प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 जुलाई को अपने मंत्रिमंडल का अब तक का सबसे बड़ा विस्तार और फेरबदल किया। 8 जुलाई को टीवी चैनलों पर नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया के कामकाज सँभालने की ख़बर बार-बार प्रसारित हो रही थी। नये स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया के माथे पर तिलक लगाने वाले व पूजा-अर्चना करने वाले पंडित पुरुष थे। वैसे मुझे ऐसे दृश्यों में किसी महिला पंडित को पूजा-अर्चना कराने वाला दृश्य याद नहीं आ रहा।
क़रीब चार महीने पहले यानी इसी फरवरी को एक ख़बर ने सुर्ख़ियाँ बटोरी थीं; और इस ख़बर के साथ जो तस्वीर छपी थी, उसमें देश की फ़िल्मी अदाकारा दीया मिर्ज़ा की शादी सम्पन्न कराने वाली महिला पंडित शीला अट्टा को भी ख़ासा स्पेस दिया गया था। इस सनातन (हिन्दू) शादी को सम्पन्न कराने वाली महिला पंडित शीला अट्टा का दीया मिर्जा के अभिभावकों ने ट्वीट के ज़रिये धन्यवाद किया और लिखा- ‘प्तराइज अप प्तजेनरेशन इक्यूलिटी’।
देश में महिला पंडित बहुत कम नज़र आती हैं। यहाँ पर लैंगिक पूर्वाग्रह की जड़े बहुत-ही मज़बूत हैं। ऐसे परिदृश्य में हाल में तमिलनाडु राज्य से एक सुखद ख़बर पढऩे को मिली। द्रमुक सरकार के धार्मिक और धर्मार्थ सहायता विभाग के मंत्री शेखर बाबू ने कहा कि जो महिलाएँ मंदिरों में पुजारी बनना चाहती हैं, वे आवेदन कर सकती हैं। इसके लिए उन्हें सरकार की तरफ़ से ज़रूरी शिक्षा और प्रशिक्षण भी दिया जाएगा। सरकार महिलाओं के लिए ट्रेनिंग कोर्स ऑफर करेगी और फिर उनकी धार्मिक और धर्मार्थ सहायता विभाग के तहत आने वाले मंदिरों में नियुक्ति की जाएगी। जैसे ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन इस पर अपनी सहमति की औपचारिक मुहर लगाते हैं, वैसे ही काम शुरू हो जाएगा। तमिलनाडु सरकार अर्चफर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रंगनाथन के मुताबिक, यह ऐलान और कुछ नहीं, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि के विचार को आगे ले जाना है; जो सभी मोर्चों पर जाति की बाधाओं को तोडऩा चाहते थे। मंत्री ने यह भी कहा कि ग़ैर-ब्राह्मणों को भी मंदिरों में पंडित बनाया जाएगा। राज्य मंत्री शेखर बाबू की यह घोषणा कि पुजारी पद के लिए महिलाएँ व ग़ैर-ब्राहमण भी आवेदन कर सकते हैं, स्वागत योग्य है। इसके लिए आवेदन करने वाली महिलाओं को अगम शास्त्र का ज्ञान होना ज़रूरी है। जो महिलाएँ पुजारी बनने की इच्छुक हैं और उन्हें अगम शास्त्र का ज्ञान नहीं है, तो सरकार उन्हें यह ज्ञान हासिल करने में मदद कर सकती है। अगम शास्त्र, ग्रन्थ पूजा-पाठ व धर्म-कर्म सम्बन्धी अनुष्ठानों की संहिता है। तमिलनाडु राज्य के भाजपा अध्यक्ष एल. मुरुगन ने राज्य सरकार की इस घोषणा का स्वागत करते हुए कहा है कि पुराने समय से ही सभी जातियों के लोग, पुरुष व महिलाएँ तमिलनाडु में पुजारी रहे हैं। पुराने समय से से ही महिलाओं को अगम शास्त्र का अच्छा ज्ञान रहा है। मुरुगन ने यह भी कहा कि भाजपा ने सरकार से यह सुनिश्चित करने का भी आग्रह किया है कि जिन लोगों को पुजारी के रूप में नियुक्त किया जाए, उन्हें सम्बन्धित मंदिरों में उपयोगी अगम शास्त्र का उचित ज्ञान और समझ हो। महिलाओं को पंडित / पुरोहित बनाने के लिए प्रोत्साहित करने वाली तमिलनाडु सरकार की सोच प्रगतिशील है और यह लैंगिक रूढि़वादी, पितृसत्तामक समाज में बदलाव लाने की प्रतीक है। राज्य सरकार की ओर से पुरुषों के एक और क़िले को कमज़ोर करने की दिशा में आगे बढऩा बहुत कुछ कहता है। दरअसल दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की मद्रास हाईकोर्ट ने सन् 2008 में अपने एक फ़ैसले में महिला पुजारी के हक़ में फ़ैसला सुनाकर महिलाओं के लिए राह आसान कर दी थी। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2004 में जब मदुरै के नल्लूथेवनपट्टी गाँव में स्थित दुर्गा मंदिर के पुजारी जब बीमार हुए, तो वह पूजा करने की हालत में नहीं थे। ऐसे में उनकी इकलौती बेटी पिन्नियाकाल ने पिता की तमाम ज़िम्मेदारियाँ निभानी शुरू कर दीं। मंदिर में पूजा-अर्चना, सारे धार्मिक अनुष्ठान वह ही करने लगीं।
