वैसे तो खेलों और खेल भावना से हमारा दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं था, पर क्या करें मज़बूरी है। पूरी दुनिया दौडऩे कूदने में लगी है। सोने और चांदी के पदक जीत रही है। देश की प्रतिष्ठा और झंडे का सम्मान खिलाडिय़ों की जीत-हार के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है। हम सैद्धांतिक तौर पर इन सभी बातों से सहमत नहीं है, पर सियासत में सब को साथ लेना पड़ता है। वोट जो लेने हैं।
चलो हम मान लेते हैं कि खेलों में भाग लेना चाहिए, तो भाई आर्थिक खेल खेलो, सामाजिक खेल खेलो या फिर संप्रदायिक खेलों की तरफ जाओ। इन खेलों में जीतोगे तो सोने-चांदी के नकली पदक नहीं बल्कि असली सोना-चांदी मिलेगा। अपनी तिजोरी जितनी चाहे भर लो। फिर उस धन को काले से सफेद बनाने के लिए इन ‘नकली’ खेलों के प्रायोजक बन जाओ।
अपन लोग पदक तालिका में नौवें स्थन पर हैं। यदि कबड्डी जैसे टांग खिंचाई के खेल में हमने खिलाडिय़ों को भेजने की बजाए अपने छुट भैया नेताओं या नौकरशाहों को भेजा होता तो ‘गोल्ड मैडल’ पक्का था। टांग खिंचाई के मामले में इन दो प्रजातियों का कोई मुकाबला नहीं। मजाल है किसी को तरक्की करने दें या ऊपर उठने दें। एक उठेगा तो दूसरा उसकी टांग खींच कर नीचे ला देगा। टांग पकड़ कर खीचनें में हमारा जवाब नहीं। फिर यदि टांग पकड़ कर काम न चले , तो ये लोग पैर पकडऩे में भी देरी नहीं लगाते। ये टांग घसीटेंगे या तलवे चाटेंगे। इन खेलों में हमारे पदक पक्के। इसी टांग खिंचाई की वजह से बास्केटबाल में हम फिसड्डी। ऊपर ‘रिंग में गेंद डालने जाते हैं तो दूसरा ‘जंप’ लेते ही टांग पकड़ कर नीचे ले आता है।
एक मुकाबला झूठ बोलने का होता तो उसकी व्यक्तिगत और टीम स्पर्धाओं के स्वर्ण पदक सभी हमारी झोली में होते। सरेआम दिन को रात बताने और फिर उस बात पर लोगों को सहमत करा लने की जो खूबी हम में है वह विश्व के किसी देश में नहीं। हमारे यहां तो शैक्षणिक योग्यता के प्रमाणपत्र भी घर बैठे मिल जाते हैं। यहां कई ‘डिग्री होल्डर’ ऐसे भी हैं जिनका न तो कभी कोई सहपाटी रहा और न ही ऐसा कोई शिक्षक मिला जिसने उसे पढ़ाया, डिग्री भी छुट्टी वाले दिन जारी कर दी गई। है न कमाल। अब यह कोई आसान काम तो है नहीं, इस तरह की जाली डिग्री बनवाने में कितने जोखिम हैं। खैर पदक जीतना हो तो जोखिम तो उठाना ही पड़ता है।
एक प्रतियोगिता होनी चाहिए थी ‘कुर्सी के लिए दौड़’ यानी ‘रन फॉर चेयर’ मजाल हमारे अलावा कोई और उसमें स्वर्ण पदक जीत पाता। साहब कुर्सी की ‘आस’ में तो हमारे राजनेता 80-90 साल की उम्र में भी आत्मसम्मान को दरकिनार कर अपने से कहीं कनिष्ठ और कम उम्र नेताओं के हाथ-पैर जोड़ते रहते हैं। न हाथ जोडऩे वालों को कोई शर्म महसूस होती है और न जुड़वाने वालों को। कई बूढ़े बेचारे कुर्सी का अरमान दिल में वाले इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। कुर्सी केवल बैठने या आपको अधिकार देने की चीज़ नहीं अपितु कई बार हमने इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल होते देखा है। क्या निशाना ताड़-ताड़ कर कुर्सी फैंकी जा रही थी। साथ ‘माईक’ भी थे, पर ‘माईक’ में वह प्रहार क्षमता कहां तो कुर्सी में है।
जकार्ता में खेली गई एशियायी खेल प्रतियोगिता के निशानेबाजी के मुकाबलों में हमें उतने पदक नहीं मिले जितनी आस थी। अरे भई मिलते कैसे? आपने सभी निशानेबाज भेजे एक भी तो राजनेता नहीं भेजा। एक भी राजनीतिज्ञ होता तो मजाल है एक भी निशाना चूकता। हमने देखा है इन लोगों को दूसरों पर निशाना साधते। चाहे ये दूसरों पर पत्थर उछालें या तानाकशी करें निशाना सही लगेगा। ये तो ऐसे लोग हैं जो टारगेट को उस स्थान पर ला कर खड़ा कर दें जहां निशाना लगा है। जब तक जांच दल रपट देगा कि टारगेट के साथ छेड़-छाड़ की गई थी, तब तक तो अगले मुकाबले का समय आ जाएगा।
इन महान लोगों से ‘खिलाड़ीपन’ की भावना सीखने की ज़रूरत है। ये उस आदमी के जनाजे में सबसे अधिक रोते हुए मिलेंग , जिसकी हत्या इन्होंने खुद की हो। अब इससे अधिक ‘स्पोर्टस मैन्स स्पिरट’ क्या होगी। मेरी बिरादरी के सभी लोग जल्दी ही अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी (आईओसी) के पदाधिकारी से मिल कर उन खेलों को ओलंपिक खेल चार्टर में डलवाले का प्रयास करेंगे, जिसमें भारत को पदक मिलने की पूरी उम्मीद हो। इन खेलों में ‘घूस देना लेना’ को भी एक स्पर्धा के रूप में शमिल किया जा सकता है। फिर देखते हैं पदक तालिका में कौन माई का लाल हमसे आगे निकलता है।