झारखण्ड में पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने की माँग लम्बे समय से चल रही है। पिछले कुछ दिनों से आरक्षण के इस मुद्दे से राजनीति गरमा गयी है। सत्ताधारी दल- झामुमो, कांग्रस, राजद हों या फिर विपक्षी दल भाजपा और आजसू, सभी इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर गोल-गोल घूम रहे हैं और सभी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण दिलाने और श्रेय लेने के होड़ में लगे हैं। सरकार ने तो अब विधानसभा में भी इस पर क़दम उठाने की घोषणा कर दी। लेकिन इस मुद्दे के पेच सुलझाना इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि इसके रास्ते में कई ऐसी बाधाएँ हैं, जिनसे पार पाना दोधारी तलवार से चलने से कम नहीं है। अब मौज़ूदा सरकार इसे कैसे सुलझा पाती है? यह देखना दिलचस्प होगा। राज्य में आरक्षण पर मचे बवाल को लेकर बता रहे हैं प्रशान्त झा :-
आरक्षण शब्द सुनते ही ज़ेहन में अस्सी की दशक याद आती है। साथ ही याद आ जाते हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह। ‘राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है’ के नारे के साथ वी.पी. सिंह देश के आठवें प्रधानमंत्री बने थे। बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आये वी.पी. सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नये मसीहा और स्वच्छ व्यक्ति की छवि के साथ अवतरित हुए थे। लेकिन मंडल कमीशन की सि$फारिशों को देश में लागू करते ही वी.पी. सिंह सवर्ण समुदाय की नज़र राजा नहीं रंक और देश का कलंक में तब्दील हो गये। हालाँकि ओबीसी का बड़ा तबक़ा उन्हें नायक के तौर पर भी देखता है।
मंडल कमीशन का विरोध पूरे देश में इस क़दर हुआ कि संसद में विश्वास मत के दौरान वीपी सिंह की सरकार चली गयी। दरअसल आरक्षण का यह मुद्दा ही ऐसा है कि जिस पर चलना दोधारी तलवार से कम नहीं है। झारखण्ड की सियासत में यह मुद्दा इन दिनों गरम है। ओबीसी के 27 फ़ीसदी आरक्षण की माँग को राजनीतिक मजबूरी में ही सही पर कोई भी दल इससे ख़ुद को अलग नहीं कर पा रहा है। नतजीतन हर दल चाहे सत्ताधारी झामुमो, कांग्रस और राजद हो या फिर विपक्षी दल भाजपा और आजसू सभी इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर घूम रहे और राजनीति कर रहे हैं। मौज़ूदा हेमंत सरकार ने पिछले दिनों शीतकालीन सत्र के दौरान ओबीसी आरक्षण की दिशा में क़दम उठाने की घोषणा कर दी है।
अब राज्य में इसे लेकर एक नयी बहस शुरू हो गयी है। ज़ाहिर है आने वाले समय में इससे विवाद भी पैदा होंगे। देखना है कि मौज़ूदा सरकार क्या फार्मूला ले कर आती है? कैसे सभी को सन्तुष्ट कर पाती है और कैसे विवाद का समाधान निकाल सकती है? राज्य इस आरक्षण की दिशा में कैसे आगे बढ़ता है?
पुराना है आरक्षण का मुद्दा
भारत में आरक्षण का इतिहास आज़ादी से पहले से है। भारत में आरक्षण की शुरुआत सन् 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (आरक्षण) की माँग की थी। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएँ रखी गयी हैं। इसके अलावा 10 वर्षों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किये गये थे।
सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों से माँगी राय
आरक्षण का मुद्दा ऐसा है कि 70 साल में भी यह देश से समाप्त नहीं हो सका। राजनीतिक दलों के लिए चुनाव के लिए यह एक अहम मुद्दा है। सभी दल इसे लेकर अपना-अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। नतीजतन मामला न्यायालय तक भी पहुँचता रहा है। सन् 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फ़ीसदी तय कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय के इसी फ़ैसले के बाद क़ानून बन गया कि 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की 50 फ़ीसदी तय सीमा में बदलाव के एक मामले पर सुनवाई के दौरान राज्यों से राय माँगी थी। देश के आधा दर्ज़न ऐसे राज्य हैं, जो आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से ज़्यादा करने के पक्ष में हैं। इनमें हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और झारखण्ड समेत अन्य राज्य शामिल हैं। राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में माराठा, गुजरात में पटेल आदि राज्यों में आरक्षण की माँग कर रहे हैं। इनके माँग में सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आड़े आ जाता है। संविधान में भी प्रावधान किया गया था कि किसी भी सूरत में 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता; लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए संविधान तक में संशोधन किया गया। केंद्र की मोदी सरकार ने सामान्य जाति में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया है। इसके अंतर्गत सरकारी नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया है। यह पहली बार है, जब देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है। उधर, राज्यों द्वारा आरक्षण का दायरा बढ़ाने का मामला फ़िलहाल न्यायालय में ही लम्बित है।