सन् 2006 में उसके पुजारी पिता की मौत हो गयी, तो बेटी पिन्नियाकाल ने पूर्ण पुजारी बनने का दावा पेश किया। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उनके इस दावे के पीछे आधार यही था कि पुजारी के परिवार के लोग ही वंशानुगत पुजारी बनेंगे। लेकिन गाँव वालों को पिन्नियाकाल का यह दावा रास नहीं आया और उन्होंने यह कहकर विरोध करना शुरू कर दिया कि पुजारी तो कोई पुरुष ही बन सकता है; न कि स्त्री। पिन्नियाकाल ने हार नहीं मानी और अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। सन् 2008 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के. चंदू ने अपने फ़ैसले में कहा कि ईश्वर की वेदियाँ लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होनीं चाहिए। यह विडम्बना है कि जब मंदिर की पीठासीन देवियाँ भी महिला ही हैं, तो ऐसे मंदिरों में पूजा करने में एक महिला के ख़िलाफ़ आपत्ति क्यों जतायी जा रही है? न तो क़ानून का ऐसा कोई प्रावधान है और न ही कोई योजना, जो महिलाओं को मंदिरों में पुजारी बनने पर रोक लगाती हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस दलील का कोई क़ानूनी आधार नहीं है कि केवल एक पुरुष ही मंदिर का पुजारी हो सकता है।
दरअसल सभी धर्मों में महिला पुरोहितों के महत्त्व को कम करके आँकना सही नहीं है। सरकारों तथा मानव समाज को महिलाओं को इस पेशे को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और उनकी मदद भी करनी चाहिए। वे रूढ़ परम्पराओं की परिवर्तक साबित हो सकती हैं। उनके अन्दर सीखने और काम करने की क्षमता मौज़ूद है। कई ऐसे संस्थान हैं, जो महिलाओं को पुरोहिताई का प्रशिक्षण देते हैं। पुणे का जनाना प्रबोधिनी ऐसा ही पुराना संस्थान है। इसका एक विभाग महिलाओं तथा पुरुषों को पंडित बनने का प्रशिक्षण देता है। एकल, विधवा, तलाक़शुदा और नि:सन्तान महिलाओं को यहाँ पढऩे के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इनमें से अधिकांश महिलाओं को पारम्परिक समाज बराबरी के तौर पर न तो देखता है और न ही उचित मान-सम्मान देता है। महिलाओं को उनकी जैविक संरचना के आधार पर पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठान करने से मना करना शास्त्रों की ग़लत व्याख्या करना है।
जादवपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत की प्रोफेसर नंदिनी भौमिक क़रीब 10 साल से अपनी महिला पंडित टीम के साथ शादियाँ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठान करा रही हैं। नंदिनी और उसकी टीम ऐसे मौक़ों पर मंत्रों का उच्चारण नहीं करती, जिनसे समाज में यह सन्देश जाए कि महिला तो समाज में उपभोग की वस्तु है। इसी तरह मैसूर में महिला पुजारी बरहमरांमबा माहेश्वरी सन् 1995 से यही कर रही हैं। उन्होंने अब तक 2000 से अधिक शादियाँ सम्पन्न करायी हैं। उन्होंने सन् 1988 में वैदिक अध्ययन की पढ़ाई की और उनके मन में यह सवाल परेशानी पैदा करता था कि महिलाएँ धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न कराने वाला व्यवसाय क्यों नहीं अपना सकतीं?
