हाल में केरल जैसे प्रगतिशील राज्य में बलि के नाम पर एक दम्पति द्वारा कथित तौर पर एक तांत्रिक के साथ मिलकर दो महिलाओं की हत्या वाली ख़बर ने एक बार फिर याद दिला दिया कि विकास के बड़े-बड़े दावों के बावजूद अभी भी इस समाज में तंत्र-मंत्र, जादू-टोना जैसी तांत्रिक क्रियाएँ अपनी जगह बनाये हुए हैं। क्या इस वैज्ञानिक युग में सोच सकते हैं कि कोई इंसान किसी दूसरे इंसान की बलि दे सकता है? पुलिस का कहना है कि इस मामले में जिन तीन आरोपियों को गिरफ़्तार किया गया है, उन्होंने इन महिलाओं की हत्या जादू-टोना के लिए तंत्र क्रियाओं के तहत की। आरोपियों को भरोसा था कि यदि वे मानव बलि देंगे, तो उनकी आर्थिक हालत बहुत अच्छी हो जाएगी। केरल की रोजलिन और पद्मा नामक दोनों महिलाएँ, जिनकी बलि दी गयी; लॉटरी बेचने का काम करती थीं। दोनों ही इसी साल जून और सितंबर माह में लापता हुई थीं। पुलिस ने जब उनके लापता होने की जाँच शुरू की, तो पता चला कि इन दोनों का अपहरण करने के बाद उनकी मानव बलि दी गयी।
बहरहाल इस ख़बर ने केरल की सत्ताधारी वामपंथी सरकार पर भी सवालिया निशान लगा दिये हैं। वहाँ ऐसी अंधविश्वासी प्रथाओं पर रोक लगाने के लिए और इस सन्दर्भ में मौज़ूदा क़ानूनों के कड़ाई से अमल करने की माँग उठी है। सीपीएम पार्टी के सदस्यों ने इस घटना पर शोक व्यक्त किया और कहा कि पार्टी मानव की आत्मा को झकझरोने वाली इस घटना की निंदा करती है।’
मौज़ूदा क़ानूनों के कड़ाई से अमल करने के अलावा यदि ज़रूरी हुआ, तो एक नये क़ानून पर भी विचार किया जा सकता है। ग़ौरतलब है कि देश में अंधविश्वास, काला जादू, जादू-टोना या मानव बलि से निपटने के लिए कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है। काला जादू के नाम पर किसी भी नागरिक के प्रति किया गया अपराध उसके मूल अधिकार का उल्लघंन है और संविधान के अनुच्छेद-14,15 और 21 का उल्लघंन करता है।
दरअसल देश के अलग-अलग हिस्सों से समय-समय पर मानव बलि की ख़बरें, जादू-टोना से जुड़ी ख़बरें पढऩे सुनने को मिलती रहती हैं। बीते दिनों गुज़रात के जूनागढ़ में एक पिता पर 14 साल की बेटी की हत्या का आरोप लगा और पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया है। पिता पर धन और पुत्र प्राप्ति की लालसा में बेटी को बलि देने का सन्देह है। दो साल पहले कानपुर की छ: साल की एक बच्ची भी मानव बलि का शिकार बन गयी। कानपुर के एक दम्पति की ख़ुद की सन्तान नहीं थी। पति-पत्नी दोनों दु:खी रहते थे, उन्हें किसी तांत्रिक ने बच्चे होने का यह उपाय बताया कि वह किसी मानव की बलि देंगे, तो सन्तान प्राप्ति होगी। दम्पति ने इस अंधविश्वास के फेर में गाँव से एक छ: साल की बच्ची का अपहरण करवाया और फिर उसकी बलि दे दी। इसी तरह विदिशा (बिहार) में एक नव-विवाहित पति-पत्नी के आपसी झगड़े का फायदा उठाते हुए एक तांत्रिक ने झाड़-फूँक के नाम पर महिला से दुष्कर्म कर दिया। महिलाओं से तांत्रिकों द्वारा दुष्कर्म के ऐसे मामले हर महीने कहीं-न-कहीं सुनने, पढऩे को मिलते हैं।
दरअसल धर्म, आस्था, तर्क इंसान को गढऩे में कितना योगदान देते हैं। इस पर मतभिन्नता हो सकती है; लेकिन अंधविश्वास, जादू-टोना, काला जादू की इस वैज्ञानिक युग में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। मानव की विकास यात्रा से भी यही सन्देश मिलता है। लेकिन कई कट्टरवादी आज भी अंधविश्वास, जादू-टोने में आस्था वाली अवधारणा को कमज़ोर होते नहीं देखना चाहते और इसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वालों को अपना घोर दुश्मन मानने लगते हैं। वे अंधविश्वास के ख़िलाफ़ सोचने वाली मानसिकता को नास्तिकता से जोडक़र देखने के आदी हो गये हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि धर्म, आस्था एक निजी मामला है; लेकिन मानव बलि का धर्म व आस्था में कोई स्थान नहीं। अंधविश्वासी लोगों का ख़ेमा वैज्ञानिकों व तर्कवादियों को समय-समय पर अपने तरीकों से चुनौती देने का दुस्साहस करता रहता है। सन्दर्भवश ज़िक्र किया जा रहा है- डॉ. नरेंद्र दाभोलकर का। पुणे के 71 वर्षीय डॉ. नरेंद्र दाभोलकर प्रसिद्ध तर्कवादी थे और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे थे। और काला जादू जैसे तंत्र-मंत्र को एक क़ानून के तहत प्रतिबन्धित करने के मक़सद से कई वर्षों से महाराष्ट्र सरकार पर दबाव बना रहे थे। वह महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक व अध्यक्ष थे।
