हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी देश के नामी तीर्थ स्थल हैं। गंगा के किनारे बसे नगरों में ये प्रमुख हैं। जब भी इन जगहों की यात्रा पर लोग निकलते हैं, तो आस-पड़ोस और रिश्तेदारों से लोग शुभकामनाएँ देते हैं, साथ ही यह अनुरोध करते हैं कि उनके लिए थोड़ा-सा गंगाजल ज़रूर लेते आयें। गंगा में प्रदूषण लगातार दशकों में फैलता रहा है। हालाँकि एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) केंद्र और राज्य सरकारें प्रदूषण खत्म करने की कोशिशें ज़रूर गिनाती है। लेकिन प्रदूषण है कि खत्म ही नहीं हो रहा। यह माना गया है कि प्लास्टिक बहुत घातक है। इसके फँस जाने से नालों, नहरों और नदियों में प्रवाह थम जाता है। सलाह दी जाती है शहरों का सीवेज ट्रीट करके ही नदी में डाला जाए और फैक्टरियों का गंदा रासायनिक पानी भी कायदे से ट्रीट किया जाए। नदी में पॉलीथिन, प्लास्टिक के बने जार, बोतलों को जाने से रोका जाए। कुल मिलाकर नगरों में प्रशासन और नमामि गंगे ने एक मुहिम ज़रूर छेड़ी है, पर शासकीय काम धीरे-धीरे ही होते हैं।
पिछले दिनों स्वीडन के राजा कार्ल गुस्ताफ फोल्के ह्यूबट्र्स और रानी सिल्विया ने उत्तराखंड की यात्रा की। उन्होंने ऋषिकेश और हरिद्वार में प्रदूषण से गंगा को मुक्त करने की प्रदेश सरकार के इरादे की तारीफ की। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने तो कहा कि यूरोप में राइन नदी की सफाई में 25 साल लगे थे। यहाँ गंगा जल्दी ही प्रदूषण मुक्त हो जाएगी।
इरादा बहुत अच्छा है। पर शर्त यह है कि असलियत को ज़मीन पर अमल में लाया जाए। गंगा स्वच्छता अभियान हरिद्वार-ऋषिकेश में महीने में औसतन दो बार ज़ोर तो पकड़ता ही है। हर की पौड़ी, कुम्भ मेला क्षेत्र और गलियों तक इसे सक्रिय देखते हैं। जो दूकानदार प्लास्टिक के बने बर्तन, बोतल और कैन आदि सजाकर बैठे होते हैं। अधिकारी, कर्मचारी वो सब दो-एक दूकानों से उतार लेते हैं। साथ में आये फोटो-ग्राफर तस्वीर ले लेते हैं और स्वच्छता अभियान की तस्वीरें स्थानीय और देहरादून के अखबारों में छपने के साथ ही खत्म हो जाता है। गंगा पहले की तरह प्रदूषित रहती है। हर की पौड़ी के एक दूकानदार अजय ने बताया कि उनकी और उनके परिवार की सात-आठ दशक से दूूकान यहीं है। लेकिन वे समझ नहीं पाते कि प्रदूषण मुक्त गंगा को करने में प्लास्टिक के बर्तनों के िखलाफ प्रशासन, नमामि गंगे आदि क्यों अभियान छेड़ते हैं। परम्परा है कि स्नान के बाद तीर्थयात्री अपने साथ गंगाजल ले जाते हैं। वे इसलिए अपनी सुविधा के लिए पात्र खरीदते हैं। वे गंगा में उसे फेंकते नहीं। फिर कभी प्रशासन ने प्लास्टिक के पात्रों का विकल्प हमें कभी नहीं सुझाया। एनजीटी ने अपनी बात में प्लास्टिक के कैन पर सहमति ज़रूर जतायी है; लेकिन प्रशासन दूकानदारों को परेशान करता है। व्यापारियों-दूूकानदारों के प्रतिनिधिमंडल, •िालाधिकारी, मेलाधिकारी से मिलते हैं; पर उनकी समस्या का कोई निदान नहीं हो पाता। हालाँकि एनजीटी ने 2 जुलाई, 2015 के अपने आदेश में लिखा है कि पूरे हरिद्वार और इसके चारों और आसपास भी प्लास्टिक का इस्तेमाल न किया जाए; क्योंकि इसका समुचित निस्तारन नहीं होता। यह शहर ही नहीं राज्य की सेहत के लिए भी हानिकारक है। लोग इसे इधर-उधर फेंकते हैं, जिससे नाले बंद हो जाते हैं, सीवेज प्रणाली में बाधा होती है। जानवर भी इसे खाकर अस्वस्थ होते हैं। एनजीटी ने