डिजिटल आज की दुनिया की एक सच्चाई है। कोविड-19 महामारी ने तो इसे और बल दिया। डिजिटलाइजेशन ने दुनिया को बदल दिया है। इसकी दखलंदाज़ी केवल बड़े लोगों व कामकाजी लोगों की दुनिया में ही नज़र नहीं आती, बल्कि बचपन तक इससे अछूता नहीं रहा है। आप सवाल कर सकते हैं कि यह कैसे हो रहा है? इस दुनिया में लाखों बच्चे जन्म लेने वाले पल से ही डिजिटल दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। उनके पैदा होने के वीडियो बनाये जाते हैं। माँ की कोख से बाहर आने पर उनकी पहली झलक वाली तस्वीरों को इंटरनेट पर डाला जाता है। उन्हें डिजिटल संचार और कनेक्शन से जोड़ दिया जाता है।
अस्पतालों में उनकी देखभाल वाली तस्वीरें भी सँजोकर रखी जाती हैं। बड़ी हस्तियों के बच्चों की ऐसी तस्वीरों को तो बड़े-बड़े मीडिया संस्थान, टीवी चैनल भारी रकम में खरीद लेते हैं और उनके प्रकाशन व टीवी पर सबसे पहले दिखाने के कॉपीराइट उनके पास होते हैं। दरअसल बच्चों का डिजिटल दुनिया से वास्ता कई तरह से पड़ता है, जैसे-जैसे उनकी गतिविधियों का विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे वे डिजिटल संसार से जुड़ते जाते हैं। डिजिटल तकनीक के अपने फायदे व नुकसान दोनों है। आज के युग में खुद का इससे अलग कर पाना असम्भव है। क्योंकि यह प्रगति के अपार मौके भी प्रदान करती है।
बच्चों और युवाओं की दुनिया में डिडिटलाइजेशन की दखलंदाज़ी बढ़ती जा रही है। इसलिए एक बहस अपना स्थान मज़बूती से बनाये हुए है कि डिजिटल तकनीक के युग में बच्चों, युवाओं को इससे कितना जुडऩा चाहिए और कहाँ अलग हो जाना चाहिए? इसके लिए एक नाज़ुक और बारीक, लेकिन महत्त्वपूर्ण लक्ष्मण रेखा खींचना क्या ज़रूरी है? हालाँकि इस बहस में एक बिन्दु बच्चों की निजता का भी जुड़ जाता है कि क्या बच्चों पर निगाह रखना उचित कदम माना जाना चाहिए? विश्व बाल स्थिति नामक रिपोर्ट बताती है कि विश्व भर में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाला हर तीसरा इंसान बच्चा है। लेकिन उन्हें डिजिटल दुनिया के खतरों से बचाने और इंटरनेट पर सुरक्षित ऑनलाइन सामग्री तक उनकी पहुँच बढ़ाने की दिशा में बहुत कम ही कदम उठाये गये हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकारों व निजी सेक्टर ने बदलते वक्त के साथ कदम नहीं उठाये, बच्चों को नये खतरों का सामना करने के लिए छोड़ दिया और वंचित समूहों के लाखों बच्चे इस तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं और वे ज़िन्दगी में पिछड़ते जा रहे हैं। सबसे वंचित इन बच्चों को, जिसमें गरीबी में बढ़े हो रहे भी शामिल है; डिजिटल तकनीक कई तरह के फायदे पहुँचा सकती है। मसलन-सूचना तक उनकी पहुँच बढ़ाकर, डिजिटल कार्यस्थल के लिए उन्हें हुनरमंद बनाकर, कनेक्ट होने व अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाने के लिए मंच प्रदान करके। लेकिन हकीकत यह भी है कि लाखों बच्चे इस डिजिटल दुनिया से बाहर हैं। दुनिया के करीब एक-तिहाई युवा ऑनलाइन नहीं हैं। इससे असमानता बढ़ रही है और डिजिटल अर्थ-व्यवस्था में उनकी भागीदारी के मौके कम कर रही है। बच्चों का ऑनलाइन यौन शोषण का खतरा एक बड़ी चुनौती है। हर तकनीक की तरह इसे भी फायदे व नुकसान दोनों है। जब रेडियो आया,तो यह कहा जाने लगा कि रेडियो लोगों की नींद खराब कर देगा।
