यह बड़े खेद की बात है कि भारत में कई लोगों ने प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान उनकी निंदा की है। जनवरी, 2014 में अपनी अंतिम प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने आलोचनाओं का जवाब उल्लेखनीय शालीनता के साथ दिया और कहा- ‘समकालीन मीडिया की तुलना में इतिहास मेरे प्रति अधिक दयालु होगा।’ डॉ. सिंह, जिनका 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया; अपने पीछे भारत के आर्थिक परिवर्तन के मूक वास्तुकार के रूप में एक विरासत छोड़ गये हैं। एक ऐसा परिवर्तन, जिसने उदारीकरण के बाद के भारत में लाखों युवाओं के जीवन को नया आकार दिया। हालाँकि उनके योगदान को अक्सर राजनीतिक-विमर्श में दबा दिया गया।
एक पत्रकार के रूप में मुझे डॉ. सिंह का दो बार साक्षात्कार करने का सौभाग्य मिला। पहला- इंडियन एक्सप्रेस में रिपोर्टर के रूप में, जब उन्हें अमृतसर में ‘एफई इकोनॉमिस्ट ऑफ द ईयर अवॉर्ड’ मिला था; और उसके बाद सन् 2016 में भारत के आर्थिक सुधारों की रजत जयंती के अवसर पर ‘तहलका’ में संपादक के रूप में। डॉ. सिंह बौद्धिक क़द और शान्त गरिमा के व्यक्ति थे। उच्च पदों पर आसीन होने के बावजूद उन्होंने हमेशा अपनी सफलता को विनम्रता के साथ स्वीकार किया। संभवत: विभाजन के दर्दनाक अनुभवों से प्रभावित होकर जिसने उनके विश्व दृष्टिकोण को गहरे अवचेतन स्तर पर आकार दिया।
डॉ. सिंह एक अलग ही श्रेणी के राजनेता थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति की उथल-पुथल के बीच भी अपनी सौम्यता बनाये रखी। 17 मई, 2014 को प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र के नाम अपने अंतिम संबोधन में उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा कि सार्वजनिक पद पर उनका कार्यकाल एक खुली किताब है। उन्होंने अपने सामने आने वाली चुनौतियों को स्वीकार किया तथा परिश्रम को अपना साधन और सत्य को अपना प्रकाश-स्तंभ मानकर काम करने के लिए प्रतिबद्ध रहे।
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम का अधिनियमन था। इस ऐतिहासिक क़ानून ने नागरिकों को सशक्त बनाकर और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता सुनिश्चित करके भारतीय लोकतंत्र को बदल दिया। इसके साथ ही उसी वर्ष लागू किये गये महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम ने लाखों लोगों को आजीविका की सुरक्षा प्रदान करके ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल दी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी डॉ. सिंह का नेतृत्व समान रूप से परिवर्तनकारी था। उनके दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता हुआ, जिसने दोनों देशों के बीच रणनीतिक सम्बन्धों को पुन: परिभाषित किया। इसके अलावा सन् 2008 के मुंबई हमलों के बाद पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जवाबी सैन्य कार्रवाई से बचने के उनके फ़ैसले ने बुद्धिमत्ता और संयम के एक दुर्लभ समन्वय को प्रदर्शित किया, जिससे परमाणु हथियार सम्पन्न पड़ोसियों के बीच एक और युद्ध को रोका जा सका। डॉ. सिंह की राजनीतिक यात्रा का सबसे अच्छा वर्णन 24 जुलाई 1991 को वित्त मंत्री के रूप में उनके प्रसिद्ध भाषण में मिलता है, जब उन्होंने विक्टर ह्यूगो को उद्धृत किया था- ‘पृथ्वी पर कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है।’ तीस साल बाद भारत के आर्थिक उदारीकरण की वर्षगाँठ पर विचार करते हुए उन्होंने रॉबर्ट फ्रॉस्ट को उद्धृत किया- ‘लेकिन मुझे वादे निभाने हैं, और सोने से पहले मुझे बहुत लंबा सफ़र तय करना है।’ और उनकी विरासत अभी ख़त्म नहीं हुई है।
चूँकि भारत बढ़ती चुनौतियों का सामना कर रहा है। जैसे कि ‘तहलका’ एसआईटी द्वारा की गयी हालिया पड़ताल रिपोर्ट- ‘गोल्ड और डॉलर के तस्कर’ में उजागर किये गये तस्करी के मकड़जाल का विस्तार एक बार फिर अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और समावेशी भारत बनाने वाले डॉ. सिंह के नेतृत्व को याद करने योग्य है। उनके योगदान को हमेशा सराहा नहीं गया। लेकिन इतिहास निश्चित रूप से उन्हें भारत के महानतम राजनेताओं में से एक के रूप में पहचानेगा।