एक ज़माना वह भी था जब देश के रुपए की कीमत काफी ज्य़ादा थीं। आज एक डालर की कीमत लगभग 69 रुपए मात्र है। अब एक डालर के बदले तकरीबन 69 रुपए मात्र देने होते हैं। इसका मतलब है कि अमेरिकी डालर के मुकाबले रुपया लगातार लुढ़कता गया है। इसका व्यापक असर दिखता है जब हम तेल-गैस का कोई उत्पाद खरीदते हैं। इसका मतलब हुआ कि कंप्यूटर मोबाइल वगैरह और भी ज्य़ादा महंगे हो गए। रुपए की गिरती हालत पर खुद प्रधानमंत्री खासे बेचैन रहे हंै। उन्होंने कहा कि रु पया यदि इसी तरह लुढ़कता रहा तो मजबूत आर्थिक हालात वाले देश इसका बेजा लाभ उठा सकते हैं।
प्रधानमंत्री रुपए के लुढ़कने के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं दिल्ली सरकार को। वे कहते है कि यदि ये सजग होते तो ऐसा नहीं होता।
दरअसल रुपए की कीमत जो लगातार गिरती जा रही है उस पर देश के वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को लगातार नज़र रखनी चाहिए थी। इस साल की पहली जनवरी से रुपया एशिया में दूसरी करंसी की तुलना में सबसे खराब तरीके से लुढ़कता दिखने लगा था लेकिन इसे नजरअंदाज़ कर दिया गया। उन सबके पास रटारटाया यही जवाब था कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल महंगा हो रहा है। जबकि तेल भी महंगा उतना नहीं था।
रुपए के लुढ़कने से प्रधानमंत्री भले चिंतित हैं। लेकिन आर्थिक जगत के लोग इसे सामान्य प्रक्रिया मानते है। केंद्रीय वित्त मंत्री का कहना है कि देश में मैक्रो-इकॉनॉमिक इंडिकेटर बहुत मजबूत हैं इसलिए रुपए की गिरावट भी संभाल ली जाएगी।
वित्तमंत्री ने सही कहा। 28 जून को रु पया जो लुढ़क कर रुपए 68.46 मात्र से पैसे पर आ गया था। उसने 29 जून को तैंतीस पैसे की उछाल ली। तब सेंसेक्स भी 386 पवाइंट पर था। रुपए में कुछ सुधार दिखा।
वित्त मंत्री ने हर समस्या की जड़ कांग्रेस को ठहराते हुए जानकारी दी कि जब 2013 में रुपया 68.8 मात्र प्रति डालर हो गया तो आरबीआई (रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) के गवर्नर रघुराम राजन ने फारेन करेंसी नान रेसिडेट बैंक(एफसीएनआरबी) शुरू की। इसके तहत डिपाजिट लिए। भारत में तीन साल के लिए 32 बिलियन डालर आए। इनके बल पर भारतीय करंसी कुछ साल टिकी रही। वित्त मंत्री ने बताया कि हमने 32 बिलियन डालर वापस कर दिए। आप देख सकते है पांच साल में रुपए की कीमत नहीं घटी।
भारत में विदेशी मुद्रा रिजर्व 304 बिलियन डालर 2013-14 में थी। आज यह 2017-18 के अंत में 425 बिलियन डालर है। इसके चलते एकाउंट डेफिसिट और फिस्कल डेफिसिट गिरा ही है।