उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए जो प्रयास किए गए, उनको भुलाया नहीं जा सकता, उन घटनाओं पर गौर करने की आवश्यकता है, ताकि आज मौजूदा प्रशासन को पता लग सके कि इस प्रदेश का बनना कोई मामूली घटना नहीं थी। इसके पीछे कुर्बानियां थीं। इन कुर्बानियों को जाया नहीं जाना चाहिए, लेकिन आज तक प्रदेश को एक दूरदर्शी नेता की कमी खटकती है।
इतिहास पर नजऱ डालें तो पता चलता है कि इस राज्य के बनने की भूमिका भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक इकाई के रूप में उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में हो गई थी। इस अधिवेशन में उत्तराखंड के अधिकतर प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे। 1916 के सितंबर के महीने में गोविंद बल्लभ पंत, हरगोबिंद पंत, बद्री दत्त पाण्डेय, भेाला दत्त पाण्डेय और लक्ष्मी दत्त शास्त्री आदि उत्साही युवकों ने कुमाऊं परिषद की स्थापना की थी, इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखंड की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजना था।
1926 तक यह संगठन उत्तराखंड में स्थानीय सामान्य सुधारों की दिशा के अलावा निश्चित राजनैतिक उद्देेश्य के रूप में संगठनात्मक गतिविधियों में सक्रिय रहा। 1923 तथा 1926 के प्रंातीय परिषद के चुनाव में गोविन्द बल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, मुकुन्दी लाल तथा बद्री दत्त पाण्डेय ने विरोधियों को पराजित किया। इसके बाद 1926 में कुमाऊं परिषद का कांग्रेस में विलय हो गया। मई 1938 में गढ़वाल (श्रीनगर) में आयोजित कंाग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थिति के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया।
1940, 1954 और 1955 में इस पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा देने के बारे में विभिन्न प्रस्ताव आए।
1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टी.टी. कृष्णमाचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिए विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया। 12 मई 1970 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान, राज्य तथा केंद्र सरकार का दायित्व होने की घोषणा की। इसके फलस्वरूप 24 जुलाई, 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिए मसूरी में उत्तराखंड क्रांति दल की स्थापना की गई।
जून 1987 में कर्णप्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन ने उत्तराखंड के गठन के लिए संघर्ष का आह्वान किया। फिर 1987 में पृथक उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए नई दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन एवं हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की मांग की गई।
इस प्रकार 1994 में उत्तराखंड राज्य एवं आरक्षण को लेकर छात्रों ने सामूहिक रूप से आंदोलन किया। मुलायम सिंह यादव के उत्तराखंड विरोधी वक्तव्य से क्षेत्र में आंदोलन तेज हो गया। उत्तराखंड क्रंाति दल के नेताओं ने अनशन किया। उत्तराखंड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की मांग के समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे तथा उत्तराखंड में चक्का जाम और पुलिस फायरिंग की घटनायें हुईं। उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर मसूरी और खटीमा में पुलिस द्वारा गोलियां चलाई गईं। फिर संयुक्त मोर्चा के तत्वावधान में 2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया।
इस संघर्ष में भाग लेने के लिए उत्तराखंड से हजारों लोगों की भागीदारी हुई। प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आंदोलनकारियों को मुजफ्फर नगर में प्रताडि़त किया गया और उन पर गोलीबारी की और लाठियां बरसाईं तथा महिलाओं के साथ दुराचार और अभद्रता की गई। इनमें कितने ही लोग मारे गये और कितने ही घायल हुए। यह उत्तर प्रदेश सरकार द्वार की गई शर्मनाक घटना थी। इसको कोई भी उत्तराखंडी नहीं भुला सकता।
इस घटना ने उत्तराखंडियों के सम्मान को चोट पहुंचाई। इस घटना ने उत्तराखंड आंदोलन की आग में घी का काम किया। अगले दिन तीन अक्तूबर को उत्तराखंड बंद का ऐलान हुआ जिसमें तोडफ़ोड, गोलीबारी़ तथा अनेक मौते हुईं। सात अक्तूबर को देहरादून में एक महिला आंदोलनकारी की मृत्यु हो गई। इसके विरोध में आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर उपद्रव किया। 15 अक्तूबर को देहरादून में कफ्र्यू लग गया और उसी दिन एक आंदोलनकारी शहीद हो गया।
27 अक्तूबर, 1994 को देश के तत्कालीन गृहमंत्री राजेश पायलट की आंदोलनकारियों से वार्ता हुई। इसी बीच श्रीनगर के श्रीयंत्र टापू में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्ण प्रहार किया, जिसमे अनेक आंदोलनकारी शहीद हो गये। 15 अगस्त, 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने उत्तराखंड की घोषणा लाल किले से की।
