झारखण्ड में भूमि अधिग्रहण के िखलाफ आदिवासी आन्दोलन को समझने के लिए मैंने वहाँ के कुछ आन्दोलनकारी साथियों से बात की। उनमें से श्रमिक व उपेक्षित वर्गों के पक्ष में 80 वर्षीय आन्दोलनकारी ज्ञान शंकर मजूमदार से तथा अन्य लोगों से उनकी व्यथा की जानकारी मिली। दु:ख की बात यह है कि जिन आदिवासियों ने देश की आज़ादी में बढ़-चढ़कर भाग लिया, आज वही बेघर हो रहे हैं। उनका कुसूर सिर्फ इतना है कि वे आज भी जल-जंगल-ज़मीन को बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। विदित हो कि हमारे देश में अगर सदैव साथ-साथ आज़ादी की पहली लड़ाई के समय झारखण्ड के आदिवासी इलाकों में विद्रोह शुरू हो गया था। मगर भारत के इतिहास में झारखण्ड के आदिवासियों की कुर्बानियों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए आदिवासियों ने अंग्रेजों से भी लड़ाई लड़ी और आज सरकारों और पूँजीपतियों से भी लड़ रहे हैं। अंग्रेजों के िखलाफ पहला विद्रोह तिलका माझी ने किया। यह क्षेत्र आज का संथाल परगना क्षेत्र है। उस समय यह क्षेत्र दामिन ई कोह के नाम से जाना जाता था। बाद में इस क्षेत्र का नाम संस्थाल परगना पड़ा। पहले विद्रोह में तिलका माझी के साथ सिधू और कानू भी शामिल थे। इस लड़ाई का विस्तार भागलपुर तक भी हुआ। दूसरा महत्त्वपूर्ण आदिवासी-विद्रोह संथाल-विद्रोह हुआ; जिसको संथाल-विद्रोह के नाम से जाना जाता है। यह मुख्यत: दो मुद्दों पर था। सरकार 1855-1856 में रेलवे लाइन बिछा रही थी, जिसके लिए उनकी ज़मीनें ली जा रही थीं। रेलवे के निर्माण के लिए ज़बरदस्ती संथाल परगना में मज़दूरों से काम कराया जा रहा था। ये दो मुद्दे थे, जिसके कारण उन्होंने विद्रोह किया था। तीसरा कारण ज़मींदारों का शोषण था। पूर्वोत्तर भारत में ज़मींदारी प्रथा स्थापित हो चुकी थी। ज़मींदार उनसे कर (टैक्स) की वसूली करते थे। संथाल विद्रोह मुख्यत: अंग्रेजी सरकार और ज़मींदारी-व्यवस्था के विरुद्ध था। इस तरह के छोटे क्षेत्र में 10 हज़ार संथालों ने अपनी जान की कुर्बानी दी। इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास में इसका उल्लेख नहीं किया है; क्योंकि यह इतिहास ब्रिटिश-इतिहासकारों ने लिखा है। संथाल के आदिवासी-विद्रोह को ज़मींदारी-प्रथा और ब्रिटिश सरकार के विरोध में माना जा सकता है। इसका दूसरा पहलू भी है कि गैर- आदिवासी लोगों ने भी इस विद्रोह में मदद की थी। जैसे लोहार, कुम्हार और दूधिया लोगों ने मदद की थी। वे लोग आदिवासियों के संदेश वाहक थे। इसमें किसी जाति या वर्ग का हिस्सेदारी नहीं थी। इसके अगुआ आदिवासी थे और उसकी सहायता के लिए लोहार, कुम्हार, दुधिया और अन्य वर्गों के लोग शामिल थे। यह बहुत ही रोचक है।
संथाल विद्रोह के अलावा 1880 में कोल विद्रोह हुआ। आिखरी विद्रोह बिरसा मुंडा ने किया था; जिसको मुंडा-विद्रोह के नाम से जाना जाता है। वे आदिवासियों के सरदार थे; जिसे सरदार-विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। इससे पहले भी कुछ सरदार-विद्रोह हुआ था; लेकिन इस विद्रोह के आिखरी सरदार बिरसा थे। यह विद्रोह संथाल विद्रोह से अलग था। यह विद्रोह फॉरेस्ट-विद्रोह था। जो 1870 फॉरेस्ट एक्ट के विरोध में हुआ था। यह विद्रोह मुख्यरूप से फॉरेस्ट-एक्ट के