दो लाख करोड़ रु का कोयला घोटाला जिस तरह हुआ वह बताता है कि एक ढुलमुल और अप्रभावी नेतृत्व भी देश के लिए उतना ही नुकसानदेह हो सकता है जितना कोई भ्रष्ट नेतृत्व. आशीष खेतान की रिपोर्ट.
भ्रष्टाचार पर इन दिनों जो बहस चल रही है उसका एक अहम पहलू प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन भी है. सर्वोच्च न्यायालय से लेकर नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) और सिविल सोसाइटी तक सभी ने यूपीए सरकार की इस बात के लिए आलोचना की है कि उसने 2जी स्पेक्ट्रम, खनिज और जमीन जैसे अमूल्य संसाधन कौड़ियों के भाव निजी कंपनियों को सौंप दिए. सबसे पहले कैग ने यह भंडाफोड़ किया था कि जनहित को परे रखकर किस तरह चुनिंदा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए दूरसंचार नीति को मनमुताबिक तोड़ा-मरोड़ा गया. अब कैप्टिव कोल ब्लॉक आवंटन पर उसकी एक नई रिपोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक इससे सरकारी खजाने को डेढ़ से दो लाख करोड़ रु तक का नुकसान हुआ है.
राजनीतिक रूप से देखा जाए तो यूपीए के लिए कोयला घोटाले के मायने 2जी घोटाले से कहीं बड़े हैं. इससे पिछली यूपीए सरकार में करीब साढ़े तीन साल तक कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही संभाली थी. मंत्रालय में जूनियर यानी राज्य मंत्री की कुर्सी भी कांग्रेस के पास रही. फिर भी प्रधानमंत्री कोल ब्लॉक आवंटन के लिए प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी (जिसमें सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को ही खनन का ठेका मिलता है) की नीति लाने में विफल रहे. वह भी तब जब प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर ही उन्होंने इस नीति के लिए सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी थी.
देखा जाए तो कोयला घोटाले की यह कहानी कई मायनों में यूपीए सरकार की कहानी भी है. यह दिखाती है कि कैसे एक ढुलमुल और अप्रभावी राजनेता देश के लिए उतना ही नुकसानदेह हो सकता है जितना कोई भ्रष्ट नेता. प्रधानमंत्री की नीयत भले ही अच्छी रही हो मगर चूंकि वे सिर्फ नाम भर के प्रधानमंत्री थे इसलिए एक पारदर्शी और निष्पक्ष कोयला नीति लाने के लिए उनके हर कदम पर उन्हीं की सरकार के कुछ लोग अड़ंगा डालते रहे और वे ऐसे हर मौके पर दृढ़ता दिखाने के बजाय दूसरी तरफ देखते नजर आए.
लेकिन इससे पहले कि हम कहानी के विस्तार में जाएं, कोयला घोटाले से जुड़े कुछ तथ्य.
यह प्रस्ताव तो 2004 में ही बन गया था कि खनन के लिए कोयले के ब्लॉक यूं ही आवंटित करने के बजाय इनकी नीलामी की जाए. लेकिन इस दौरान तीन बार कोयला मंत्रालय की कमान संभालने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन और कोयला राज्य मंत्री डी नारायण राव हमेशा राह में अडंगा लगाते रहे. जब भी इस मामले पर कोई प्रगति होती, ये दोनों मिलकर इसे किसी न किसी बहाने से टाल देते. राव तो कांग्रेस के ही थे मगर इस मुद्दे पर उन्होंने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के बजाय सोरेन का साथ दिया. पिछले छह साल के दौरान कोल ब्लॉकों की नीलामी के लिए प्रधानमंत्री के निर्देशों पर बने एक कैबिनेट नोट के मसौदे में छह बार बदलाव किया गया. ऊपरी तौर पर यह दिखाया गया कि इसका मकसद उनकी चिंताओं का भी ख्याल रखना है जो नीलामी के पक्ष में नहीं हैं. लेकिन जब भी नोट में कोई सुधार किया जाता तो इसके फौरन बाद ही नई आपत्तियां भी पेश कर दी जातीं.
