लालकृष्ण आडवाणी के लिए मीडिया के एक खेमे ने ‘पीएम इन वेटिंग’ कहकर उनकी उम्मीदों को परवान चढ़ाया था. उम्मीदें अब तक पूरी नहीं हो सकी हैं. टूटी भी नहीं है. नीतीश कुमार को भी मीडिया यह स्वप्न दिखाता रहता है, नीतीश इनकार करते रहते हैं.
आडवाणी को उनके चहेते लौहपुरूष कहते थे, नीतीश को विकास पुरूष कहते हैं. उम्र के हिसाब से आडवाणी राष्ट्रीय राजनीति में करीब-करीब आखिरी पारी खेल रहे हैं. नीतीश राज्य के जरिये राष्ट्र की राजनीति में मजबूत आधार तलाशने की कोशिश में हैं.
राजनीतिक हथियार की तरह यात्राओं का इस्तेमाल करने में दोनों को महारत हासिल है. आडवाणी अब तक पांच यात्राएं – 1990 में राम रथ यात्रा, 1993 में जनादेश यात्रा, 1997 में स्वर्णजयंती यात्रा, 2004 में भारत उदय यात्रा, 2006 में भारत सुरक्षा यात्रा – कर चुके हैं. नीतीश कुमार भी न्याय यात्रा, विकास यात्रा, धन्यवाद यात्रा, प्रवास यात्रा, विश्वास यात्रा नाम की पांच राजनीतिक यात्रा कर चुके हैं.
नीतीश आडवाणी के और आडवाणी नीतीश के साथ होंगे तो मोदी के रास्ते में स्वाभाविक तौर पर ब्रेक लगेगा
आडवाणी देशव्यापी यात्रा करते हैं, नीतीश प्रदेशव्यापी. 11 अक्तूबर से आडवाणी ने छठी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताबदियारा से की है. नीतीश नवंबर के पहले सप्ताह में अपनी छठी ‘सेवा यात्रा’ महात्मा गांधी के सत्याग्रह की धरती चंपारण से शुरू करने वाले हैं. आडवाणी 40 दिनों की यात्रा पर हैं. नीतीश चार माह में बिहार के सभी 38 जिलों की यात्रा कर अपनी सेवा का अहसास कराने जा रहे हैं.
आडवाणी की यात्रा की ही तरह नीतीश की इस ‘सेवा यात्रा’ की भी पहले कोई चर्चा नहीं थी. नरेंद्र मोदी के सद्भावना उपवास और आडवाणी की जनचेतना यात्रा की घोषणा के तुरंत बाद नीतीश ने सेवा यात्रा की घोषणा की. जब उन्होंने आडवाणी की यात्रा को झंडी दिखाने की हामी भरी तो लोग आश्चर्यचकित रह गए. नीतीश जानते हैं कि आज जब राज्य में राजद, लोजपा व वामदल नीतीश का विकल्प देने की स्थिति में नहीं हैं तो फिलहाल जो राजनीतिक वैक्यूम है, उसे भरने की ताकत व संभावना सिर्फ भाजपा के पास है. वह पिछले चुनाव में मजबूत भी हो चुकी है. उन्होंने आडवाणी की यात्रा की घोषणा और हरी झंडी की सहमति के बाद से ही अपनी यात्रा की तैयारियां शुरू कर दी हैं तो मतलब साफ हैं. वे जानते हैं कि विपक्ष इस यात्रा में हरी झंडी दिखाने को लेकर दुविधा, भ्रम या अन्य स्थितियों को पैदा करने की कोशिश करेगा. नीतीश किसी भी संभावित नुकसान की भरपाई लगे हाथ नवंबर में अपनी सेवा यात्रा के जरिये करना चाहते हैं.
मगर ऐसा था तो आडवाणी के साथ मंच साझा करने का खतरा नीतीश ने क्यों मोल लिया? यह एक हद तक नीतीश की मजबूरी भी है. उन्हें भाजपा के साथ सत्ता-शासन से परहेज नहीं लेकिन उनके और नरेंद्र मोदी के बीच टकराव और एक-दूजे को पछाड़ने की होड़ भी जगजाहिर है. नीतीश और मोदी के बीच विकास के मॉडल पर भी परोक्ष तौर जंग चलती है. एक बड़ा बौद्धिक खेमा नीतीश को विकास पुरुष के तौर पर देश-दुनिया में स्थापित करने का अभियान चलाता है, तो एक बड़ा कारपोरेट खेमा नरेंद्र मोदी को मॉडल के तौर पर स्थापित करना चाहता है.
इन दिनों आडवाणी भी नरेंद्र मोदी से अंदरूनी तौर पर परेशान-से चल रहे हैं. आडवाणी की यात्रा शुरू होने के पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने यह घोषणा की कि यह यात्रा पीएम पद के लिए नहीं है. तो यात्रा किसी के पीएम बनने के ख्वाब को तोड़ने की भी तो हो सकती है. तो भला नीतीश आडवाणी का साथ क्यों न देते? राज्य की राजनीति में मजबूत होने के बाद नीतीश कांग्रेस के साथ जाने की गलती नहीं करेंगे. वहां शीर्ष पर पहुंचने की संभावनाओं के सारे द्वार बंद है. भाजपा और आरएसएस को भी पता है कि फिलहाल देश में गठबंधन के जरिये ही सत्ता प्राप्ति संभव है. एनडीए के पास मजबूत साथी के तौर पर फिलहाल जदयू ही है और जदयू का मतलब नीतीश हैं. नीतीश आडवाणी के और आडवाणी नीतीश के साथ होंगे तो मोदी के रास्ते में स्वाभाविक तौर पर ब्रेक लगेगा. और अगर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को झटका लगा और भाजपा आडवाणी बनाम मोदी बनाम वगैरह-वगैरह की चख-चख में पड़ी तो नीतीश एक मजबूत दावेदार होंगे. तब आडवाणी उनके काम आ सकते हैं.
उधर आडवाणी बिहार से यात्रा शुरू कर संकेत देना चाहते हैं कि वह पहलेवाले नहीं हैं. वक्त के साथ बदल गये हैं. जब लालू प्रसाद ने 1991 में उन्हें गिरफ्तार किया था तब के उनके सहयोगी रहे नीतीश आज उनकी यात्रा को झंडी दिखा रहे हैं. बिहार में नीतीश मजबूत स्थिति में हैं, राजग के सबसे महत्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए आडवाणी की यात्रा का संदेश संघ मुख्यालय तक भी पहुंचेगा. यात्रा 23 प्रांतों से होकर गुजरेगी तो बिखरे एनडीए के संभावित कुनबों तक भी बात पहुंचेगी. आडवाणी बिहार से यात्रा की शुरुआत कर एक साथ कई राजनीतिक मकसद साधने की कोशिश में हैं.