जयक्रिस्टोपुर गांव में दिलावर की चुस्ती और फूर्ति देखते ही बनती है. 14-15 साल का दिलावर ठेला चलाते हुए आता है. बोरा बिछाता है. ठेले पर लाद के लाए बंडलों में से कुछ को खोलता है और सामने बीड़ी के पत्ते और तंबाकू का ढेर लगाकर तराजू से तौलने में व्यस्त हो जाता है. दिलावर आ गया, दिलावर आ गया की सूचना गांव की गलियों में पहुंचती है. दौड़ती-भागती महिलाएं औरबच्चियां एक कॉपी के साथ टोकरीनुमा डाली में बीड़ी लेकर पहुंचने लगती है. दिलावर के साथ बैठा नरूल बीड़ियों को लेता जाता है, टोकरी में रखी कॉपी पर अपने रजिस्टर में कुछ लिखता है. दिलावर से महिलाएं बीड़ी पत्ता औरतंबाकू लेकर विदा होती जाती हैं. आधे घंटे में एक टोकरी बीड़ी पत्ता और तंबाकू तौलकर नन्हा दिलावर तुरंत अपनी दुकान को समेटता है और ठेले को चलाते हुए वहां से विदा हो जाता है. दूसरे गांव के लिए.
जयक्रिस्टोपुर से निकलने के बाद हम भगीरामपुर गांव, अंजना गांव, नया अंजना गांव, चाचकी, इलानी, तारानगर, संग्रामपुर, रहसपुर, चांचपुर आदि गांवों में जाते हैं. अमूमन सभी गांवों में दिलावर की तरह ही कोई न कोई ठेला वाला दिखता है, जो सुबह-सुबह तंबाकू और बीड़ी पत्ते के साथ पहुंचकर उसे देने और बदले में बीड़ी लेने में व्यस्त रहता है. बीड़ी पत्ता मध्यप्रदेश का होता है, तंबाकू गुजरात की और मजदूर पांकुड़ के. ये सारे गांव झारखंड के सीमावर्ती जिले पांकुड़ जिला के गांव हैं. पांकुड़ जिला के सदर प्रखंड के अंतर्गत आनेवाले 128 गांवों में करीब 90 फीसदी गांवों में यह नजारा हर सुबह देखा जा सकता है. ये तमाम गांव बीड़ी गांव हैं. बीड़ी मजदूरों की बसाहट है इन गांवों में. अधिकांश मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. यूं भी पांकुड़ जिला केंद्र सरकार की सूची में विशेष अल्पसंख्यक जिले के रूप में ही दर्ज है.
इन गांवों में अहले सुबह से लेकर रात में सोने तक अधिकांश लोगों की जिंदगी बीड़ी पर हाथ फेरते ही गुजरती है. बीड़ी और इन गांवों के लोगों की जिंदगी की ऐसी गुत्थमगुथाई हो गयी है कि यहां बीड़ी को हटाते हुए एक बड़े समुदाय और एक बड़ी आबादी के सामने अंधकारमय भविष्य का सवाल सामने आता है. यहां जो लड़की बीड़ी नहीं बना सकती, उसकी शादी में भी हजार मुश्किलें आती हैं. जो जितनी तेजी से बीड़ी के पत्तों पर हाथ फेरते हुए उसमें तंबाकू भरेगा और बीड़ी बनायेगा, वह उतना ही काबिल माना जाता है, योग्य भी. इन्हीं गांवों के लोगों ने मिलकर पांकुड़ को बीड़ी का देश का एक प्रमुख हब बनाया है. अकेले पांकुड़ में वैध तौर पर छह बड़ी बीड़ी फैक्टरियां इन्हीं के बुते चलती हैं. बंगाल की पताका बीड़ी फैक्टरी, महराष्ट्र की सीएनआई और सूरती बीड़ी फैक्टरी, मध्यप्रदेश की बालक बीड़ी फैक्टरी और उत्तरप्रदेश की श्याम बीड़ी फैक्टरी. इन वैध फैक्टरियों के अलावा अवैध तौर पर और बिना ब्रांड वाली कितनी फैक्टरियां है, यह सही-सही बताने की स्थिति में कोई नहीं होता. क्योंकि बीड़ी के धंधे में एक बड़ा खेल चलता है, जिससे पार पाने के लिए अवैध फैक्टरियों को चलाने में ही ज्यादा मुनाफा आता है. 20 लाख तक बीड़ी के प्रोडक्शन करनेवाली कंपनियों को न तो कोई टैक्स देना पड़ता है, न किसी खास नियम-कानून के दायरे मे लाया जाता है, सो अवैध की धूम इन दिनों ज्यादा ही मची है. यह जानकारी हमें रामअवतार गुप्ता से मिलती है, जो श्याम बीड़ी फैक्टरी के प्रबंधक हैं और पांकुड़ में ही रहते हैं.