दिलचस्प बात यह है कि नीलामी के जरिए कोल ब्लॉक आवंटन का विरोध करने वालों में उस समय भाजपा शासित राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ व माकपा शासित प. बंगाल की सरकारें (अगले पृष्ठ पर बॉक्स देखें) भी थीं. राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस प्रस्तावित नीति से अपना विरोध जताया था. आज भाजपा और माकपा, दोनों ही स्क्रीनिंग कमेटी सिस्टम के जरिए कोल ब्लॉकों का आवंटन करने पर यूपीए सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. इन दोनों दलों का दोहरा रवैया बताता है कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले पूंजीवाद का घुन सिर्फ कांग्रेस को नहीं लगा है. फिर भी चूंकि सरकार यूपीए की थी इसलिए नीतिगत मोर्चे पर इस असफलता के लिए जिम्मेदारी उसकी ही बनती है.
दूसरे खनिजों से अलग कोयला संघीय सूची का विषय है. यानी इस मामले में फैसले का सारा अधिकार केंद्र सरकार का ही होता है. लेकिन हैरानी की बात है कि यूपीए के भीतर बैठे तत्वों ने नीलामी नीति को टालते रहने के लिए वसुंधरा राजे जैसी शख्सियतों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का सहारा लिया जबकि राजस्थान में कोयले का कोई ज्ञात भंडार भी नहीं है. ऐसा करते हुए इस तथ्य की भी उपेक्षा की गई कि कोयला उत्पादक राज्यों में से ज्यादातर को इस नीति पर कोई एतराज नहीं था. यही नहीं, केंद्र के कई मंत्रालय भी इस नीति के पक्ष में थे. प्रस्तावित नीलामी नीति की फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय, कोयला मंत्रालय और कानून मंत्रालय में चक्कर काटती रही, लेकिन इसे 2009 तक कैबिनेट के सामने नहीं रखा गया. 2010 में जाकर इस नीति पर मुहर लगी, लेकिन तब भी नीलामी के नियम क्या होंगे, इस पर फैसला होना बाकी था. इसलिए नई नीति आने के बाद भी स्थिति यह है कि अब तक एक भी कोल ब्लॉक का आवंटन नीलामी के जरिए नहीं हुआ है.
यानी जिस कवायद में ज्यादा से ज्यादा छह महीने लगने चाहिए थे वह छह साल खिंच गई. बल्कि कहें तो खींची गई. 2004 में जब यूपीए की पहली सरकार बनी तो इसके कुछ समय बाद ही कोयला मंत्रालय में तत्कालीन सचिव पीसी परख ने प्रधानमंत्री को बताया कि कोल ब्लॉक आवंटन की प्रचलित व्यवस्था में कई झोल हैं. तब आवंटन एक स्क्रीनिंग कमेटी के जरिये होता था. इस कमेटी का अध्यक्ष कोयला मंत्रालय का सचिव होता था और इसमें कई मंत्रालयों, सरकारी निगमों और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होते थे. परख ने प्रधानमंत्री को बताया था कि यह व्यवस्था मनमानी, अपारदर्शिता और भ्रष्टाचार से भरी हुई है. इसके अलावा उनका यह भी कहना था कि कोयले की उत्पादन लागत और कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा सप्लाई किए जा रहे कोयले की कीमत में काफी फर्क है जिसका नतीजा उन लोगों को अप्रत्याशित लाभ के रूप में सामने आ रहा है जिनके पास कोल ब्लॉक हैं.
