प्रदीप। माधुरी, १ ० जनवरी १९६८
मीना कुमारी के बाग में मैंने – मुझे उसका नाम नहीं मालूम – वह पौधा देखा था, जिसके पत्तों का रंग मुस्कराहट की तरह दिलकश था और कोरे दुलहन की साड़ी की गोट की याद दिलाती थीं; बेसाख्ता खिंच कर मैं उस पौधे के करीब चला गया और तब…तब मैंने देखा कि उस पौधे के कलेजे में छलनी की तरह छेद थे.
हर जख्म के साथ तो ऐसा होता है कि बार-बार कुरेदा जाकर वह दुखना बंद हो जाता है! मीना के साथ क्यों ऐसा नहीं होता? क्यों हर बार वह फिर पूरे अपनापे से दुख को पलक-पांवड़े बिछाती है. जैसे यही अब प्राप्य है, यही उद्देश्य है, जीना अगर यही है तो आत्मा उड़ेल कर क्यों न जिएं?
क्या कुछ उसने नहीं झेला? सफेद कपड़े पहने और मुस्कराहट और अदब के मुखौटे पहने लोगों को अपनी तारीफ में शेर पढ़ते भी देखा है और – आखिर तो इन मुखौटों के पीछे आदमी भी जानवर है, प्राकृतिक, स्वाभाविक – यह बात भी दीवारों, कानों-जबानों, हवाओं से टकरा कर मीना के पास से गुजरी है कि ‘माफ कीजिए, पर मीना जी में अब वह बात नहीं रही.’ ‘अल्लाह! क्या हुआ है इन्हें! जब देखो, नशे में डूबी रहती हैं! लोगों से मिलने तक में कतराती हैं!’ ‘सुना आपने, अब मीना जी का फलां’ से चल रहा है! कम से कम अपनी पोजीशन का तो ख्याल करतीं!’ और भी न जाने क्या कितना कुछ कि जिसे सुनने के बाद हर कान बहरा हो जायेगा और दिल पत्थर. इतना होने के बाद कोई बर्फ की सिल पर लिटा दे, नाखून के पोरों में कीलें ठोक दे, तो ‘उफ’ नहीं निकलेगी. काश! मीना के साथ भी ऐसा होता!
पर हुआ तो है! अब उस पर बिजली गिरे तो उसकी आंख नहीं झपकेगी, मगर उसकी आया को कोई नींद से लगा भी दे तो वह बिगड़ खड़ी होगी. अब सहेली के पांव में कांटा लगने से और स्टूडियो के कारीगरों के मीना की गाड़ी के आगे नारियल फोड़ने से और किसी दिवंगत दोस्त का जिक्र छिड़ने से मीना की आंखों में आंसू छलछला जाते हैं. दर्द को महसूस करने का मीना का माद्दा इतना बड़ा है कि सर्वकालीन, सार्वजनीन हो गया है. और फिर कानों-जबानों से टकराकर लौटी खुसर-पुसर मीना सुनती है – ‘इतनी भी क्या भावुकता? कोई इतनी-इतनी बात पर रोता है! खुदा झूठ न बुलवाये, हमें तो भई, ढोंग लगता है!’
आपके दुख के लिए
ढोंग और मीनाकुमारी! चार साल की उम्र में जिसे घर के फाकों ने कैमरे के आगे ला खड़ा किया, जिसके रोने पर लाखों आंखे रोयीं और जिसके मुस्कराने का इंतजार उन्हीं लाखों आंखों ने तीस लंबे सालों तक किया, वह अब ढोंग कर रही है? किसी ने यह सोच कर नहीं देखा कि नशे में आदमी हंसता है तो हंसता जाता है, बात- बेबात; और नशा है होश खोने का नाम. और तीस साल तक रो कर भी होश खो जाता है और आदमी बात-बेबात पर रो पड़े तो… यह क्या ढोंग है?
इस सारे नाम और शोहरत (बस, इसके अलावा और कुछ नहीं) की वजह मीना कुमारी की कला नहीं है, न ही उसकी शकल. इसकी वजह आप हैं, जो सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं, जो खुले आम हंस तो सकते हैं, रो नहीं सकते. हंसना कमजोरी नहीं है, रोना कमजोरी है. आपने अपनी सारी कमजोरियों को जीतने का संकल्प किया है और इसलिए आप अपने दुख के लिए भी कोई और रोने वाला चाहते हैं – आप का यह काम मीनाकुमारी ने किया है और मेहनताने के तौर पर आपने उसे इतना नाम शोहरत, इज्जत दी है; बस न? इससे ज्यादा तो कुछ नहीं दिया? वह कुछ, जो उसे चाहिए था, जिसकी तलाश अब भी उसे है – जिसका नाम तो वह नहीं जानती, मगर- जिसके लिए वह रातों जागती है, जिसके लिए वह क्या से क्या हो गयी?