ओबीसी की माँग
झारखण्ड में अनुसूचित जनजाति को 26 फ़ीसदी, अनुसूचित जाति को 10 और पिछड़े वर्ग को 14 फ़ीसदी आरक्षण मिल रहा है। इसके अलावा केंद्र द्वारा आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण का लाभ मिल रहा है। राज्य के ओबीसी लम्बे समय से 14 से 27 फ़ीसदी आरक्षण करने की माँग कर रहे हैं। अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाति से कटौती कर ओबीसी का आरक्षण बढ़ाना सम्भव नहीं है। अगर ऐसा किया गया, तो उनमें असन्तोष उत्पन्न होगा, साथ ही संवैधानिक परेशानी भी आएगी। अगर सीधे आरक्षण 14 से 27 किया गया, तो आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से ऊपर जाएगा। यानी राज्य में आरक्षण 73 फ़ीसदी हो जाएगा। सरकार के पास यह मुद्दा विचाराधीन है। प्रस्ताव के अनुसार, आरक्षण 73 फ़ीसदी होगा। इसमें एसटी को 32, एससी को 14 और पिछड़े वर्ग को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव है।
राजनीतिक दल उठा रहे मुद्दा
दरअसल आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर लम्बे समय से राजनीति चल रही है। इस मुद्दे को लेकर कई राजनीतिक दल चुनावी बैतरणी में अपनी नैया तक पार लगा रहे हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबन्धन की सरकार है। विपक्ष में भाजपा और आजसू है। झामुमो ने चुनावी वादे में ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण करने की बात कही थी। कांग्रेस ने भी अपने चुनाव प्रचार में इसे शामिल किया था। इन दिनों सभी राजनीतिक दल ओबीसी आरक्षण को 27 फ़ीसदी करने को लेकर गतिविधियाँ बढ़ा दी हैं। कांग्रेस जनसभाओं में इस मुद्दे को उठा रही, तो आजसू आन्दोलन करने की भी बात कर रहा। भाजपा भी इसके पक्ष में दिख रही है।
सरकार ने कर दी है घोषणा
दिसंबर में झारखण्ड विधानसभा का शीतकालीन सत्र ख़त्म हुआ। शीत सत्र के आख़िरी दिन सदन में कांग्रेस विधायक अंबा प्रसाद, आजसू विधायक सुदेश महतो समेत अन्य विधायकों ने ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने के मुद्दे को उठाया। जिस पर सरकार की ओर से संसदीय कार्यमंत्री आलमगीर आलम ने जवाब दिया। उन्होंने कहा कि इस मसले को लेकर सरकार संवेदनशील है। सरकार इस दिशा में क़दम उठा रहा है और जल्द ही ठोस क़दम उठाएगी। बहुत जल्द इसके लिए एक समिति बनायी जाएगी।
पेच सुलझाना नहीं आसान
भारत में ख़ासकर हिन्दी पट्टी के राज्यों में आरक्षण एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा है, जिसकी लहरों पर सवार होकर कई लोग सियासी ऊँचाई तय करने में सफल हो गये। कई आज भी सफल हो रहे हैं। तो कई असफल भी रहे। इसके कई मिसाल देखने को मल जाएँगे। इसलिए इस मामले को निपटाना किसी जोखिम से कम नहीं है। आरक्षण जैसे मुद्दे में सफलता से अधिक असफलता का सन्देह हमेशा रहता है। यह स्व. वी.पी. सिंह के मामले में लोग देख चुके हैं। क्योंकि हर किसी को सन्तुष्ट करना आसान काम नहीं है। अब देखना होगा कि हेमंत सरकार ने विधानसभा में आरक्षण का दाँव तो खेल दिया है, आमजन का विरोध या समर्थन कितना हुआ, यह सरकार के बढ़ते क़दम से दिखेगा। झारखण्ड में सबसे बड़ी बाधा सर्वोच्च न्यायालय का 50 फ़ीसदी के आरक्षण को लेकर फ़ैसला है। इसके अलावा राज्य में जातीय आधार पर सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाएँ हैं। बिहार से अलग होकर बने इस राज्य में कई ऐसे जातीय समूह भी हैं, जिन्हें बिहार में तो आरक्षण मिलता है; लेकिन झारखण्ड में नहीं मिलता। इसके अलावा सामान्य वर्ग के असन्तोष का ख़तरा भी है। इन सभी को साधना और रास्ता निकलना आसान नहीं है। फ़िलहाल सरकार ने अभी आश्वासन ही दिया है। सरकार के आश्वासन के बाद अन्दरख़ाने में मुद्दा धीरे-धीरे सुलगने लगा है। यह तो वक़्त ही बताएगा कि आरक्षण का मसला राज्य को किस दिशा में ले जाएगा। फ़िलहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से सरकार कैसे निपटती है? सरकार के बढ़ते क़दम को थामने के लिए कोई न्यायालय तो नहीं जाता। सरकार के निणर्य का विरोध किस तरह से उठता है। लिहाज़ा अभी सरकार के आरक्षण का दायरा बढ़ाने के आश्वासन पर सभी इंतज़ार करो और देखो की ही स्थिति है।