रजनी क़रीब सात-आठ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक गाँव से दिल्ली आयी और पूर्वी दिल्ली की एक ऐसी बस्ती में रहने लगी, जहाँ अधिकांश लोग दिहाड़ी मज़दूर किराये के छोटे कमरों में रहते हैं। अलग से कोई रसोई की व्यवस्था नहीं, शौचालय भी सामुदायिक यानी कई परिवार एक ही शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। रजनी का पति गारमेंट्स बनाने की कम्पनी में कपड़े सिलने का काम करता था। रजनी ने अपनी बस्ती से दो कि.मी. की दूरी पर स्थित अपार्टमेंट्स में बर्तन धोने और सफ़ाई करने का काम करके और क़रीब 8,000 रुपये महीने कमा लेती थी। उसकी इस आय का अधिकांश हिस्सा उसके चार बच्चों को अच्छी शिक्षा व भोजन पर ख़र्च होता था।
लेकिन जब कोविड-19 महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए बीते साल 24 मार्च को देश भर में तालाबंदी (लॉकडाउन) की गयी, तो सरकारी आदेश के मद्देनज़र उसे काम पर जाना बन्द कर करना पड़ा। कुछ दिनों के बाद वह घरों से अपना पैसा लेने के लिए आयी और उसके बाद वह अपने परिवार के साथ अपने गाँव लौट गयी। एक साल हो गया वह दिल्ली नहीं लौटी। ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले के रामाबहल गाँव की एक युवा शिक्षित महिला को दिल्ली में मार्च, 2020 में नौकरी मिली। लेकिन तालाबंदी के कारण उसे बताया गया कि हालात सही होने पर आने के लिए सूचित कर दिया जाएगा। नौकरी पक्की नहीं थी। लेकिन युवती को उम्मीद थी कि हालात सामान्य होने पर उसे फोन आएगा। जुलाई में वह ओडिशा अपने गाँव लौट गयी।
यही नहीं, उसकी आठ-नौ सहेलियाँ, जो अन्य शहरों में काम करने गयी थीं; भी तालाबंदी की वजह से गाँव लौट गयीं। अब सभी बेरोज़गार हैं। ऐसे सैंकड़ों क़िस्से मिल जाएँगे, जो बताते हैं कि बीते साल कोविड-19 की पहली लहर ने देश में रोज़गार के लैंगिक पहलू को किस क़दर प्रभावित किया है। कोविड-19 की वजह से तक़रीबन सभी देशों में तालाबंदी की गयी। विभिन्न अध्ययन व आँकड़े बताते हैं कि कोविड-19 से महिलाओं के रोज़गार पर ख़राब प्रभाव पड़ा है। कोरोना वायरस महामारी के दौरान महिलाओं को सबसे पहले नौकरी गँवानी पड़ी। नौकरियों में उनकी वापसी देर से हुई, नौकरी खोने वाली सभी महिलाओं को फिर नौकरी नहीं मिली। तालाबंदी में बच्चों के दैनिक देखभाल केंद्र (डे-केयर सेंटर) और विद्यालय बन्द होने के चलते भी कई महिलाओं को न चाहते हुए भी नौकरी छोडऩी पड़ी।
दरअसल इतिहास बताता है कि जब भी आर्थिक संकट आता है, चाहे वह महामारी या ग़लत औद्योगिक-आर्थिक नीतियों के कारण हो; उसकी क़ीमत महिलाएँ अधिक चुकाती हैं। भारत में बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ अनोपौचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इसमें कृषि, निर्माण कार्य, कपड़ा उद्योग, हथकरघा, खुदरा क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, घरेलू कार्य आदि शमिल हैं। नगरों, महानगरों में घरों में सफ़ाई, बर्तन धोने, भोजन बनाने आदि का काम भी अधिकतर महिलाएँ ही करती हैं। तालाबंदी में अधिकांश की नौकरी चली गयी। शहरी शिक्षित रोज़गार महिलाओं को भी इस महामारी ने प्रभावित किया है। भारत में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पहले ही चिन्ता का विषय है और मौज़ूदा महामारी ने इस मुद्दे को और गम्भीर बना दिया है। साथ ही नीति निर्माताओं के समक्ष रोज़गार में लैंगिक फ़ासले को पाटने व अन्य विसंगितयों को दूर करने के लिए अल्पकालीन लक्ष्य नहीं, बल्कि दीर्घकालीन लक्ष्य हासिल करने के वास्ते नीतियाँ बनाने का एक अवसर भी दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, भारत में कार्य बल यानी लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी सन् 2010 में 26 फ़ीसदी थी, जो गिरकर सन् 2019 में 21 फ़ीसदी रह गयी। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॅमी ने एक अध्ययन कराया, जिससे पता चला कि बीते साल नवंबर, 2020 में नौकरियों में शहरी महिलाओं की हिस्सेदारी केवल सात फ़ीसदी रह गयी है। सन् 2019 में शहरों में 9.7 फ़ीसदी महिलाएँ काम कर रही थीं। तालाबंदी के कारण यह संख्या घटकर 7.4 फ़ीसदी रह गयी। नवंबर, 2020 में यह 6.9 फ़ीसदी रह गयी। इस अध्ययन के अनुसार, काम में महिलाओं की कम हिस्सेदारी के कारण भारत में काम करने वाले लोगों की संख्या में इज़ाफ़ा नहीं हो पा रहा है।
सन् 2016 में यह संख्या 46 करोड़ थी और अब 40 करोड़ है। यदि भारत में रोज़गार-दर चीन या इंडोनेशिया के बराबर होती, तो यह संख्या 60 करोड़ के आसपास होती। भारत में प्रवासी मज़दूरों के बारे में बात करते ही सामान्य तौर पर पुरुष मज़दूरों की तस्वीर सामने आ जाती है। यह हक़ीक़त है कि प्रवासी मज़दूरों में 80 फ़ीसदी पुरुष हैं। लेकिन महिला प्रवासी मज़दूरों की संख्या में सन् 2001 से लेकर सन् 2011 के दरमियान दो गुना इज़ाफ़ा हुआ। मगर तालाबंदी में व बाद में उनकी दयनीय हालत पर कितनी चर्चा हुई। सम्भवत: अभी भी घर चलाने की प्रमुख ज़िम्मेदारी पुरुष की ही मानी जाती है। महिला का काम घर व बच्चे सँभालने का मान लिया गया है। इस तालाबंदी में एकल माँ (सिंगल मदर) की आर्थिक हालत क्या हो चुकी होगी? यह भी चर्चा का विषय है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 1.3 करोड़ घर एकल माँएँ ही चला रही हैं। इसके अलावा 3.2 करोड़ एकल माँ अपने रिश्तेदारों के परिवारों में हैं। ज़ाहिर है कि आर्थिक आघात ने इन्हें भी प्रभावित किया होगा।
आर्थिक झटके श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी को अनुपातहीन प्रभावित करते हैं। युवा महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सीएमआईई के आँकड़े बताते हैं कि 2019-20 में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 10.7 फ़ीसदी थी, मगर तालाबंदी के पहले महीने अप्रैल में 13.9 फ़ीसदी महिलाओं की नौकरी चली गयी। बता दें कि नवंबर, 2020 तक जिन पुरुषों की नौकरी चली गयी थी, उनमें 30 फ़ीसदी से अधिक को काम मिल चुका है। लेकिन महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा कम हुआ है। नवंबर, 2016 में नोटबंदी की घोषणा की गयी, उसके बाद क़रीब 24 लाख महिलाओं की नौकरी चली गयी, जबकि दूसरी तरफ़ नौ लाख पुरुष नौकरी बाज़ार (जॉब मार्केट) में दाख़िल हो गये। यही नहीं, देश में कोरोना-काल के दौरान कामकाजी महिलाओं पर घरेलू काम का बोझ बढ़ा है।