क्या चाहिए तुम्हें? हमसे कहो
ओह! माफ कीजिए, मैं भूल गया कि आपने मीना की मदद करनी तो चाही थी. उसकी सरपरस्ती की आत्म-प्रवंचना का सुख पाने के लिए आपने हमदर्दी दिखाते हुए मीना से पूछा था, ‘क्यों परेशान हो? क्या चाहिए तुम्हें? किस चीज की तलाश है, हमसे कहो!’
मीना ने कहा था, ‘जो भी तलाश मुझे है, है. मैं आपको क्यों बताऊं?’
आपने बड़प्पन का गौरव लेकर कहा था,
‘क्योंकि हम तुम्हारी मदद करने को तैयार हैं. तुम कह कर तो देखो!’
मीना ने पहले कुछ नहीं कहा था, क्योंकि जो तलाश उसे है, वह मांग कर हासिल करने की चीज नहीं है. फिर आपके बहुत उकसाने पर उसने बजाय आपके मुंह पर थप्पड़ मारने के कहा था, ‘नहीं, यह मर्द की तलाश नहीं है. मर्द की तलाश वह चीज ही नहीं, जिसके लिए कोई औरत परेशान होती है.’
मर्द और औरत
आपने समझने की कोशिश की? मर्द उस दोपाये जानवर का नाम नहीं है, जो बहुतायत से जरा सी कीमत पर प्राप्य है, जिसे आप रात-दिन देखते हैं. मर्द एक भावना का नाम है. और मर्द और औरत के बीच का रिश्ता? वह भी एक ‘फीलिंग’ है. न कि तौर-तरीका.
एक बार मीना ने कहा था, ‘पुराने जमाने से मर्द ने औरत को बराबरी का दर्जा देने की बखानी है, जबकि मैं नहीं मानती कि औरत किसी तरह से मर्द से कम होती हैं. ज्यादा होती है, यह कहूंगी तो फिर उलझाव पैदा होगा, इसे टाल ही जाऊं. और बराबरी का दर्जा देने के दंभ के पीछे की गयी जो साफ बेइज्जती है कि यूं तो औरत छोटी है ही…, उसका भी अर्थ कोई नहीं. कम से कम मैं किसी तरह खुद को मर्द से छोटा महसूस नहीं करती. मगर फिर भी मैं औरत हूं, जिसने हमेशा यह चाहा है कि मर्द उससे बड़ा हो. मेरा मर्द अगर कभी मेरे आगे रो दे तो मुझे उस पर बहुत प्यार आयेगा, पर अगर वह किसी और के आगे रो पड़े तो मुझे कभी बर्दाश्त नहीं होगा!’ आपने समझा? मीना का मतलब शरीर से मर्द या औरत होने से नहीं है, और जो भी हो. और मीना ने कहा भी उसकी तलाश, जिसके लिए वह रातों जागती है, मर्द की तलाश नहीं है. तो फिर? आपने अक्ल लगा कर कहा, ‘बच्चे की तलाश?’ (हा, हा! जैसे यह आपके बस की बात हो!)