टी.वी. आया, तो यह धारणा बन गयी कि टी.वी. बच्चों, युवाओं को खराब कर रहा है। यही नहीं, इतिहास में काफी पीछे लौटें तो पता चलता है कि जब 16वीं सदी में लोगों की यह चिन्ता थी कि लिखना सीख लेने के बाद लोग हर चीज़ भूलने लगेंगे। ऐसे में लोग अपनी याददाश्त का इस्तेमाल कम करने लगेंगे और लिखित सामग्री का इस्तेमाल अधिक होने लगेगा। ऐसे ही क्रम में ऑनलाइन दुनिया पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। इंटरनेट और बच्चों को लेकर कई तरह के सरोकार अपनी जगह बनाये हुए है। इस सबके बीच हमें याद रखना चाहिए कि सूचना और संचार तकनीक यानी आईसीटी ब्राजील, कैमरून के दूर-दराज़ इलाकों और अफगानिस्तान की लड़कियों को शिक्षा प्रदान कर रहा है, जो अपने घर को नहीं छोड़ सकते। मोलदोवा गणराज्य के चिसिनाऊ के पास पोरुबेनी गाँव में 17 साल की गैबरिएल वलाड मोबाइल फोन के ज़रिये अपनी माँ से बात कर रही है। जबकि उसका पालन करने वाली माँ उसे देख रही है।
एक अनुमान कहता है कि मालदीव के 18 साल से कम उम्र के लगभग 21 फीसदी बच्चों के माँ-बाप में से कम-से-कम एक विदेश में काम कर रहा है और अपने परिवार के लिए धन भेज रहा है। डिजिटल तकनीक से बच्चे अपने माता-पिता से संवाद के ज़रिये भावनात्मक रूप से जुड़े रहते हैं। कोविड-19 महामारी में भी इस तकनीक का इस्तेमाल इस मकसद के लिए भी किया गया। केरल का उदाहरण याद आ रहा है। लॉकडाउन के वक्त केरल राज्य सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के मोबाइल फोन सरकारी रकम से रिचार्ज करवाये, ताकि प्रवासी मज़दूरों व उनके परिजनों के बीच बराबर सम्पर्क बना रहे। इस महामारी में ऑनलाइन शिक्षा के सैकड़ों उदाहरण आने वाले वक्त में याद किये जाएँगे। दरअसल इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है कि बच्चे डिजिटल मंच का इस्तेमाल कैसे करते हैं? बच्चे डिजिटल अनुभव का लाभ उठा पाते हैं या नहीं और कितना उठा पाते हैं? यह उनके शुरुआती दौर पर निर्भर करता है।
माता-पिता, अध्यापक और समाज बच्चों पर इस दिशा में कितना निवेश करता है? यह अहम है। माता-पिता बच्चों को कितना वक्त देते हैं और उस वक्त में उन्हें क्या सिखाते हैं? यह भी महत्त्वपूर्ण है। भारत सहित कई मुल्क ऐसे हैं, जहाँ माता-पिता बच्चों, युवाओं के साथ एक ही घर में एक ही वक्त में फोन पर संवाद करते हैं। उनके बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल किस रूप में करते हैं? यह उनके लिए चिन्ता की बात नहीं होती। जब बच्चे ऑनलाइन मंच का इस्तेमाल करते वक्त किसी समस्या में फँस जाते हैं, तब उनकी आँखें खुलती हैं। अध्ययन यह भी बताते हैं कि जिन परिवारों में माहौल प्रेम व शान्तिप्रिय होता है, उन परिवारों के बच्चे डिजिटल तकनीक का फायदा अच्छी तरह से उठाते हैं; जबकि अवसाद, तनाव और पारिवारिक परेशानियों को झेल रहे बच्चे अपने डिजिटल अनुभवों की वजह से इन समस्याओं को बढ़ता हुआ पाते हैं। यह भी देखा गया है कि डिजिटल मीडिया का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करना या फिर बहुत इस्तेमाल करना दोनों का ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऑनलाइन के खतरे हरेक के लिए हैं। मगर बच्चों और युवाओं के इसकी चपेट में अधिक आने की सम्भावना बनी रहती है। बच्चों की इस बात की समझ नहीं होती कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा? ऑनलाइन मंच पर ऐसी सामग्री हमेशा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहती है, जो उन्हें गुमराह करने वाली होती है। यौन, पोर्नोग्राफी, साइबर बुलिंग हिंसक वीडियो की भरमार बच्चों के लिए खतरनाक है।