विरोध में था। बाद में उनको पकड़कर जेल में बंद कर दिया गया; जिनकी मृत्यु सन् 1900 में हो गयी। कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें मार दिया गया और कुछ लोगों का कहना है कि वह मर गये। कुछ भी हो संथाल-विद्रोह में बहुत गंभीरता, गहनता और दिशा-निर्देश थे। झारखण्ड के खनिज पदार्थों से सम्पन्न प्रदेश होने का खामियाज़ा भी इस क्षेत्र के आदिवासियों को चुकाते रहना पड़ा है। यह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा खनिज क्षेत्र है, जहाँ कोयला, लोहा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और इसके अलावा बाक्साइट, ताँबा चूना-पत्थर इत्यादि जैसे खनिज भी बड़ी मात्रा में हैं। यहाँ कोयले की खुदाई पहली बार सन् 1856 में शुरू हुआ और टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी की स्थापना 1907 में जमशेदपुर में की गयी। इसके बावजूद कभी इस क्षेत्र की प्रगति पर ध्यान नहीं दिया गया। केन्द्र में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, उसने हमेशा इस क्षेत्र के दोहन के विषय में ही सोचा था। आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी के लिए यह सहूलियत हुई कि बिरसा भगवान थे। उन्होंने एक मज़हब स्थापित किया; जिसे विरसाइत के नाम से जाना जाता है। एक युवा के तौर पर बिरसा ने क्रिश्चियनिटी (इसाईयत) को अपनाया था। बाद में उन्होंने क्रिश्चियनिटी को छोड़ दिया और अपना धर्म स्थापित किया। जो बिसाइयत के नाम से जाना गया। बिरसाइयत में प्रकृति की पूजा होती है, जिसे धरती-आबा कहा जाता है। यह 10 कमांडमेंट के समान है। जैसे क्रिश्चियनिटी में अपने मानने वालों को 10 कमांडमेंट दिये जाते हैं। संथाल-विद्रोह का नेतृत्व सिधू और कानू नामक दो भाइयों ने किया था। उस विद्रोह में इतनी तीव्रता थी कि इन दोनों भाइयों का फाँसी पर लटका दिया गया। कानू उन दोनों में प्रमुख थे। वह पेड़, जिस पर उनको फाँसी दी गई थी; आज भी शहर में है। वह स्थान गोडा •िाला में है। इस विद्रोह ने उनको इतना झकझोर दिया कि वहाँ पर अर्द्धसैनिक बल का शासन स्थापित किया गया, जो आज भी वहाँ स्थापित है। इसका प्रमाण यह है कि आज भी वहाँ •िाला कमिश्नर का शासन स्थापित है। इनको •िाला कमिश्नर क्यों कहा जाता है? हरियाणा के कुछ इलाकों में भी •िाला कमिश्नर हैं, उनके पास अधिक शक्ति है। उनके पास पुलिस-बल भी है।
तीसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब 1872 के अधिनियम-3 को स्थापित किया गया, जिसके मुताबिक उनकी ज़मीन को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है। आज़ादी के ठीक बाद 1949 में 1872 के अधिनियम-3 के नाम बदलकर संथाल परगना प्रवृत्ति अधिनियम कर दिया गया, जिसके अनुसार ज़मीन हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इसके अनुसरण में दूसरे अन्य विद्रोह भी किये गये। जब भारतीय संविधान बनाया गया, तो उसमें दो समितियाँ बनायी गयीं। एक नॉर्थ-ईस्ट रीजन और दूसरी सेन्ट्रल इंडिया। हम अभी 370 की बात कर रहे हैं; लेकिन हमारे संविधान के 6 शेड्यूल (अनुसूची) में नार्थ ईस्ट रीजन को प्रस्तावित किया गया था। 6 शेड्यूल (अनुसूची) आदिवासी का चयनित बॉडी है। यह शक्तिहीन रूप में भारतीय संविधान की अवधारणा का वहन करता है। 