खैर! यह सब तो तकनीकि पेंच की बात हुई,इस इलाके में घूमते हुए असल सवाल दूसरे किस्म के उभरे. एक बड़ा सवाल यह कि आखिर जिन मजदूरों के बुते वैध-अवैध इतनी फैक्ट्रियां पांकुड़ में चलती है और जिनकी वजह से देश के कोने-कोने के बीड़ी व्यापारियों के लिए पांकुड़ पसंदीदा जगह बना हुआ है, उन मजदूरों के हिस्से में इस बीड़ी से क्या आता है? मजदूरी के तौर पर 1100 बीड़ी बनाने पर 75 रुपये मिलते हैं. मजदूरी का यह हिसाब तो एक हजार बीड़ी का होता है लेकिन तंबाकू-पत्ता देने और बीड़ी कलेक्ट करनेवाले बीचौलिये 100 बीड़ी इसलिए ज्यादा रखते हैं ताकि अगर कुछ बीड़ी डैमेज मिले तो उसकी भरपाई की जा सके. हालांकि सच्चाई यह होती है कि डैमेज कंट्रोल के नाम पर लिये जानेवाले 100 ज्यादा बीड़ियों का भी बीचौलिये अलग से कारोबार करते हैं. अब देखें तो एक मजदूर अगर बीड़ी बनाने में बहुत काबिल है, उस्ताद है तो भी अधिक से अधिक हजार बीड़ी से ज्यादा वह दिन भर की मेहनत के बाद नहीं बना पाता. औसतन 500 बीड़ी से ज्यादा कोई नहीं बना पाता. इससे मजदूरी का हिसाब साफ लगाया जा सकता है लेकिन यह तो मजदूरी है, जिसका हिसाब-किताब साफ-साफ दिखता है और लोगों से बात करने पर पता भी चलता है लेकिन बीड़ी मजदूरों को दूसरी सौगात भी वर्षों से मिल रही है, जिसका न कोई लेखा-जोखा है, न जिसके बारे में पता करने का कोई उपक्रम-औजार और मानक. यह सौगात टीबी जैसी बीमारियों का है, जो तंबाकू के बीच दिन भर का समय गुजारने के बाद इन्हें मिलता तो है लेकिन टीबी से ही मर जाने तक इन्हें पता ही नहीं चल पाता कि आखिर वे अकाल, काल के गाल में किस बीमारी की वजह से समा गये!
