पहले के दौर में चीनी मिट्टी, काँच और शीशे की बोट (बड़ी-बड़ी बोतलें और जार) हुआ करते थे, तो वहीं खाने-पीने की सूखी चीज़ें और रोटियाँ आदि रखने के लिए डलियाँ, पल्ले आदि होते थे। इसी तरह बाँस से लोकप्रिय वाद्ययंत्र बांसुरी और बच्चों के खिलौनों तथा बाजा (एक तरह की सीटी) के अलावा बहुत तरह का सामान घरेलू उपयोग के लिए भी बनाया जाता था। इसमें फर्नीचर से लेकर रसोईघर में इस्तेमाल तक का सामान शामिल होता था।
पहले के कच्चे घरों में घरों की छत से लेकर छप्परों में मज़बूती और टट्टी (एक प्रकार का बाँस का दरवाज़ा) तक बाँस से ही बनते थे। आज भी गाँवों में बहुतायत में बाँस की बनी चीज़ें, जैसे चारपाइयाँ, सीढिय़ाँ, कुर्सियाँ आदि मिल जाती हैं। गाँवों में ही क्यों शहरों में बड़े-बड़े घरों और फाइव स्टार होटलों से लेकर रेस्तरां तथा रिसोर्ट तक का साज-ओ-सामान और फर्नीचर तक बाँसों का बना होता है। सड़क किनारे बने बहुत-से ढाबों में भी बाँस से बनी चारपाइयाँ और मेज-कुर्सियाँ आदि बाँस से बनी हुई मिल जाती हैं। हिन्दू धर्म में बाँस की बनी टिकटी पर भी शव को श्मशान तक ले जाने की प्रथा आज भी बनी हुई है। यह इस वजह से भी है, क्योंकि बाँस हल्का, प्रदूषण न फैलाने वाला (न जलाने पर) और टिकाऊ होता है। यह एक ऐसी खोखली लकड़ी होती है, जिसकी पतली-से-पतली खरपच्ची भी लोचदार और मज़बूत होती है। पहले दीपावली पर बाँस की खरपच्चियों से ही कंदील बनाया जाता था, जिसका चलन आज भी बहुत-से गाँवों में है। कहना न होगा कि आज दुनिया भर में बाँसों से बने सामान की बहुत माँग है। लेकिन बाँस उद्योग को उतना बढ़ावा नहीं मिल सका है, जितना कि उसे मिलना चाहिए।
आज दुनिया भर में लोग प्लास्टिक के सामान का बहुतायत में इस्तेमाल करते हैं। हर घर में, चाहे वह कितने भी रईस घर की बात हो; कुछ-न-कुछ प्लास्टिक का सामान ज़रूर रहती है। हालाँकि प्लास्टिक मनुष्य के साथ-साथ वातावरण के लिए कितनी घातक है, यह बात आज अधिकतर लोग जानते हैं। वैज्ञानिक प्लास्टिक से बढ़ते नुकसान के प्रति समय-समय पर चेताते रहते हैं, लेकिन प्लास्टिक हम सबके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। आज दुनिया में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो, जिसके जीवन से प्लास्टिक दूर हो। ऐसे में प्लास्टिक से छुटकारा पाना तो मुश्किल है, लेकिन बाँस आदि की तरह दूसरी प्राकृतिक चीज़ों के इस्तेमाल से हम प्लास्टिक के सामान के उपयोग को काफी हद तक कम कर सकते हैं। अगर बाँस से बने सामान की बात करें, तो इसके कम इस्तेमाल की कई वजहें हैं। पहली यह कि बाँस से बनी चीज़ें हर जगह इस्तेमाल नहीं हो सकतीं।
दूसरे शब्दों में कहें तो बाँसों से हर वो चीज़ नहीं बनायी जा सकती, जिसका उपयोग हर तरह से किया जा सके। दूसरी वजह यह है कि बाँस का सामान प्लास्टिक से काफी महँगा होता है। ऐसे में हर आदमी उसे नहीं खरीद सकता और तीसरी वजह यह है कि बाँस सीमित मात्रा में उपलब्ध होते हैं। लेकिन फिर भी बाँस से बने कई सामान बाज़ार में उपलब्ध रहते हैं। आजकल बाँस का सामान घर में फैंसी सजावट का हिस्सा बन चुका है। अब तो बाँस के कुछ बर्तन आदि भी बनने लगे हैं।
बहुउपयोगी है बाँस
बाँस एक ऐसी वनस्पतीय पेड़ है, जिसके सैकड़ों उपयोग हैं। अगर बाँसों से बनी चीज़ों और दूसरे उपयोगों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि यह करीब डेढ़ हज़ार तरह की चीज़ों में उपयोग किया जाने वाला बहुउपयोगी पेड़ है। बाँस का उपयोग वाद्य यंत्र और खाद्य पदार्थों से लेकर, फर्नीचर और भवन निर्माण से लेकर सजावट और किचिन में उपयोग की चीज़ों तक में काम आता है। आज बाँस से बनी हस्ताशिल्प वस्तुओं की दुनिया भर में बहुत माँग है। बाँस एक ऐसा पेड़ है, जो हल्का मज़बूत और टिकाऊ होता है। बाँस की लाठियाँ आज भी सर्वाधिक चलन में हैं। बाँस की लकड़ी के अलावा इसके पत्ते भी बहुत ही उपयोगी होते हैं। पत्तों और बाँस के अवशेष की लुगदी से कागज़ से लेकर बोतलें, प्लेट, कप, और किचिन का अन्य उपयोग सामान बनता है, जो काफी मज़बूत होता है। इसके अलावा बाँस का रेशा भी बनता है, जिसके थैले, दूसरे रेशेदार तथा मज़बूत बुनावटी चीज़ें बनायी जाती हैं।