बच्चों के प्रति सरकारों की ज़िम्मेदारी
बच्चों को ऐसे खतरों से सुरक्षा प्रदान करने वाले कानूनों का पालन करवाना सरकारों की ज़िम्मेदारी है। ऑनलाइन दुनिया में यौन उत्पीडऩ का मुकाबला करने के लिए तैयार किये गये वी प्रोटेक्ट ग्लोबल अलायंस के ढाँचे को कई मुल्कों ने अपना लिया है।
इसके तहत एक सामूहिक प्रतिक्रिया की व्यवस्था की गयी है। बच्चों को ऑनलाइन सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक विशेष रणनीति पर फोकस करने की आवश्यकता होती है। इस रणनीति में महज़ मौज़ूदा खतरे ही नहीं, बल्कि दूरगामी खतरों को भी भाँपकर कदम उठाने की ज़रूरत होती है। बच्चे अपनी निजी सूचनाएँ सोशल मीडिया पर बहुत जल्दी साझा कर देते हैं और वे इससे होने वाले नुकसानों से अनभिज्ञ होते हैं। कुछ व्यावसायिक एजेंसियाँ और शराराती तत्त्व इसका गलत इस्तेमाल करते हैं। लिहाज़ा यह कम्पनियों का दायित्व है कि वो अपने नियम, शर्तें और निजता नीति को आसान भाषा में व्यक्त करें; ताकि बच्चे भी उसका अर्थ आसानी से समझ लें। सभी बच्चे चाहे वे कहीं भी रहते हों, किसी भी आयु-वर्ग के हों; उन्हें डिजिटल साक्षरता मुहैया कराना राष्ट्र सरकारों का दायित्व है। सरकारी स्कूलों की इस दिशा में पहल करनी चाहिए। उन्हें प्रारम्भिक कक्षाओं से ही डिजिटल साक्षरता की शुरुआत करनी चाहिए।
अभिभावकों की ज़िम्मेदारी
बच्चा ऑनलाइन तो हो जाता है और इस प्रतियोगी माहौल में हर अभिभावक भी चाहता है कि उसका बच्चा ऑनलाइन रहे। लेकिन ऑनलाइन संवाद कैसे करना है? अभिभावकों को इस पर भी ध्यान देना होगा। बेशक इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों में एक-तिहाई बच्चे हैं। लिहाज़ा नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए, जो उन्हें सुरक्षा प्रदान करें। उनकी खास ज़रूरतों को पूरा करने वाली व उनके अधिकारों, हितों का संरक्षण करने वाली होनी चाहिए। अक्सर नति निर्माता बच्चों से जुड़े, उनकी ज़िन्दगी को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर उनकी राय जानना बहुत ज़रूरी नहीं समझते। पुरानी सोच और अपने नज़रिये के साथ ही नये विषयों पर काम करवाते रहते हैं। इसका खामियाज़ा बाद में भुगतना पड़ता है। समावेशी समाज, समावेशी अर्थ-व्यवस्था, समावेशी शिक्षा पर चर्चा होती रहती है, तो समावेशी डिजिटल शिक्षा भी ज़रूरी है। कोई भी बच्चा इससे नहीं छूटना चाहिए।
हर बच्चे की इस तक पहुँच सुनिश्चित करने की दिशा में राष्ट्र सरकारों को आगे बढऩा चाहिए; बल्कि इसके साथ ही सुरक्षात्मक व गुणात्मक डिजिटल शिक्षा वाला ढाँचे पर भी निवेश करना चाहिए। जिस तरह से डिजिटल तकनीक को बढ़ावा देने के लिए विश्व की टेक कम्पनियाँ काम कर रही हैं, उसके मद्देनज़र कार्यस्थल पर वही टिक पाएगा जो बहु कौशल प्रतिभा का धनी होगा। यानी अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए और अच्छा वेतन पाने के वास्ते डिजिटल तकनीक में पारंगत होना अनिवार्य बनता जा रहा है। ऐसे में बच्चों को इस तकनीक के इस्तेमाल पर शुरू से ही घ्यान देने की दरकार है।