6 सेड्यूल आदिवासी क्षेत्रों के लिए है। इसमें झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र शामिल हैं। संविधान की पाँचवीं अनुसूची में एरिया का विनियमन है। राज्यवार विनियमन अलग-अलग है। उन्होंने राज्यवार विनियमन बनाया है। इसके आधार पर जब पंचायत राज्य चेप्टर-9 को लागू किया गया, तो यह आदिवासी इलाकों में लागू नहीं हुआ। बाद में जब पेशा (पंचायत एक्सटेंशन डिफ्यूटेड एरिया एक्ट) पंचायती राज्य आदिवासी बहुल क्षेत्र के लागू किया गया। अभी भी 14 क्षेत्र ऐसे हैं, जो शेड्यूल एरिया में आता है। वहाँ कुछ शेड्यूल एरिया के साथ-साथ शहरी क्षेत्र (अर्बन एरिया) भी है। ज्ञानशंकर मजूमदार ने बताया कि जब झारखण्ड बनाया गया, उस समय बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने कानून को बदला और ब्लॉक के हिसाब से आरक्षण लागू किया। इससे पहले 1971 में शेड्यूल एरिया में •िालों को शामिल किया गया। 2003 में झारखण्ड बनाने के बाद भारत सरकार ने नोटिफिकेशन बाबूलाल मरांडी के विस्तार में जारी किया। दोबारा खासतौर पर मैंने इस पर पहल की थी। 2007 में री-नोटिफिकेशन जारी किया गया, जिसमें अब शहरी क्षेत्र भी शामिल किया गया।
पहले इसमें सिर्फ ग्रामिण क्षेत्र ही शामिल था। परमानेंट सेटलमेंट एक्ट (स्थायी अधिनियम) लागू होने के बाद जब बहुत-से आन्दोलन पूर्वी उत्तर प्रदेश तक चला, जिसमें बहुत सारे धरना-प्रदर्शन और आन्दोलन के बाद एक अधिनियम बना; उसमें संथाल परगना को छोड़कर छोटा नागपुर में टेंडेंसी एक्ट (प्रवृत्ति अधिनियम) को लागू किया गया। यहाँ दो भूमि अधिनियम बने, जो बिहार भूमि प्रवृत्ति अधिनियम से भिन्न है। बिहार प्रवृत्ति अधिनियम बाद में आया। बंगाल प्रवृत्ति अधिनियम, बिहार प्रवृत्ति अधिनियम, संथाल परगना प्रवृत्ति अधिनियम और छोटा नागपुर प्रवृत्ति अधिनियम, बिहार को छोड़कर एक अलग अधिनियम है। इसमें अन्तर यह है कि संथाल परगना प्रवृत्ति अधिनियम में भूमि हस्तांतरित नहीं हो सकती है। लेकिन शक्तिहीन रूप में छोटा नागपुर प्रवृत्ति अधिनियम के अंतर्गत भूमि अपनी जाति के अंतर्गत हस्तांतरित हो सकती है। इसमें •िाले के अंतर्गत आदिवासी से आदिवासी, पिछड़ी जाति से पिछड़ी जाति में भूमि हस्तांतरित की जा सकती है। अब वे इसमें परिवर्तन करने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए सीएनटी एक्ट (छोटा नागपुर अधिनियम) लागू किया है। फिर 1912 में छोटा नागपुर उन्नत समाज छोटा नागपुर के इलाके के विकास के लिए बनाया गया। 1934 में छोटा नागपुर समाज के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर प्रवृत्ति अधिनियम लागू हुआ।
राजनीतिक स्तर पर 1938 में जयपाल सिंह के नेतृत्त्व में झारखण्ड पार्टी का गठन हुआ, जो पहले आमचुनाव में सभी आदिवासी •िालों में पूरी तरह से दबंग पार्टी रही। जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तो झारखण्ड की भी माँग उठी; जिसमें तत्कालीन बिहार के अलावा उड़ीसा और बंगाल का भी क्षेत्र शामिल था। आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखण्ड के दावे को खारिज कर दिया। 1950 के दशकों में झारखण्ड पार्टी बिहार में सबसे बड़े विपक्षी दल की भूमिका में रही; लेकिन धीरे-धीरे इसकी शक्ति का क्षय होना शुरू हुआ। आंदोलन को सबसे बड़ा आघात तब पहुँचा, जब 1963 में जयपाल सिंह ने बिना अन्य सदस्यों से विचार-विमर्श किये झारखण्ड पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप छोटा नागपुर क्षेत्र में कई छोटे-छोटे झारखण्ड नामधारी दलों का उदय हुआ, जो आमतौर पर विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्त्व करती थीं और विभिन्न मात्राओं में चुनावी सफलताएँ भी हासिल करती थीं।