20 अगस्त, 2013 को उनकी हत्या कर दी गयी। उनकी हत्या के बाद देश भर में उमड़े रोश के मद्देनज़र महाराष्ट्र सरकार ने काला जादू, अंधविश्वास और तंत्र-मंत्र के निर्मूलन के लिए लम्बे समय से लम्बित विधेयक को एक अध्यादेश की शक्ल में लाने का ऐलान कर दिया था। यह एक सामाजिक बुराई है और इसकी ज़द में अधिकतर महिलाओं व बच्चों को निशाना बनाया जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड शाखा की सन् 2021 रिपोर्ट के देश में जादू-टोना के 68 मामले दर्ज किये गये। सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में 20 मामले व उसके बाद मध्य प्रदेश में 18 दर्ज किये गये। महिलाओं को डायन, चुडै़ल, टोनही कहकर समाज में बदनाम करने की परम्परा बहुत पुरानी है। ऐसी महिलाएँ जो अकेली होती हैं, विधवा होती हैं; उन्हें समाज का बहुत बड़ा तबक़ा कमज़ोर महिला के तौर पर आँकता है और कई मर्तबा उनकी जायदाद पर क़ब्ज़ा करने के लिए उनके ख़िलाफ़ साज़िश रचता है। कुछ लोग उनकी छवि को बुरी आत्मा के तौर पर प्रचारित करके बहुत कुछ हासिल करने के चक्कर में लगे रहते हैं। गाँव, दूर-दराज़ इलाक़ों व शहरों की भी कुछ बस्तियों में भी अगर कोई लम्बे समय तक बीमार रहता है, तो उसके इलाज के लिए अभिभावक, रिश्तेदार अंधविश्वास का सहारा लेते हैं। तांत्रिकों के पास जाते हैं और जादू-टोना को असली सच स्वीकार कर लेते हैं। महिलाओं, बच्चों को इससे संरक्षण प्रदान करने व इस धंधे में शामिल लोगों को दण्डित करने की मंशा से देश के कई राज्यों ने इसके ख़िलाफ़ क़ानून भी बनाये हैं। मसलन बिहार ऐसा पहला राज्य है, जिसने यह क़ानून बनाकर दूसरे राज्यों के सामने एक मिसाल क़ायम की।
सन् 1999 में बिहार राज्य में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम-1999 क़ानून लागू किया गया। यह अधिनियम कहता है कि इसकी मंशा जादू-टोने की प्रथाओं को रोकने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाना है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति किसी भी महिला की डायन के रूप में पहचान करता है, उसे दण्डित करना और जैसा कि ऐसी घटनाएँ अधिकतर आदिवासी इलाक़ों में व राज्य के दूसरे इलाक़ों में होती हैं और समाज के द्वारा महिलाओं को दी जाने वाली यातनाओं व हत्याओं को ख़त्म करना है। इसके तहत डायन ऐसी महिला के लिए पारिभाषित किया गया है, जिसके बारे में समाज की राय थी कि उस महिला के पास दूसरों को नुक़सान पहुँचाने वाली शक्तियाँ हैं और वह काला जादू, बुरी नज़र या मंत्र के ज़रिये दूसरों को हानि पहुँचा सकती है। जो महिलाओं को डायन के तौर पर प्रचारित करते हैं, उनके लिए इस अधिनियम में जेल की अवधि तीन महीने की है और 1,000 रुपये का आर्थिक दण्ड का प्रावधान भी किया गया है।
बिहार की तर्ज पर सन् 2001 में झारखण्ड राज्य डायन प्रथा प्रतिषेध क़ानून लागू किया। छत्तीसगढ़ ने 2002 में टोनही प्रताडऩा निवारण अधिनियम लागू किया। इस राज्य में डायन को टोनही कहा जाता है। किसी की भी टोनही के रूप में पहचान करने चाले इंसान की सज़ा की अवधि बढ़ाकर तीन साल की जा सकती है। इसके अलावा प्रताडऩा करने की सूरत में कठिन सज़ा की अवधि पाँच साल है। इसके साथ ही तंत्र-मंत्र से किसी का इलाज करना व पशुओं को नुक़सान पहुँचाने वाले कामों को भी दण्डनीय माना गया है। राजस्थान, असम, ओडिशा, कर्नाटक, महाराष्ट्र में भी ऐसे क़ानून लागू है। राजस्थान के ऐसे क़ानून के तहत अपराधी के लिए न्यूनतम सज़ा तीन साल व अधिकतम सात साल या 50,000 रुपये का आर्थिक दण्ड का प्रावधान है।
कुछ राज्यों ने जब ये क़ानून बनाये, तो राजनीतिक विरोधी दलों व कुछ धार्मिक संगठनों ने इसका विरोध किया। आलोचकों ने इसे धार्मिक आज़ादी में सरकारी दख़लंदाज़ी बताया। अर्थात् इस सामाजिक बुराई में भी सियासत अपना रंग दिखाने से बाज़ नहीं आता। जहाँ तक ध्यान देने वाली बात यह है कि केंद्रीय स्तर पर अभी कोई क़ानून पारित नहीं हुआ है। सन् 2016 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से तत्कालीन सांसद राघव लखन पाल ने द प्रिवेंशन ऑफ विच हंटिंग बिल-2016 को लोकसभा में पेश किया था। इसमें एक महिला को समाज डायन क्यों मानता है? उन कारणों के साथ ही पुनर्वास और सरकार के द्वारा चलाये जाने वाले जागरूकता कार्यक्रमों का ज़िक्र किया गया था। लेकिन इस बिल पर चर्चा करने के लिए आज तक कोई विचार नहीं किया गया।