बाँस उद्योग के प्रति निराशा क्यों
बाँसों के सबसे ज़्यादा तकरीबन 80 फीसदी जंगल एशिया में ही पाये जाते हैं। भारत इनमें अग्रणी श्रेणी में आता है और बाँसों की पैदावार के मामले में पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर है। भारत, चीन और म्यांमार करीब 1.98 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बाँसों के जंगल फैले हैं। भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश में बाँसों का वार्षिक उत्पादन तकरीबन 32.3 करोड़ टन है। यहाँ 1.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बाँस पैदा होता है। यहाँ बाँस की 136 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। लेकिन इस पर खुश होने की ज़रूरत नहीं है; क्योंकि दुनिया का एक बड़ा बाँस पैदावार क्षेत्र हमारे देश में होने के बावजूद हम केवल बाँस का चार फीसदी व्यापार ही कर पाते हैं, जो कि बाँस की कम पैदावार वाले कई देशों से काफी कम है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत में बने बाँस के सामान का निर्यात महज़ 0.11 करोड़ रुपये ही था, जो कि वित्तीय वर्ष 2016-17 में बढ़कर महज़ 0.32 करोड़ रुपये ही हो सका। जबकि सरकार अगर चाहे, तो इस क्षेत्र को बढ़ावा देकर इसके निर्यात को बढ़ावा देकर कई लाख करोड़ का व्यापार कर सकती है। बाँस उद्योग के प्रति लोगों की उदासीनता की वजह पता करने के लिए जब हमने इस उद्योग से जुड़े उत्तर प्रदेश के धौरांडाटा निवासी कल्लू मास्टर से बातचीत की, तो कुछ समस्याएँ निकलकर सामने आयीं। कल्लू मास्टर ने बताया कि करीब 10-12 साल पहले उन्होंने बाँस उद्योग शुरू किया था। उस समय वे कुर्सियाँ, मेजें और अन्य सामान बनाकर बड़े बाज़ारों में उसे बेचा करते थे; लेकिन काफी मेहनत के बावजूद उन्हें उतनी आमदनी नहीं होती थी, जितनी कि होनी चाहिए। न ही समय पर उनके सामान का पैसा मिल पाता था। इन परेशानियों के चलते वे अपने कारीगरों को सही मेहनताना नहीं दे पाते थे, जिसके कारण कारीगर मन लगाकर काम नहीं कर पाते थे। इसके अलावा बाँस से बना सामान हर जगह बिकता भी नहीं था। न ही बाज़ार में बहुत अच्छा दाम उन्हें मिल पाता था। उन्होंने बताया कि हस्तशिल्प वाले जिस कुर्सी को उनसे महज़ ढाई-तीन सौ में खरीदते थे, वही कुर्सी वे एक से डेढ़ हज़ार में उस समय बेचते थे। इन्हीं सब कारणों के चलते उन्हें यह काम बन्द करके खुद भी नौकरी करनी पड़ी। कल्लू मास्टर बताते हैं कि इस उद्योग में मेहनत करने वाले कारीगरों को ठीक से पैसा नहीं मिल पाता इसलिए यह उद्योग ग्रामीण इलाकों में बहुत अच्छा नहीं चल सका। अगर इस उद्योग में काम करने वालों को सही दाम मिलें, तो यह उद्योग गाँवों में आज भी खूब फल-फूल सकता है।
सरकार ने क्या किया