झारखण्ड आंदोलन में ईसाई-आदिवासी और गैर-ईसाई आदिवासी समूहों में भी परस्पर प्रतिद्वंद्विता की भावना रही है। इसके कुछ कारण शिक्षा का स्तर रहे, तो कुछ राजनीतिक। 1940, 1960 के दशकों में गैर-ईसाई आदिवासियों ने अपनी अलग संस्थाओं का निर्माण किया और सरकार को प्रतिवेदन देकर ईसाई आदिवासी समुदायों के अनुसूचित जनजाति के दर्जे को समाप्त करने की माँग की, जिसके समर्थन और विरोध में राजनीतिक गोलबंदी भी खूब हुई। अगस्त 1995 में बिहार सरकार ने 180 सदस्यों वाले झारखण्ड स्वायत्तशासी परिषद् की स्थापना की। बिनोद बिहारी महतो 25 साल तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उनका अविश्वास अखिल भारतीय दलों से टूट चुका था। उन्होंने सोचा था कि कांग्रेस और जनसंघ सामंतवाद, पूँजीवादी लिए थे; दलित और पिछड़ी जाति के लिए नहीं थे। इसलिए इन दलों के सदस्य के रूप में दलित और पिछड़ी जाति के लिए लडऩा मुश्किल है। फिर उन्होंने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा बनाया। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के बैनर तले झारखण्ड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन हुए। 1986 में निर्मल महतो ने ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन की स्थापना की और झारखण्ड नाम के अलग राज्य के लिए कई आंदोलन किये।
गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा अधिकतर आन्दोलनों का नेतृत्त्व किया गया। अलग राज्य की माँग के बाद बहुत बदलाव हुआ। भूमि-अधिग्रहण के िखलाफ सबसे बड़ा आन्दोलन बिरसा मुंडा का था। उसके बाद छोटा नागपुर उन्नत समाज का। उसके बाद सारा का सारा आन्दोलन अलग राज्य की माँग को लेकर हुआ। विस्थापन की समस्या वहाँ रही। इसका मोमेन्टम कुछ और रहा। राज्य में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं हुआ। कुछ स्थानीय आन्दोलन रहे। वहाँ खतियानी आन्दोलन स्थानीय स्तर पर चला। यह आन्दोलन उच्च न्यायलय तक गया। लेकिन उच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया। पंचायत चुनाव का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय तक आया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पंचायत चुनाव आरक्षण के आधार पर लड़ा जाए। यह उस इलाके के लिए बड़ा फैसला था। इसके अलावा कोई ऐसा मुद्दा मेरी नज़र में नहीं है जो सर्वोच्च न्यायालय तक गया हो। एक लड़ाई यह भी है कि निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्रों में अनुसूजित जाति अनुसूचित जनजाति के आधार पर आरक्षण दिया जाता है। 2013 में भूमि-अधिग्रहण संशोधन विधेयक में भूमि-अधिग्रहण अधिनियम पारित हुआ। उसमें में संथाल परगना के प्रावधान को नहीं छेड़ा गया है। यह उनके आन्दोलन की सबसे बड़ी कामयाबी है।