक के साथ कुछ नहीं होता। लॉजिक से ज़्यादा चलती है मक्खनबाजी,चापलूसी या फिर आप में जेब गरम करने की ताकत हो। अपने पास तो इनमें से कुछ भी नहीं, हमें तो आती है ‘लातबाजी’ पर कई जगह यह चल भी जाती है। वैसे भी कहावत है ”लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’’ खैर मेरे मन में हिंसक होने की फिलहाल कतई इच्छा नहीं, पर अपना बुत बनाने की तमन्ना ज़रूर है।
वैसे बुतों को अगर खुदा होने का गुमान हो जाए तो वे किसी शायर की ये पंक्तियां याद रखें-
”हो जाता है जिनमें अंदाज-ए-खुदाई पैदा
हमने देखा है कि वो बुत अक्सर
तोड़ दिए जाते हैं।’’