परख के इस नीति का तीखा विरोध करने के बाद यूपीए ने 2004 में ही नीलामी नीति का एलान किया था. मगर यह अगले छह साल तक भी अमल में नहीं आ सकी. हां, नई नीति के ऐलान का नतीजा यह जरूर हुआ कि 2004 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक पाने के लिए भगदड़ मची रही. 2जी घोटाले की पड़ताल बताती है कि उन लोगों ने भी स्पेक्ट्रम खरीद लिया था जिनका मकसद दूरसंचार सेवा देना नहीं बल्कि यह था कि बाद में इस स्पेक्ट्रम को महंगी कीमत पर बेचकर खूब मुनाफा बटोर लिया जाए. कोल ब्लॉकों के आवंटन में भी ऐसा हुआ. निजी ऑपरेटरों ने कई कोल ब्लॉक आवंटित करवा लिए. ये कंपनियां अच्छी तरह जानती थीं कि जो ब्लॉक अभी उन्हें कौड़ियों के दाम मिल रहे हैं, नीलामी नीति के आने पर उनकी कीमत बाजार के हिसाब से तय होगी यानी कई गुना बढ़ जाएगी.
यह भी हैरत की बात है कि 2004 से 2009 की इस अवधि में यूपीए एक तरफ तो नीलामी नीति को टाले जा रहा था और दूसरी तरफ वह दनादन कोल ब्लॉक आवंटित किए जा रहा था. पांच साल में ही 155 कोल ब्लॉक, जिनमें अरबों टन कोयला मौजूद है, उनके वास्तविक बाजार भाव की तुलना में कौड़ियों के दाम आवंटित कर दिए गए. इनमें से 76 निजी कंपनियों को दिए गए थे और बाकी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को. आगे हम देखेंगे कि जिन हालात में यह काम हुआ वे साफ इशारा करते हैं कि ऐसा करने के पीछे नीतियां बनाने वालों और कोयले के ब्लॉक पाने वाले प्रतिष्ठानों की एक सुनियोजित साजिश थी.
80 फीसदी से भी अधिक आवंटियों ने अब तक अपने ब्लॉकों से कोयला उत्पादन शुरू नहीं किया है. इससे एक अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है. एक तरफ तो सरकार ने इन ब्लॉकों के आवंटन में असाधारण फुर्ती दिखाई और दूसरी तरफ उसने यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ खास नहीं किया कि आवंटी कोयला उत्पादन करना शुरू कर दें. अब जाकर सरकार ने एक कमेटी बनाई है जो यह देखेगी कि कितने आवंटी ऐसे हैं जिन्होंने जान-बूझकर यह देरी की और कितने ऐसे जो जमीन अधिग्रहण या अपनी खनन योजना के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति न मिलने की वजह से काम शुरू नहीं कर सके. गौरतलब है कि धड़ाधड़ कोल ब्लॉक आवंटन के पीछे सरकार का सबसे बड़ा तर्क यही था कि इससे घरेलू कोयला उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी होगी.
कैग ने अपनी रिपोर्ट का जो मसौदा तैयार किया था उसमें कहा गया था कि इस तरह के आवंटन से सरकारी खजाने को कुल 6.31 से 10.67 लाख करोड़ रु. की चपत लगी. इससे निजी कंपनियों को 2.94 से लेकर 4.79 लाख करोड़ रु. का अप्रत्याशित लाभ हुआ. तहलका को सूत्रों से पता चला है कि कैग की फाइनल रिपोर्ट के मुताबिक निजी ऑपरेटरों को हुए फायदे की रकम का आंकड़ा 1.5 लाख से दो लाख करोड़ रु के बीच बैठ रहा है. भाजपा नेता प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं, ‘ऐसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं देखा गया था. बाजार में सभी को पता है कि कंपनियों ने ये ब्लॉक लेने के लिए भारी रिश्वत दी. दलाली का रेट 50 से 100 रु प्रति टन था.’ जावड़ेकर द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग में दर्ज करवाई गई शिकायत के आधार पर सीबीआई ने इन आवंटनों की प्राथमिक जांच शुरू कर दी है. सूत्र बताते हैं कि एजेंसी अब तक ऐसी दर्जन भर से भी ज्यादा कंपनियों की पहचान कर चुकी है जो जरूरी तकनीकी और वित्तीय अर्हता न रखने पर भी कोयले के ब्लॉक पाने में कामयाब रही थीं. मार्च 2011, यानी जब से कैग ने आवंटन के दस्तावेजों की पड़ताल शुरू की, तब से कोयला मंत्रालय ने अपने आप ही ऐसे 14 आवंटन रद्द कर दिए हैं.