1998 में केंद्र की भाजपा गठबंधन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तर प्रदेश विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा। उत्तर प्रदेश सरकार ने 26 संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवा कर केंद्र सरकार को भेजा। केंद्र सरकार ने 27 जुलाई, 2000 को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2000 को लोकसभा में प्रस्तुत किया जो पहली अगस्त, 2000 को लोकसभा में तथा 10 अगस्त 2000 को राज्यसभा में पारित हो गया। भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 28 अगस्त 2000 को अपनी स्वीकृति दे दी और इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में बदल गया और इसके साथ ही नौ नवंबर 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व में आया जो अब उत्तराखंड के नाम से अस्तित्व में है।
आज उत्तराखंड बने हुए 18 वर्ष हो गये हैं। प्रदेश युवा अवस्था में प्रवेश कर चुका है, लेकिन यह अंदर से खोखला हो चुका है। आत्म निर्भर होने की इसमें गुंजाइश ही नहीं दिख रही है। अपने पड़ोसी हिमाचल को ही ले लीजिए, इसने अपने 18 वर्षों में जो कर दिखाया वह सभी पर्वतीय प्रदेशों के लिए मिसाल है। लेकिन उसकी तुलना यदि हम उत्तराखंड से करें विकास की दृष्टि से तो लगता है, हमारे यहां शासन करने वालों के पास न कोई योजना थी और न ही इच्छा शक्ति सिर्फ प्रदेश के फंड को बगैर किसी ठोस योजनाओं के खर्च कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कहावत है बंदर के हाथ कपास। हो यही रहा है। जिसको गांव के पंचायत के सदस्य तक बनने की योग्यता नहीं है, वह प्रदेश का मंत्री और मुख्यमंत्री तक बने हैं। विकास की कोई दृष्टि उनके पास नहीं है। यदि इन गुजरे 18 वर्षों के पूरे खर्चे पर गौर करें तो बदले में कितना विकास मिला वह एक दम शून्य के बराबर है। इतना विकास तो उत्तर प्रदेश में रहते हुए ही हो जाता।
दूसरी ओर राजधानी बदलने और नई राजधानी बनाने का आलाप जो चल रहा है, उस पर किसी ने गौर किया कि कितना खर्च होगा, उन मौज मस्त लोगों के लिए जो प्रदेश को चलायेंगे। इतना पैसा वे किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगाते जिससे प्रदेश की जनता को फायदा होता तब तो कुछ समझ में आता। थोड़ा गौर करें राजधानी आपकी गैरसैण में शिफ्ट भी हो गई तो तब उन लोगों की कठिनाई का आभास है जो वहां राजधानी में किसी कार्य के लिए जाएंगे, और उन्हें वहां ठहरने की पर्याप्त सुविधा मिलेगी कि नहीं। उसके लिए आपने कौन सी टाउन प्लानिंग की है, की है तो कितने वर्ष आगे की सोच कर की है।
मुद्दे बहुत सारे हैं, उन्हें सिलसिलेवार दिया जा सकता है। अभी तो एक ज्वलंत समस्या को उठाना चाहता हूं, जिसकी ज़रूरत है। प्रदेश में विशेष कर पहाड़ों पर जो भूमि है, उसका कोई ठीक बंदोवस्त नहीं है। इसी के अभाव में सारे खेत बंजर होते चले जा रहे हैं। उनकी ठीक ढंग से देखभाल करने वाला नहीं है। इसी कारण बहुत सारे लोग पहाड़ छोड़ गये हैं। इसकी यदि सही ढंग से चकबंदी की होती तो कम से कम एक जगह में बैठ कर एक वृद्ध भी देखभाल कर लेता। उसके पास खेती तो है, लेकिन टुकड़ों में दूर दूर फैली हुई। उसको एक जगह पर मिलती तो उसकी देखभाल और उससे पैदा हुए कुछ उत्पादों का स्वयं उपभोग करता और अधिक मात्रा में होने पर उसको बेचकर अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता। यहां पर मेरा आशय इतना भर है कि एक छोटा सा गरीब परिवार भी कुछ पैदा करने की स्थिति में होता। इस पर किसी भी राजनेता की रचनात्मक सोच का अभाव झलकता है।
प्रदेश में भ्रष्टाचार इतना बड़ा मुद्दा है कि हर सीढ़ी पर आम आदमी किसी काम को बगैर दक्षिणा के नहीं कर सकता। दफ्तर के चपरासी से लेकर मंत्री तक पहुंचने की सीढ़ी में बगैर दिये कुछ हो ही नहीं सकता।
अभी जीता जागता उदाहरण मेरे सामने है। किस्सा हरिद्वार कनखल में जिस तरह राष्ट्रीय राजमार्ग पर दुकाने, मकान और झुग्गी झोंपडिय़ां हटाई गई हैं। उन्हें देख कर लगता है कि कहीं प्रशासन ही नहीं है। गाडिय़ों के जाने के रास्ते तक ठीक नहीं बने हैं मानो नगरी में प्रशासन ही नहीं है। कनखल की एक कालोनी की बिजली अचानक कटी। अब कहते हैं ट्रांसफामर लगाओ। चार महीने से फ्लैट में बिजली नहीं है। लोग सरकार और उनके आला अफसरों से बिजली की गुहार कर रहे हैं, पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है। यह दशा है मेरे प्रदेश उत्तराखंड की। यह तो एक छोटा सा वाकया है, पर उनके लिए जो वहां रह रहे हैं एक त्रासदी है। क्या ऐसा ही विकास उत्तराखंड में चल रहा है। जहां बिजली थी, वहां से उसे विस्थापित कर दिया। ऐसे न जाने कितने ही उदाहरण हैं।