पंडित माहेश्वरी का कहना है कि आज कई दम्पति महिला पंडितों को बुलाकर दूसरों के समक्ष एक मिसाल पेश कर रहे हैं। कई युवा कामकाजी महिलाएँ अपनी शादी के लिए महिला पंडितों को बुलाना पसन्द करती हैं और उन्हें बताती हैं कि व्यर्थ के रस्म-ओ-रिवाज़ उन्हें नहीं निभाने। कई महिला पंडित समाज सुधारक की भूमिका में भी खड़ी नज़र आना चाहती हैं। धार्मिक अनुष्ठानों के लिए गूगल पर की गयी खोजें बताती हैं कि सन् 2016 में वेंडिंग प्लानिंग वेबसाइट्स पर हर महीने 10 में से एक खोज महिला पंडित के लिए होती थी। वहीं 2020 में महिला पंडितों के लिए हर महीने 200 बार खोजा गया।
लेकिन क्या एक महिला पंडित अपने मासिक धर्म के दौरान धार्मिक अनुष्ठान करा सकती है? ऐसे सवालों पर अधिकतर धार्मिक हस्तियों का जवाब नकारात्मक ही देखने को मिलता है और इसी प्रवृत्ति की झलक तमिलनाडु के राज्य मंत्री शेखर बाबू के एक जवाब में दिखायी दी। जब उनसे सवाल किया गया कि क्या महिला पंडितों वाले आपके विचार को सामाजिक स्वीकृति मिलेगी? तो उन्होंने कहा कि मासिक धर्म के दौरान अनुष्ठानों से दूर रहने के लिए महिलाओं के वास्ते पाँच दिन की छुट्टी भी शामिल है। यहाँ पर प्रसंगवश केरल के सबरीमाला मंदिर का ज़िक्र किया जा रहा है; जहाँ पर मासिक धर्म की आयु वर्ग वाली महिलाओं के प्रवेश प्रतिबन्धित था। कई नारीवादी और समाज सुधारक संगठनों ने बराबर इसका विरोध किया। सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ साल पहले ऐसी पाबंदी के विरोध में फ़ैसला सुनाया था; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त हम सब जानते हैं। केरल जैसे प्रगतिशील राज्य में भी महिलाओं पर ऐसी धार्मिक बंदिशें बताती हैं कि धार्मिक बदलाव के लिए राजनीतिक दलों को जोखिम लेना चाहिए, मगर केरल में यह राजनीतिक जोखिम दिखायी नहीं दिया।
केरल सरकार के क़रीब 2000 मंदिरों पर प्रशासनिक नियंत्रण वाले राज्य देवास्वोम बोर्ड ने ऐसे मंदिरों में महिला पंडितों की नियुक्ति पर विचार किया और महिलाओं को इसके लिए आवेदन करने हेतु भी अपील की; मगर किसी भी महिला ने नियुक्ति के लिए आवेदन नहीं किया। जहाँ से इस आलेख की शुरुआत की, उसी बिन्दु पर लौटते हुए यह कहना बहुत ज़रूरी लग रहा है कि महिलाओं में पेशेवर पुरोहित / पंडित बनने की क्षमता है। लेकिन अगर महिलाओं को पुरोहित / पंडित के रूप में अधिक-से-अधिक संख्या में देखना है, तो इसके लिए सरकारों को सबसे आगे आना होगा। महिलाएँ धार्मिक स्थलों पर तो उल्लेखनीय तादाद में नज़र आती हैं, मगर धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न कराने में बहुत कम दिखायी देती हैं। नागारिक समाज की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि वह भी लैंगिक पूर्वाग्रह से आगे बढ़े और महिला पंडितों को अधिक-से-अधिक मौक़े देकर उनकी उपस्थिति का गहरा अहसास कराये।