यूपीए की पहली सरकार के दौरान कोयला मंत्रालय का जिम्मा एक कैबिनेट और एक राज्य मंत्री के पास था. इस दरमियान कैबिनेट प्रभार तो कभी सोरेन और कभी मनमोहन सिंह के पास आता-जाता रहा, लेकिन राज्य मंत्री का प्रभार कांग्रेस के पास ही रहा. 23 मई, 2004 से लेकर छह अप्रैल, 2008 तक कांग्रेस नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद डी नारायण राव कोयला राज्य मंत्री रहे. सात अप्रैल, 2008 से 29 मई, 2009 तक यह प्रभार राजस्थान से कांग्रेस के सांसद संतोष बागरोड़िया के पास रहा. दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों ही राज्यसभा सांसद थे और दोनों ने प्रधानमंत्री की प्रस्तावित कोयला नीति को समर्थन देने के बजाय उनका साथ दिया जो इसके विरोध में थे. ढुलमुल रवैया दिखाते हुए प्रधानमंत्री ने भी इन बाधाओं के आगे घुटने टेक दिए. एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव पीसी परख का कहना था, ‘प्रधानमंत्री के पास समय-समय पर कोयला मंत्रालय का प्रभार रहा था. वे नीलामी की इस नीति पर दृढ़ता दिखा सकते थे.’
गौर करने वाली बात यह भी है कि जब-जब झामुमो मुखिया शिबू सोरेन को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, प्रधानमंत्री ने उन्हें कोयला मंत्रालय का जिम्मा थमाया. झारखंड में कोयले का अकूत भंडार देखते हुए सोरेन को नीलामी नीति का स्वागत करना चाहिए था. कोयला भले ही संघीय सूची का विषय हो मगर उससे मिलने वाली रॉयल्टी में से एक बड़ा हिस्सा संबंधित राज्य को ही जाता है. यानी अगर नीलामी वाली नीति लागू हो जाती तो झारखंड जैसे राज्य की झोली में आने वाला राजस्व कहीं ज्यादा बढ़ जाता. इसके बावजूद सोरेन जब भी इस कुर्सी पर रहे उन्होंने इस नीति को पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसा लगता है कि केंद्रीय मंत्री भी इस बात के लिए खुलेआम लामबंदी कर रहे थे कि निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक स्क्रीनिंग कमेटी के जरिए ही आवंटित हों. हाल ही में एक निजी कंपनी ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की है. इसमें उसने आरोप लगाया है कि पर्यटन मंत्री सुबोध कांत सहाय ने यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री रहते हुए एक ऐसी कंपनी को कोल ब्लॉक दिलाने के लिए लामबंदी की जिसका संबंध उनके भाई से है. सहाय ने कथित रूप से प्रधानमंत्री को पत्र लिखे जिनमें उन्होंने कोयले के दो ब्लॉक एसकेएस इस्पात एंड पावर लिमिटेड को आवंटित करने के लिए प्रधानमंत्री से व्यक्तिगत हस्तक्षेप करने को कहा था.
कोयला घोटाले की प्रक्रिया पर सिलसिलेवार नजर डालने से पता चलता है कि किस तरह से कोयला मंत्रालय में बैठे स्वार्थी तत्वों ने पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए प्रस्तावित नीति की राह में लगातार बाधा डाली.
16 जुलाई, 2004: कोयला मंत्रालय में सचिव परख ने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की नीति पर डी नारायण राव को एक विस्तृत प्रस्ताव भेजा. इसमें यह बात भी कही गई थी कि वर्तमान व्यवस्था से आवंटियों को अप्रत्याशित लाभ होगा. स्क्रीनिंग कमेटी वाली व्यवस्था पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने बनाई थी जो एनडीए सरकार में भी जारी रही. यूपीए सरकार आने तक इस व्यवस्था के तहत निजी ऑपरेटरों को 39 कोल ब्लॉक आवंटित हुए थे.
