कोरोना महामारी की दोनों लहरों में लोगों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ा उसने यह साबित कर दिया कि अगर कोई बीमारी महामारी का रूप ले ले, तो देश की स्वास्थ्य व्यवस्था जवाब दे जाती है। इन दिनों तेज़ी से फैलते डेंगू ने भी यही साबित कर दिया है। कुछ राज्यों में तो हाल यह है कि मरीज़ों को समय पर सही इलाज मिलना तो दूर, जाँच तक समय पर नहीं हो पा रही है। संक्रमण मुक्त पलंग (बेड) तक हर जगह मौज़ूद नहीं हैं, जिससे संक्रमण और बढ़ रहा है।
डेंगू के इतने मरीज़ बढ़ रहे हैं कि सरकारी अस्पतालों में ही नहीं, बल्कि निजी अस्पतालों में बेड के लिए उन्हें भटकना पड़ रहा है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के जर्जर इसकी मूल वजह स्वास्थ्य सेवाओं का लगातार होता निजीकरण और कार्पोरेट अस्पतालों का विस्तार होना है।
गम्भीर बात यह है कि सरकारी अस्पतालों में भी अब डॉक्टरों की नियुक्तियाँ अनौपचारिक (एडहॉक) या अनुबन्ध (कॉन्ट्रेक्ट) पर एक या दो साल के लिए होने लगी हैं। इसके चलते डॉक्टर्स या तो मन से सेवाएँ नहीं देते या फिर नियमित होने के लिए संघर्ष करते रहते हैं। इतना ही नहीं, अस्पतालों में डॉक्टर्स, पैरामैडिकल स्टाफ और नर्स की कमी के चलते मरीज़ इलाज के लिए भटकते रहते हैं और कई बार इलाज न मिलने या समय पर इलाज न मिलने पर दम तोड़ देते हैं। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) कई बार आगाह कर चुका है। लेकिन सरकार ने सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर करने की जगह उनके निजीकरण का विस्तार ही किया है।
मौज़ूदा समय में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश समेत कई अन्य प्रदेशों में डेंगू ने पिछले महीने से पैर पसार रखे हैं। जब भी कोई बीमारी महामारी का रूप लेती है, तो व्यवस्था के अभाव की वजह से मरीज़ों को झोलाछाप डॉक्टरों तक से इलाज कराने को मजबूर होना पड़ता है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोई भी संक्रमित बीमारी हो, अगर उसका समय रहते पक्का इलाज न हो तो वह भयंकर रूप ले-लेती है। मौज़ूदा समय में डेंगू तेज़ी से फैल रहा है। देश के ग़रीब लोग सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर हैं। कहीं-कहीं सरकारी अस्पतालों की दशा बहुत ख़राब है। सरकारी अस्पतालों की लैबों में जाँच रिपोर्ट ही दो से तीन दिन में मिलती है; जबकि डेंगू में रक्त की तुरन्त जाँच और प्लेटलेट्स की गिनती बहुत ज़रूरी होती है। लेकिन समय पर जाँच रिपोर्ट न मिलने के चलते मरीज़ों को ख़तरा बढ़ जाता है और डेंगू के सही आँकड़े भी नहीं आ पाते। डॉक्टर बंसल कहते हैं कि भारत में स्वास्थ्य बजट भी बहुत कम है।
दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के अध्यक्ष डॉक्टर अश्विनी डालमिया कहते हैं कि डेंगू हर साल कहर बनकर आता है। डेंगू फैलाने वाला एडीज इजिप्टी मच्छर साफ़ पानी और घरों में पनपता है। यही वजह है कि इन मच्छरों की संख्या बढऩे पर डेंगू भी तेज़ी से फैलता है। ऐसे में घरों की सफ़ार्इ, साफ़ पानी को भी ढककर रखने, पानी जमा न होने देने और मच्छरों को मारने वाली दवा से ही इसका इलाज ज़रूरी है। साथ ही इन दिनों में होने वाले बुख़ार को लोग सामान्य न समझें और इलाज के साथ-साथ सबसे पहले डेंगू की जाँच कराएँ, ताकि अगर मरीज़ को डेंगू है, तो समय रहते उसका इलाज हो सके।
डेंगू विरोधी अभियान में गत आठ साल से काम करने वाले डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि कई राज्यों में डेंगू के तेज़ी से विस्तार के लिए सरकार की उदासीनता और स्वास्थ्य एजेंसियाँ ज़िम्मेदार हैं। जब हर साल अक्टूबर और नवंबर में डेंगू फैलता है, तो सरकार डेंगू से निपटने के लिए कोई पुख़्ता इंतज़ाम क्यों नहीं करती है? दबाओं का छिडक़ाव पहले होता था; लेकिन अब नहीं होता। साल में दो-चार बार धुआँ छोडऩे वाले आते हैं, जिससे मच्छर तो नहीं मरते, प्रदूषण ज़रूर फैल जाता है। देश में स्वास्थ्य विभाग एक बड़ा बाज़ार बनकर ऊभर रहा है, जिसके चलते पैसा कमाने के लालच में कार्पोरेट घराने इस क्षेत्र में पाँव पसारते जा रहे हैं और आम आदमी की पहुँच से इलाज दूर होता जा रहा है। बीमारियों को एक सुनियोजित तरीक़े से बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके पीछे दवा कम्पनियों और जाँच केंद्रों का कारोबारी स्वार्थ भी है। डॉक्टर गोस्वामी का कहना है कि कई राज्यों में मरीज़ों के लिए बेड तक उपलब्ध नहीं हैं। कई अस्पतालों में मानवता को झझकोर देनी वाली घटनाएँ घट रही हैं।
तहलका संवाददाता ने उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा के सरकारी अस्पतालों की जानकारी जुटायी, जहाँ देखने में आया कि स्वास्थ व्यवस्था में उत्तर प्रदेश की दशा सबसे ज़्यादा ख़राब है। वहाँ डेंगू से मरने वालों की संख्या भी इसकी गवाह है। एक मरीज़ ने बताया कि अब तो डेंगू कुछ कम हो रहा है; लेकिन जब डेंगू के मामले चरम पर थे, तब एक-एक बेड पर कई-कई मरीज़ डाले जा रहे थे। इतने पर भी अनेक मरीज़ अस्पतालों में इलाज के लिए भटक रहे थे। कई-कई दिन बेड की चादरें नहीं बदली जा रही थीं। डॉक्टर भी क्या करें, जब संसाधन ही नहीं होंगे, तो इलाज कैसे होगा? एक चौंकाने वाली बात यह भी सामने आयी कि कुछ सरकारी डॉक्टर मरीज़ों को निजी अस्पतालों में भेज रहे थे। अब यह साँठगाँठ की वजह से होता है या अव्यवस्था की वजह से? नहीं कह सकते।