आखिर ऐसा क्यों? जब केंद्र की सरकार देश भर में टीबी से लड़ने के लिए डॉट्स जैसे प्रोग्राम चला रही है, जन जागरूकता अभियान चलाने में लगी हुई है और तमाम संसाधनों और सुविधाओं को बहाल किये जाने की बात कर रही है तो टीबी की ज्यादा संभावनावाले इस इलाके में उस बीमारी की जांच के लिए बुनियादी सुविधा तक क्यों नहीं! क्यों जिला अस्पताल छोड़कर कहीं और टीबी बीमारी वाला प्रचार पोस्टर भी नहीं दिखता. न डॉट्स के कार्यकर्ता मिलते हैं न आंगनबाड़ी जैसे केंद्रों पर इसकी सुविधा मिलती है. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार कृपासिंधु बच्चन बताते हैं, यह एक खेल है, जिसे समझना होगा. कोई बीड़ी फैक्टरी नहीं चाहेगा कि इलाके में शिक्षा और स्वास्थ्य के समुचित उपाय हो, क्योंकि दोनों सुविधाएं बहाल हो जाने से फिर बीड़ी के धंधे पर असर पड़ेगा. अगर मजदूरों को पता चलने लगे कि उन्हें टीबी जैसी बीमारी हो रही है तो फिर वे सावधान होने लगेंगे, नयी पीड़ी को जोड़ने से हिचकने लगेंगे, इसलिए दूसरे किस्म के स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए दिखावे के तौर पर अलग से बीड़ी अस्पताल जैसा संस्थान तो खोल दिया गया है लेकिन इस इलाके विशेष के लिए टीबी से पार पाने के लिए अलग से कोई खास इंतजाम नहीं किया जाता, ताकि यह बीमारी रहस्यमयी बीमारी ही बनी रहे!
बच्चन की बातों को पड़ताल करने के लिए हम पांकुड़ के पास बीड़ी मजदूरों के लिए विशेष तौर पर खोले गये बीड़ी अस्पताल के प्रभारी डॉ सुहैल अख्तर से तस्दीक करते हैं. डॉ अख्तर जिला चिकित्सा पदाधिकारी भी हैं. वह कहते हैं- हमारे इस केंद्र पर बलगम जांच की व्यवस्था अब तक नहीं है न डॉट्स और टीबी की दवाइयों की सुविधा है. इसके लिए हमने जिला उपायुक्त से आग्रह किया तो उसके लिए टेंडर भी हुआ लेकिन अब तक सुविधाएं बहाल नहीं हो सकी है. साथ ही वर्किंग हैंड की भी भारी कमी है. पिछले साल इस अस्पताल में करीब 1350 मरीज जांच कराने आये थे. उनमें से कितने टीबी मरीज रहे होंगे, यह बगैर जांच के बताने की स्थिति में तो डॉ अख्तर नहीं होते लेकिन वह कहते हैं कि हर माज करीब 10 मरीज तो टीबी के आते ही होंगे, ऐसा उनमें पाये जानेवाले लक्षणों को देखकर लगता है.
पूर्व जिला चिकित्सा पदाधिकारी जितेंद्र सिंह भी कहते हैं कि हमारे पास कोई सुविधा नहीं कि बता सकें कि कितने मरीज टीबी से पीड़ित हैं. अधिकांश बुखार, सर्दी, खांसी मलेरिया आदि से पीड़ित होकर आते हैं लेकिन उनमें टीबी के भी मरीज होते हैं, यह उनके लक्षणों से पता चलता है. बीड़ी मजदूरों के लिए बने बीड़ी अस्पताल में सुविधाओं और संसाधनों के अभाव में भले ही टीबी मरीजों के सही-सही आंकड़े नहीं मिल पाते लेकिन जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ बीके सिंह के हवाले से बीड़ी जोन में टीबी की भयावहता का एक पक्ष उभरकर सामने आता है. बकौल डॉ बीके सिंह, एक जनवरी 2012 से लेकर 31दिसंबर 2012 तक 1200 से ज्यादा टीबी के मरीज पाये गये हैं, जिनका इलाज फिलहाल जिला सदर अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेंद्रों में चल रहा है. जून 2005 से पांकुड़ में टीबी का इलाज शुरू हुआ था. तब से लेकर अब तक आधिकारिक तौर पर आठ हजार से ज्यादा मरीज चिन्हित किये गये हैं. इतनी संख्या तब है, जब टीबी को लेकर जनजागरूकता अभियान लगभग शून्य दिखता है. प्रचार प्रसार के नाम 24 मार्च को टीबी दिवस के दिन अस्पताल में और कुछ स्कूलों में आयोजन होता है. ग्रामीण क्षेत्रों में उसकी दस्तक तक नहीं पड़ती!