24 जुलाई, 2004: दो दशक पुराने एक नरसंहार के मामले में जब एक स्थानीय अदालत ने सोरेन के खिलाफ वारंट जारी किया तो उन्होंने कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद मंत्रालय का जिम्मा प्रधानमंत्री ने संभाला.
28 जुलाई, 2004: परख को भेजे गए एक नोट में डी नारायण राव ने कई बिंदुओं पर सफाई मांगी. जैसे उद्योग जगत की तरफ से इसका कैसा विरोध हो सकता है, खास तौर से ऊर्जा क्षेत्र की तरफ से.
30 जुलाई, 2004: परख ने जवाब भेजा.
20 अगस्त, 2004: प्रधानमंत्री ने कोयला सचिव को आदेश दिया कि वे प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी पर नोट का एक मसौदा तैयार करें ताकि कैबिनेट इस बारे में विचार करके कोई फैसला ले सके.
11 सितंबर, 2004: पीएमओ ने कोयला मंत्रालय को एक नोट भेजा जिसमें नीलामी से होने वाले कथित नुकसानों का जिक्र किया गया था. कोयला सचिव ने जवाब दिया कि इन तर्कों में कोई दम नहीं है. परख ने प्रधानमंत्री के ध्यान में यह बात भी लाई कि स्क्रीनिंग कमेटी पर कुछ चुनिंदा कंपनियों को ब्लॉक आवंटित करने के लिए तरह-तरह के दबाव पड़ रहे हैं. उन्होंने सुझाव दिया कि भविष्य में सभी आवंटन प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के जरिए ही होने चाहिए.
4 अक्टूबर, 2004: डी नारायण राव ने परख को लिखा कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी नीति पर काम छोड़ दिया जाना चाहिए. इसके पीछे राव का तर्क था कि व्यावसायिक खनन के लिए कोल ब्लॉक आवंटन करने हेतु प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी का रास्ता प्रशस्त करने वाला कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) सुधार विधेयक 2000 ट्रेड यूनियनों और वाममोर्चे के तीखे विरोध के चलते राज्य सभा में लटका पड़ा है. लेकिन जो बात राव ने फाइल पर नहीं लिखी वह यह थी कि वाममोर्चे का विरोध व्यावसायिक कोयला खनन में निजी कंपनियों को इजाजत देने पर है न कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी को लेकर. लेकिन दो अलग-अलग मुद्दों को आपस में मिलाकर राव ने प्रस्तावित नीलामी नीति की राह में अड़ंगा डालने की कोशिश की.
14 अक्टूबर, 2004: एक अहम नीति पर दृढ़ता दिखाने के बजाय प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख को राव द्वारा उठाए गए मुद्दों पर जवाब देने के लिए कहा.
एक नवंबर, 2004: प्रधानमंत्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि जो भी आवेदन 28 जून, 2004 तक आ चुके हैं उन पर तत्कालीन व्यवस्था के आधार पर ही फैसला होगा और कोयला खदान कानून संसद के अगले सत्र में एक विधेयक के जरिए सुधारा जाएगा ताकि भविष्य में सभी कोल ब्लॉकों का आवंटन नीलामी के जरिए हो. प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख को इस हिसाब से कैबिनेट नोट के मसौदे में सुधार करने को कहा. इस दौरान कुछ महीने जेल में बिताने के बाद शिबू सोरेन जमानत पर रिहा हो गए थे.
27 नवंबर, 2004: सोरेन को फिर से कैबिनेट में शामिल किया गया. कोयला मंत्रालय का जिम्मा अब प्रधानमंत्री से निकलकर उनके हाथों में आ गया.
23 दिसंबर, 2004: परख ने मसौदे में जरूरी सुधार करने के बाद इसे स्वीकृति के लिए राव को भेजा.