हमारे देश में बाँसों के जंगल तेज़ी से घट रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके यहाँ बाँस आज भी बहुतायत में पाये जाते हैं। बाँस उत्तर भारत में बहुत अधिक होता है। बड़ी बात यह है कि एक बाँस से धीरे-धीरे बाँसों का झुण्ड हो जाता है। अब तो इसकी पूर्ति के लिए बाँसों की खेती भी भारत में की जा रही है। हालाँकि जिस हिसाब से देश में बाँस उद्योग को रफ्तार मिलनी चाहिए, उस हिसाब से यह बढ़ा नहीं। बाँसों से बना सामान भी कुछेक जगहों पर ही उपलब्ध हो पाता है। हालाँकि केंद्र सरकार ने इस उद्योग को हमेशा बढ़ावा दिया है। उदाहरण के तौर पर मोदी सरकार भी फिलहाल स्वदेशी सामानों के उत्पादन पर विशेष ज़ोर दे रही है; ताकि लोगों को स्वरोज़गार के अवसर प्राप्त हो सकें और वे आत्मनिर्भर बन सकें। बता दें कि भारतीय वन अधिनियम-1927 में बाँस को वृक्ष की श्रेणी में रखा गया था, लेकिन सन् 2018 में मोदी सरकार ने बाँस को पेड़ की कैटेगरी से हटाकर इसे खेती में शामिल कर दिया था, ताकि किसान इसकी खेती कर सकें। इसके लिए राष्ट्रीय बैंबू मिशन के तहत तकनीकी सहायता देने के लिए बैंबू टेक्निकल सपोर्ट ग्रुप (बीटीएसजी) का भी गठन किया जा चुका है। हालाँकि मोदी सरकार ने बाँस के आयात पर सीमा शुल्क 10 फीसद से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दिया है। लेकिन इसका फायदा यह भी है कि बाहरी बाँस महँगा पडऩे के चलते यहाँ बाँस की खेती को बढ़ावा मिल सकेगा। देश में बाँस की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सन् 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बाँस विभाग को स्वीकृति दी थी, ताकि बाँसों के पौधारोपण की सामग्री से लेकर बागबानी, संग्रह सुविधा, समेकन, प्रसंस्करण, विपणन, सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यमों, कौशल विकास और ब्रांड कायम करने जैसी पहलों को बढ़ावा मिल सके। इसके अलावा खादी ग्रामोद्योग आयोग भी बाँस से बने उत्पादों को बढ़ावा देता है। खादी ग्रामोद्योग आयोग खादी कुटीर उद्योग के तहत बाँस उद्योग को वर्षों से बढ़ावा दे रहा है। खादी ग्रामोद्योग आयोग लोगों को प्रशिक्षण देकर उन्हें बाँस उद्योग लगाने की प्रेरणा देता है। इसके अलावा राष्ट्रीय बाँस मिशन भी इस काम को बढ़ावा देता है। केंद्र सरकार के अलावा कई राज्यों की सरकारें भी बाँस उद्योग को बढ़ावा देती हैं।
केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम राष्ट्रीय बाँस मिशन द्वारा वित्तीय वर्ष 2006-07 से पिछले साल तक देश भर में 3,61,791 हेक्टेयर भूमि पर बाँस के बाग लगाये जा चुके हैं, जिसमें 2,36,700 हेक्टेयर वन क्षेत्र और 1,25,091 हेक्टेयर कृषि तथा अन्य भूमि क्षेत्र है। इसके अलावा, बाँस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए गाँवों के पास बाँस के 39 थोक व खुदरा बाज़ार स्थापित करने के साथ-साथ 29 अन्य फुटकर क्रय केंद्र तथा 40 बाँस मंडियाँ भी देश भर में स्थापित की जा चुकी हैं।
हालाँकि अप्रैल, 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बाँस मिशन को स्वीकृति प्रदान करने के दौरान केंद्र सरकार का लक्ष्य था कि वह 2020 तक 1,290 करोड़ रुपये का निवेश करेगी। लेकिन इस उद्योग को वह गति नहीं मिल सकी है, जिसकी ज़रूरत है। अगर राज्यों की बात करें, तो बाँस से बने सामान के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार, तेलंगाना सरकार, महाराष्ट्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार ने भी कई कदम उठाये हैं; लेकिन वे अभी उतने लाभदायक साबित नहीं हुए हैं, जितनी उम्मीद की गयी थी। हमारे देश में आज भी बहुत-सी ज़मीन खाली पड़ी है, जिसमें काफी हिस्सा बंजर और ढलान वाली भूमि का है। सरकार को चाहिए कि वह बाँस उगाने के सघन कार्यक्रम को और रफ्तार देते हुए इन ज़मीनों को बाँस और दूसरी फसलों किसानों को दे। यहाँ पर सरकार को चीन से सीखने की ज़रूरत है, जिसने अपनी खाली पड़ी ज़मीन पर ज़मीन की गुणवत्ता के हिसाब से ऐसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है, जिनका उपयोग बड़े पैमाने पर किया जा सके। चीन बाँस की खेती को भी काफी बढ़ावा दे रहा है।