नहीं. वह भी नहीं. मीना ने कहा, ‘मैं सारी दुनिया को झुठला सकती हूं, जो कहती कि औरत को ‘अपना’ बच्चा चाहिए होता है. मेरे घर में बच्चों की कमी नहीं और वे मुझे अपने बच्चों की तरह प्यारे हैं और उन्हें उनकी मां की तरह प्यारी हूं. इसमें शक नहीं कि अगर मेरे बच्चे होते…’
मीना चुप होकर सोचने लगी हैं… बेशकीमती शीशा हाथ से छूट गया. इंतजार ही रहा कि वह झन्ना कर दिल हिला देने वाली आवाज करेगा, मगर वह बेआवाज ही टूट गया. उस रात मीना कुमारी ने सपना देखा था; वहीं –मां सामने खड़ी है, हर बार की तरह चुपचाप, सर पर चूनर लिये, सफेद कपड़े पहने. निकाह के बाद वाली रात भी मां सपने में दिखी थी, मगर तब उसने सर पर लाल चूनर डाल रखी थी और कुरान शरीफ पढ़ रही थी. आज की तरह दीवार से सटी सिर झुकाये नहीं खड़ी थी. मां को इस तरह खड़ा देख कर मीना को घबराहट हुई. बत्ती जलाने की कोशिश की, मगर बेकार, मीना उठ कर मां के पास गयी – ‘मां! नहीं, यह मां नहीं है, यह तो मीना खुद है, और उसके मुंह पर लहू पुता हुआ है. मीना चीख कर बेहोश हो गयी और वहीं गिर पड़ी… सुबह लोगों ने उसे वहां से उठाया – मां बनने का हौसला टूट गया था, बेआवाज!
देखो मुन्ना! तुम्हारा दूल्हा आ गया
फिर उस हौसले का सर बार-बार कुचला गया और फिर मीना ने अपने दरवाजे पर उसकी दस्तक पहचानी भी तो दरवाजा नहीं खोला. अब मीना को वह ख्वाब नहीं आता कि वह सफेद कपड़े पहने हुए बड़े-बड़े नक्काशीदार खंभों और प्राचीन मूर्तियों वाले विशाल मंदिर में चकित सी घूम रही है और मंदिर की छत खुली है, जिसमें से गिरते हुए आबशार में वह भीग रही है, उसका मन भी भीग रहा है. अब ख्वाब नहीं आते. अब नींद ही नहीं आती, वरना मीना की तमन्ना तो है कि एक बार फिर वह ख्वाब देखे और इस बार उसकी आंख न खुले ः एक बार उसने देखा था – सफेद संगमरमर का फैला हुआ फर्श, संगमरमर के सीधे-सपाट खंभे, संगमरमर की ऊंची आसमान जैसी छत, मीना सीधी बढ़ती हुई उस कोने में बैठे यहूदी जैसे शख्स के करीब चली जा रही है, जो एक मेज कुर्सी लगाये बैठा है… लो, उसकी मेज पर बहुत से फल रखे हैं, उसने मीना को एक सेब उठा कर दिया और इशारा किया, ‘वहां बैठ कर खाओ!’ वहां एक लाल रंग का कोच रखा है. मीना यंत्रचालित सी फल ले कर वहां बैठ गयी और तब देखा, मां भी पास बैठी है. ‘मां’ मीना ने कहा. मां कभी सपने में बोली न थी. आज पहली बार बोली, ‘वो देखो, मुन्ना तुम्हारा दूल्हा आ गया…’ मीना ने देखा, दूर दरवाजे के बाहर घोड़े पर उसका दूल्हा बैठा है… उसकी पीठ मीना की तरफ है, घोड़ा मचल रहा है…अभी वह घूमेगा और मीना को दूल्हे की शकल दिखेगी…, मगर तभी आंख खुल गयी. अपने ‘दूल्हे’ का मुंह ही मीना नहीं देख पायी, …और इस देखने न देखने में फल भी नहीं खा सकी – स्वप्न में फल खाना; शास्त्रों के अनुसार जिसका अर्थ गर्भ धारण करना होता है.
पर मीना ने कहा तो कि उसकी तलाश यह भी नहीं है ! ‘यह’ कभी तमन्ना थी, अब हसरत ही रह गयी है. मगर हसरतों का पूरा न होना कोई नहीं जीता, वह कुछ और जीता है, कोई आशा, कोई महत्वाकांक्षा.
बेशकीमती शीशा हाथ से छूट गया. इंतजार ही रहा कि वह झन्ना कर दिल हिला देने वाली आवाज करेगा, मगर वह बेआवाज ही टूट गया
एक बेचैन कस्तूरी मृग की तलाश
कहते हैं, हम जिस तरह जीते हैं उससे अलग कुछ नहीं होते ः मीना ने अपनी जिंदगी यूं जी, जैसे वह उसकी अपनी न थी. कहते हैं, अभिव्यक्ति का भाषा से अच्छा माध्यम नहीं हैः मीना ने चुप रह कर भाषा को करारी मात दी है. कहते हैं, विरोधियों के खेमे में हिम्मत टूटती है, अपने घर में पैदा होती है. मीना ने उस घर में अपना आप न खोया, जहां उसका कोई न था और उस घर से निकल आयी, तो उसे लगता है, अब तो वह खुद भी अपनी नहीं है, बल्कि कोई बताये, क्या यह है भी – अगर उसकी तलाश न हो..!