28 जनवरी, 2005: लेकिन अब सोरेन और राव दोनों ने ही नीलामी नीति को चुपचाप दफन करने के लिए आपस में हाथ मिला लिया. सोरेन ने फाइल पर लिखा कि वह राव की इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि प्रस्तावित नीलामी नीति को आगे बढ़ाने की जरूरत नहीं है. तब झारखंड मुक्ति मोर्चा न सिर्फ केंद्र में कांग्रेस का अहम सहयोगी था बल्कि झारखंड में अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए दोनों पार्टियां मिलकर काम कर रही थीं.
2 मार्च, 2005: झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी ने एक विवादास्पद फैसला लेते हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जगह सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया. भाजपा-जदयू जनतांत्रिक गठबंधन के पास तब 36 विधायक थे, जबकि कांग्रेस-झामुमो गठबंधन के पास सिर्फ 26. सोरेन ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और झारखंड के मुख्यमंत्री बन गए. कोयला मंत्रालय का प्रभार एक बार फिर प्रधानमंत्री ने ले लिया.
7 मार्च, 2005: कोयला मंत्रालय में इस बदलाव के बाद परख ने एक बार फिर नीलामी नीति में जान फूंकने की कोशिश की. उन्होंने प्रधानमंत्री को एक नोट लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि 28 जून, 2004 तक मिले सारे आवेदनों पर फैसला मार्च, 2005 तक होना है और अगर नीलामी नीति फौरन लागू नहीं हुई तो सरकार पर फिर पुरानी नीति को ही जारी रखने का दबाव बन जाएगा. परख ने लिखा कि कोल ब्लॉकों के आवंटन में पूर्ण पारदर्शिता के लिए यह परिस्थिति ठीक नहीं होगी.
16 मार्च, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख से कैबिनेट नोट का मसौदा अपडेट करके भेजने को कहा.
24 मार्च, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने मसौदे को मंजूरी दे दी जिसके बाद इसे ऊर्जा और इस्पात सहित कई मंत्रालयों में भेजा गया ताकि वे इस पर अपनी टिप्पणियां दे सकें. राज्य सरकारों से भी राय मांगी गई.
21 जून, 2005: परख ने मंत्रालयों और राज्यों की टिप्पणियां मसौदे में शामिल कीं और इसे राव को भेजा ताकि वे इसे मंजूरी के लिए प्रधानमंत्री को भेज सकें.
4 जुलाई, 2005: राव ने प्रधानमंत्री को लिखा कि ऊर्जा कंपनियां प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की इच्छुक नहीं हैं क्योंकि इससे उन्हें बिजली की लागत बढ़ने का डर है. राव का कहना था कि नीति पर विस्तृत विचार-विमर्श की जरूरत है. लेकिन उन्होंने यह नहीं लिखा कि योजना आयोग, खदान मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय जैसे केंद्रीय मंत्रालय और कई राज्य सरकारें इसके पक्ष में हैं.
25 जुलाई, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि नीलामी प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिए कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) कानून में सुधार की जरूरत होगी. लेकिन एक चौंकाने वाला कदम उठाते हुए उसने कोयला मंत्रालय को निर्देश दिया कि चूंकि इस सुधार में कुछ वक्त लगेगा इसलिए फिलहाल जो व्यवस्था है उसे ही जारी रखा जाए. नतीजा यह हुआ कि 2005 में 375 करोड़ टन भंडार वाले कोयले के 24 ब्लॉक आवंटित कर दिए गए.