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की ओर से तैयार की गयी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पहले जहाँ महिलाएँ दो घंटे का समय खाना बनाने में लगाती थीं, वहीं अब कर्नाटक में यह समय 20 से 62 फ़ीसदी और राजस्थान में 12 से 58 फ़ीसदी तक बढ़ गया है। घर से ही दफ़्तर का काम करने यानी घर में अधिक समय तक रहने के कारण और बच्चों के भी घर पर रहने के चलते महिलाओं पर काम का बोझ अधिक बढ़ा है। यही नहीं घरेलू कामगारों के नहीं आने से भी वे सब काम अधिकतर महिलाओं को ही करने पड़े। इस रिपोर्ट के मुताबिक, तालाबंदी और उसके बाद के महीनों में 61 फ़ीसदी पुरुषों की नौकरियाँ बची रहीं और सि$र्फ सात फ़ीसदी को नौकरी खोनी पड़ी। जबकि महिलाओं के मामले में सिर्फ़ 19 फ़ीसदी की ही नौकरी बचा रही, जबकि 47 फ़ीसदी महिलाएँ ऐसी रहीं, जिन्हें नौकरी खोनी पड़ी।
तालाबंदी में नौकरी खोने वाले पुरुषों में कुछेक ने बाद में अपना काम शुरू कर दिया, तो कुछ अन्य कामों में लग गये; लेकिन नौकरी, दिहाड़ी खोने वाली महिलाओं के लिए ऐसे विकल्प पुरुषों की तुलना में बहुत ही कम हैं। इसी तरह शादीशुदा महिला एक बार रोज़गार से बाहर हो जाती है, तो उसके काम पर लौटने के अवसर बहुत कम हो जाते हैं, जबकि एक शादीशुदा पुरुष के लिए नौकरी से बाहर होने के बाद फिर से काम हासिल करने वाले अवसर महिलाओं की तुलना में अधिक होते हैं। उन्हें उन चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता, जो वे अक्सर झेलती हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की महिलाओं पर गम्भीर असर डाला है। सबसे अधिक नुक़सान नौकरीपेशा महिलाओं को हुआ है। इस महामारी के कारण दुनिया भर में क़रीब 6.4 करोड़ नौकरीपेशा महिलाओं को नौकरी गँवानी पड़ी यानी हर 20 कामकाजी महिलाओं में से एक को।
बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की एक हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है। इसमें बताया गया है कि महिलाओं पर अधिक असर इसलिए पड़ा, क्योंकि सबसे अधिक नुक़सान महिला कर्मचारियों की अधिकता वाले खुदरा (रिटेल), उत्पाद (मैन्युफैक्चरिंग) व सेवा क्षेत्र पर पड़ा है। इनमें क़रीब 40 फ़ीसदी महिलाएँ काम करती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं की नौकरी को लेकर एक जैसा स्वरूप देखने को मिला है। लगभग हर देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक नौकरी खोयी है। ऐसे शीर्ष-10 देशों में अमेरिका, कनाडा, स्पेन और ब्राजील भी हैं।
अमेरिका में 2019 में कार्य बल में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी और उस दशक में ऐसा पहली बार हुआ था, लेकिन 2020 में कोरोना महामारी के चलते जब देश में तालाबंदी हुई, तो नौकरी गँवाने वालों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक थी। श्रम बाज़ार या नौकरी बाज़ार में महिलाओं को फिर से काम मिलना आसान नहीं होता। नौकरी बाज़ार और समाज के नियम लैगिंक पूर्वाग्रहों से भरे हुए हैं। यहाँ महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को प्राथमिकता और महत्त्व दिया जाता है।
नीलसन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 84 फ़ीसदी से भी अधिक पुरुष बच्चों की देखभाल को महिलाओं की ज़िम्मदारी मानते हैं। यह मानसिकता कमोवेश दुनिया के अधिकांश हिस्सों में देखी जा सकती हैं, इसके फ़ीसदी में फ़$र्क हो सकता है; पर लिंग के आधार पर भेदभाव व्याप्त है। इस समय कोरोना महामारी की दूसरी ख़तरनाक लहर से गुज़र रहे भारत और उसके विभिन्न राज्यों में कहीं आशिंक, तो कहीं पूर्ण लॉकडाउन लगा हुआ है, इस दौरान महिला रोज़गार पर क्या असर हुआ होगा? इसका ख़ुलासा आने वाले वक़्त में होगा और प्रभाव भी सामने आएँगे।