सुझाया कि प्लास्टिक की प्लेट, चम्मच, ग्लास, बोतल, पालिथिन की बजाय पेपर बोर्ड का इस्तेमाल हो। गंगाजल के लिए प्लास्टिक केन का इस्तेमाल करें। लेकिन प्रशासन और नमामि गंगे के लोग उसे भी मंज़ूर नहीं करते और विकल्प भी नहीं सुुझाते। लगातार प्लास्टिक वस्तुओं के दूकानदार, व्यापारी, उत्पादन संगठन हरिद्वार और उत्तराखंड प्रशासन से पूछ रहे हैं कि तीर्थयात्री जब गंगाजल ले जाना चाहते हैं, तो प्लास्टिक की बजाय दूसरी किस वस्तु के बने टिकाऊ पात्र उन्हें उपलब्ध कराये जा सकते हैं? वे यह भी जानकारी चाहते हैं कि क्या हर की पौड़ी और कुम्भ मेला क्षेत्र में प्लास्टिक की बनी बोतलों, जारों, डिब्बों और कैन आदि बेचने पर कोई शासनादेश या निर्देश जारी हुआ। प्लास्टिक से बनी वस्तुओं के विकल्प में क्या शासन ने कभी कोई सलाह ज़रूरी समझी? जिसका उपयोग करके तीर्थयात्री को अपने साथ गंगाजल ले जाने में सहयोग किया जा सके। मातृसदन से जुड़े रहे बुजुर्ग संत शिवानंद ने बताया कि अभी ज़्यादा साल नहीं बीते, सिर्फ पाँच-छ: दशक पहले तक तमाम तीर्थयात्री और साधु-संत विभिन्न तरह के कमंडल और कलश का उपयोग गंगा-जल रखने में करते हैं। तीर्थयात्री भी गंगा का पवित्र जल रखने के लिए वे तरह-तरह के पात्र अपनी पसंद और आय के अनुरूप लेते थे। यहाँ तक कि जैन साधु भी कमंडल का उपयोग करते हैं। कमंडल कई तरह के होते हैं। ये मिट्टी के नारियल के खोल से और दक्षिण भारत में होने वाले कमंडलतरू पेड़ के बनते हैं। पहले ये पीतल और काँसा मिलाकर बनने वाली धातु से भी बनते थे। कमंडल बनाने में कुम्बी की लकड़ी का भी उपयोग होता है, जिससे बंदूकों के कुंदे, घरों में स्तम्भ आदि बनते हैं। कमंडल और कलश, गगरी आदि पीतल के और काँसे के बनते भी रहे हैं। जो मठों, मंदिरों और कुछ पुराने घरों में आज भी दिखते हैं। इन धातुओं में लकड़ी और मिट्टी से बने ऐसे पात्रों को फिर से बनाना चाहिए। जिन्हें तीर्थयात्री इस्तेमाल में लें सकते हैं। अपनी जेब और आवश्यकता के अनुरूप पात्र लेकर गंगाजल लेकर जा सकते हैं। सरकार को ऐसे पात्रों को बनाने के लिए उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
इससे गंगाजल का प्रदूषण कुछ तो थमेगा। सरकार की कोशिश है कि अगले कुम्भ तक गंगा में प्रदूषण काफी हद तक कम हो जाए। उत्तराखंड में गंगोत्री से गंगा का उद्गम स्थल है और वह स्थान साफ रहे, इसलिए से एनजीटी के आदेशों पर अमल की शुरुआत तो हो गयी है। उत्तराखंड गंगा और उसकी सहायक नदियों का भी उद्गम स्थल है। इसलिए यहीं से देश के बड़े हिस्सों में प्रवाहित होने वाली मंदाकिनी, अलकनंदा, यमुना नदियों के जल को सुरक्षित तरीके से प्रवाहित करने की विशेष •िाम्मेदारी यहाँ की जनता, उसकी प्रतिनिधि सरकार और यहाँ के प्रशासनिक अधिकारियों की है। ऋषिकेश और हरिद्वार दो ऐसे तीर्थस्थल हैं, जहाँ से गंगा में प्रदूषण की शुरुआत हो जाती है। उत्तर प्रदेश के विभिन्न नगरों से कई तरह के प्रदूषणों से दूषित गंगा कोलकाता के पास हुगली से मिलती हुई समुद्र में मिल जाती हैं। तकरीबन ढाई हज़ार किमी से भी लम्बी यात्रा करती है गंगा।
ऐसी जीवनदायिनी गंगा को साफ रखना खासा बड़ी चुनौती है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया। नमामि गंगे संस्थान की स्थापना की। अब विभिन्न राज्य सरकारों उनके प्रशासनिक अधिकारियों और जनता-जनार्दन का दायित्व है कि वे मिलकर गंगा को प्रदूषण मुक्त करें।