देखा जाए तो इस फैसले का कोई औचित्य नहीं था. कोयला खदान कानून 1973 में इंदिरा गांधी सरकार ने बनाया था. इसके जरिए कोयला खनन का काम सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को दे दिया गया था. बाद में कानून में संशोधन हुआ और यह व्यवस्था की गई कि खदानों का आवंटन लोहा और इस्पात निर्माण में लगी कुछ चुनिंदा कंपनियों को भी हो सके. स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा आवंटन की व्यवस्था कांग्रेस सरकार ने 1992 में एक शासनादेश लाकर की. यानी आवंटन की प्रक्रिया को बदलकर उसे प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के जरिए करने का काम भी एक शासनादेश के जरिए ही किया जा सकता था. प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई बार यह फाइल कानून मंत्रालय को भेजी और उससे इस बारे में राय मांगी कि आवंटन के लिए नीलामी नीति का कार्यान्वयन किस तरह किया जाए. 2004 से 2006 के बीच अलग-अलग मौकों पर तुरंत सलाह देने के बाद अगस्त, 2006 में कानून मंत्रालय के सचिव ने साफ कहा कि जब स्क्रीनिंग कमेटी शासनादेश से बन सकती है तो यह नई व्यवस्था भी वैसे ही बन सकती है. यानी सरकार आराम से इस व्यवस्था में सुधार कर सकती थी. बाद में कोयला खदान कानून में भी वही सुधार कर लिए जाते. लेकिन एक निर्बाध सड़क पर प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय में बैठे स्वार्थी तत्व बाधाएं खड़ी कर रहे थे ताकि अपारदर्शी और भ्रष्टाचार से भरी एक नीति जारी रहे.
12 जनवरी, 2006: जब सुधारा गया कैबिनेट नोट का मसौदा (जिसमें कोयला खदान कानून में सुधार के जरिए नीलामी नीति लाने का प्रस्ताव था) फिर से राव को भेजा गया तो उनका कहना था कि ‘इस मामले में इतनी तात्कालिकता से काम लेने की कोई जरूरत नहीं है और इससे जुड़े मुद्दों को ध्यान में रखते हुए यह नोट उचित समय आने पर फिर से प्रस्तुत किया जाए.’
जहां राव नीति में बदलाव को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश कर रहे थे वहीं प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के बीच हो रहा पत्राचार बताता है कि प्रधानमंत्री लगातार इस बात के लिए दबाव बना रहे थे कि कैबिनेट नोट पेश किया जाए. दूसरी तरफ झामुमो मुखिया सोरेन, जिन्हें झारखंड में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के नौ दिन बाद ही बहुमत साबित न कर पाने पर इस्तीफा देना पड़ा था, फिर से कोयला मंत्रालय पाने के लिए सक्रिय हो गए थे.
29 जनवरी, 2006: सोरेन को एक बार फिर कोयला मंत्रालय सौंप दिया गया.
7 अप्रैल, 2006: प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई एक बैठक में यह फैसला हुआ कि खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून 1957 में सुधार करके प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की व्यवस्था कोयले सहित तमाम खनिजों पर लागू की जाएगी.
27 अप्रैल, 2006: राव ने फाइल पर टिप्पणी की कि ‘खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून में सुधार के मुद्दे पर एक बार फिर विचार होना चाहिए क्योंकि इससे राज्य सरकार के वर्तमान अधिकार कम होते हैं और इस पर विवाद पैदा होने की आशंका है.’ उसी दिन सोरेन ने राव की राय का समर्थन किया और फाइल पर लिखा कि ‘राज्य मंत्री द्वारा व्यक्त किए गए विचार उचित हैं और कोयला मंत्रालय को ऐसे सुझाव देने से बचना चाहिए जिनसे संघीय नीति के लिए जटिलता पैदा होने की संभावना हो.’
सोरेन और राव द्वारा लगातार पैदा की जा रही अड़चनों का नतीजा यह हुआ कि खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून में सुधार के लिए विधेयक आने में और चार साल लग गए. 17 अक्टूबर, 2008 को संसद के पटल पर यह विधेयक रखा गया. इस बीच, 2006 में 1779.2 करोड़ टन भंडार वाले 53 कोल ब्लॉक, 2007 में 1186.2 करोड़ टन भंडार वाले 52 ब्लॉक, 2008 में 355 करोड़ टन भंडार वाले 24 ब्लॉक और 2009 में 689.3 करोड़ टन भंडार वाले 16 ब्लॉक बिना नीलामी के ही आवंटित कर दिए गए.
खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) सुधार कानून अगस्त, 2010 में संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया था. लेकिन आज तक एक भी कोल ब्लॉक नीलामी के जरिए आवंटित नहीं किया गया है. तहलका ने कई बार डी नारायण राव से इस मुद्दे पर बात करके उनका पक्ष जानने की कोशिश की लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. सोरेन के कार्यालय ने भी इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया. 2004 के बाद बनी हर विशेषज्ञ समिति ने स्क्रीनिंग कमेटी वाली व्यवस्था में व्याप्त मनमानी की तरफ इशारा किया है. कोयला क्षेत्र में सुधारों के मुद्दे पर बनी टीएल शंकर समिति ने पारदर्शिता के लिए इस व्यवस्था की मरम्मत की जरूरत बताई. अशोक चावला समिति ने भी कहा कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की व्यवस्था बेहतर है.
अभी तक सरकार यह तर्क देकर अपनी कोयला नीति का बचाव करती रही है कि कोयले से राजस्व बढ़ाना कभी भी इसका उद्देश्य नहीं रहा. वह यह चाहती थी कि ऊर्जा, इस्पात और सीमेंट जैसे अहम उद्योगों को कोयले की उपलब्धता सुनिश्चित हो और इसके दाम भी कम रहें. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री वी नारायण सामी कहते हैं, ‘कोयला नीति बिल्कुल सही थी. कोयले के ब्लॉक ऊर्जा परियोजनाओं या फिर इस्पात और सीमेंट निर्माताओं को दिए गए थे. अगर हमने कोयले की नीलामी की होती तो बिजली, इस्पात और सीमेंट के दाम बढ़ जाते. उपभोक्ताओं को इससे परेशानी होती.’
लेकिन गौर से देखा जाए तो ये तर्क पूरी तरह से खोखले लगते हैं. केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल (देखें इंटरव्यू) कह रहे हैं कि 80 फीसदी ब्लॉकों में कोयले का उत्पादन शुरू नहीं हुआ है. यहीं सरकार के इस तर्क की हवा निकल जाती है कि अगर उसने ये 155 ब्लॉक आवंटित नहीं किए होते तो उद्योग की कोयला जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं. राज्य सभा सांसद और वरिष्ठ माकपा नेता तपन सेन कहते हैं, ‘निजी कंपनियों को जो ब्लॉक आवंटित हुए हैं उनमें से ज्यादातर यूं ही पड़े हुए हैं. लेकिन इन कंपनियों ने इन आवंटनों को स्टॉक मार्केट में अपनी वैल्यू बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है. निजी कंपनियों को इस आवंटन का नतीजा भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया है.’
जहां उत्पादन शुरू हो गया है वहां भी ऐसे कोई खास सबूत नहीं हैं जो यह दिखाते हों कि कम उत्पादन लागत का फायदा उपभोक्ताओं को हुआ हो. कोयले के ब्लॉक दर्जनों ऊर्जा कंपनियों को भी मिले थे. इनमें से ज्यादातर ने राज्य सरकारों के साथ ऊर्जा खरीद समझौते नहीं किए हैं. जो कुछेक प्लांट शुरू हुए भी, वे स्वतंत्र ऊर्जा उत्पादक की तरह काम कर रहे हैं और 10 से 12 रु प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं. कोयला मंत्रालय से सेवानिवृत्त हुए एक नौकरशाह बताते हैं, ‘आप किसी भी अर्थशास्त्री से पूछ लीजिए. कीमतें मांग और आपूर्ति के हिसाब से तय होती हैं न कि उत्पादन सामग्री की लागत से.’ हाल ही में अंबुजा, अल्ट्राटेक और जेपी सीमेंट्स सहित 11 बड़ी सीमेंट कंपनियों पर 6,307 करोड़ रु.का जुर्माना हुआ. आरोप था कि ये सभी कंपनियां एक गुट बनाकर कीमतों, आपूर्ति आदि का निर्धारण कर रही थीं. इससे सरकार के इस तर्क की हवा निकल जाती है कि सीमेंट और इस्पात जैसे क्षेत्रों को सस्ता कोयला उपलब्ध कराने से उपभोक्ता को फायदा हुआ है.
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