सीबीआई की विशेष अदालत ने 21 जुलाई, 2020 को ‘तहलका’ के ‘ऑपरेशन वेस्ट एंड’ से रक्षा सौदों के भ्रष्टाचार मामले में तीन आरोपियों को दोषी करार दिया है। हमारे पास ऐसे संदेशों के आने का सिलसिला थम नहीं रहा, जिनमें कहा जा रहा है कि भारत में खोजी पत्रकारिता ने अपने आप को फिर से साबित किया है। यह स्टोरी एक बार फिर अखबारों, टेलीविजन चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सुॢखयों में है। तहलका के स्टिंग से निकले सच ने एक बार फिर साहसी पत्रकारिता, जिसके लिए हम हमेशा खड़े रहे हैं; और बहुत लोगों की तरफ से की जाने वाली प्रेस विज्ञप्तियों या जनसम्पर्क वाली पत्रकारिता के बीच के अन्तर को स्पष्ट कर दिया है। वास्तव में यह एक ऐसी खबर थी, जिसके लिए नैतिक साहस के साथ-साथ भयमुक्त और सार्वजनिक हित सोचने वाले दिमाग की आवश्यकता थी। और तहलका के संस्थापक संपादक तरुण जे. तेजपाल के पास यह सब था। मैं शायद तेजपाल को जानने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हूँ; क्योंकि हमने एक ही दिन इंडियन एक्सप्रेस के साथ अपनी पत्रकारिता की पारी शुरू की थी।
तहलका ने हमेशा प्रहरी के रूप में काम किया है। तमाम सरकारें रक्षा सौदों को गाय से भी ज़्यादा पवित्र पेश करने की कोशिश करती रही हैं और यह तहलका पर था कि वह झूठ की इस परत को उतार फेंके। यह तहलका स्टिंग ऑपरेशन वेस्ट एंड था, जिसने 2000-2001 में रक्षा खरीद सौदों में भ्रष्टाचार को उजागर किया और मार्च 2001 के मध्य में इसे सार्वजनिक किया। तब इस खुलासे ने राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया था। तहलका के इस सनसनीखेज स्टिंग ऑपरेशन के करीब 20 साल बाद समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली और दो अन्य को सीबीआई अदालत ने दोषी ठहराया है। अब इस मुद्दे में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने पर सच्चाई स्पष्ट हो गयी है और देश पत्रकारिता के प्रति आश्वस्त हुआ है। सीबीआई के विशेष न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट ने समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली, उनके पूर्व पार्टी सहयोगी गोपाल पचेरवाल और मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एस.पी. मुरगई को भ्रष्टाचार और आपराधिक साज़िश के लिए दोषी ठहराया है। जया जेटली पूर्व केंद्रीय रक्षा मंत्री, जॉर्ज फर्नांडीस की करीबी सहयोगी थीं। तहलका का ऑपरेशन वेस्ट एंड तब दुनिया भर में चर्चा में आया, जब इसकी सीडी सार्वजनिक की गयी। रक्षा मंत्रालय और रक्षा अधिकारियों के शीर्ष अधिकारियों को लंदन स्थित एक काल्पनिक फर्म वेस्ट एंड इंटरनेशनल के प्रतिनिधियों के रूप में पेश किये गये तहलका के पत्रकारों से उपहार और नकदी स्वीकार करते हुए देखा गया।
तहलका स्टिंग यह बात याद दिलाता है कि खोजी पत्रकारिता को अभी लम्बा रास्ता तय करना है। जनता को सच दिखाने वाले पत्रकार तब भी सत्ताधीशों और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के निशाने पर थे, और अब भी हैं; लेकिन पत्रकारिता की गरिमा को बनाये रखना परम् आवश्यक तथा इस पेशे का धर्म है। हाल ही में गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी, जो एक स्थानीय हिन्दी अखबार के साथ काम कर रहे थे; को नौ हमलावरों ने खुलेआम तब गोली मार दी, जब वह छोटी उम्र की अपनी दो बेटियों के साथ अपनी बहन के घर से लौट रहे थे। उन्हें गोली मारे जाने से चार दिन पहले ही जोशी ने पुलिस में एक शिकायत दर्ज करायी थी; लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। इस हत्या की स्याही सूखी भी नहीं थी कि एक अन्य पत्रकार को मध्य प्रदेश के निवारी में पहले पीटा गया और फिर वाहन से कुचलकर मार डाला गया। पत्रकार ने कुछ महीने पहले फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने अपने जीवन के प्रति खतरे की आशंका जतायी थी। सवाल यह है कि अपराध और काले कारनामों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों की तरह क्या राजनेताओं, पुलिस और प्रशानिक अधिकारियों को कभी अपनी जवाबदेही समझ में आयेगी?