अब यह बड़ी मुश्किल बात है कि वह कुछ खोज रही है, जिसका नाम-पता नहीं जानती. जानती तो है, पर यूं नहीं जानती कि किसी तरह बता सके – जैसे कस्तूरी मृग बेचैन सा किसी गंध को ढूंढ़ता फिर रहा हो… ; फिर यह कस्तूरी सिर्फ मीना के भीतर नहीं है – यह किसी रासायनिक प्रतिक्रिया की तरह किसी और कस्तूरी के संयोग से रंग लायेगी…
आपने मीना को बहुत सम्मान दिया – उसके बिना शायद उसका काम चल जाता ; उसे बहुत यश और धन मिला – धन कभी उसके पास नहीं रहा और यश को अपयश में बदलते पल भी नहीं लगता; उसकी ‘इमेज’ मीना कुमारी नहीं है, मीना कुमारी एक नाम विशेष, व्यक्ति विशेष है, जो प्यार करने की पहुंच के बहुत बाहर, बहुत बड़ा नजर आया या बहुत छोटा, बहुत अनुपयुक्त. मीना की तलाश यही है – अपनेपन की तलाश, स्नेह की, तादात्म्य की तलाश, जो मांगने की चीज नहीं है और मांगने पर मिलती है तो अहसान होती है…मीना अहसान नहीं उठा सकती.
वो लोग, जिन्होंने उस पर बेशुमार इल्जाम लगाये हैं, जज की तरह ऊपर की कुर्सी पर बैठे हुए लोग हैं, उन्होंने कहा कि मीना बहुत किताबी बातें करती है, शराब पीकर होश खोये रहती है, लोगों से मिलने में कतराती है, पुरुषों की तरफ जरा में झुक आती है, उसमें मातृत्व की क्षमता नहीं है
इन लोगों का कसूर नहीं, उस कुर्सी पर से मोटा हिसाब ही लग सकता है. सच पूछिए, तो गणित केवल सिद्धांत है, गणित कला नहीं है, जीवन या मुद्दा या भावना भी नहीं है. जज की कुर्सी से उतर कर वे लोग कठघरे में आ कर खड़े हों तो मैं उनसे पूछूं – उनमें कौन ऐसा है, जिसने किताब से व्यवहार नहीं सीखा है, जिसने शराब पी हो और खुद को न महसूसा हो, जो मीना के कतराने पर खुद कतरा कर नहीं निकल आया, उनमें से कौन वह पुरुष है, जिसकी तरफ मीना ने झुकाव दिखाया, या कौन है वह, जिसने खुद मीना की कोख से जन्म लेना चाहा?
सबसे बड़ी शिकायत
पर मीना को शिकायत नहीं है. इस जिंदगी ने उसे जो दिया, वह मामूली से बहुत अलग था. उसे आदमी को पहचानने का मौका मिला है, जो सफेद कपड़े पहन कर हंसता मुखौटा लगाये हुए भी आदिम है, जो बड़ी मछली से डरता है और छोटी को निगल जाता है, जो प्यार भी ‘देने’ के दंभ से करता है और परायी आग पर ‘च् च् !’ करते हुए भी हाथ सेक लेता है. मीना ने यह सभी कुछ जी कर देखा है, और जब मैंने उससे पूछा, ‘अगर तुम्हें यह जिंदगी फिर से एकदम अपनी मर्जी के मुताबिक जीने का अख्तियार मिल जाये तो?’
मीना ने कहा था, ‘तो मैं फिर एक बार बिल्कुल इसी तरह जीना चाहूंगी. मुझे कोई शिकायत नहीं.’
इससे बड़ी कोई शिकायत आपने सुनी है? मीना मुस्करायी. उसके बगीचे में मैंने – मुझे उसका नाम नहीं मालूम – वह पौधा देखा था, जिसके पत्तों का रंग मुस्कराहट की तरह दिलकश था और जिसकी कोरें दुलहन की साड़ी की गोट की याद दिलाती थीं और जिसके कलेजे में छलनी से छेद थे – मैं यकीन के साथ कह सकता हूं, इस तरह मुस्कराना उसने मीना कुमारी से सीखा है.
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