एक कहावत है ‘चोर के लिए ताला क्या, बेईमान के लिए केवाला (काग़ज़ात) क्या?’ झारखण्ड में यह कहावत यथार्थ में बदल गया है। ज़मीन की हेराफेरी में मालिकाना हक़ रखने वाले को केवाला भी काम नहीं आ रहा है। राज्य के दबंग व दलाल और रिश्वतख़ोर अधिकारियों व कर्मियों की मिलीभगत से ज़मीन का फ़र्ज़ीवाड़ा सातवें आसमान पर है। ज़मीन के काग़ज़ात भी बदल जाते हैं और ख़रीद-फ़रोख़्त भी हो जाती है। ख़ास बात यह है कि इन सबको कुछ बेईमान राजनेताओं का छत्रछाया भी प्राप्त है, जिसकी वजह से कार्रवाई नहीं हो पाती।
रसूख़ इतना है कि राज्य स्तर पर जाँच के बाद मामला फाइलों में दम तोड़ देती है। इन दिनों ज़मीन के फ़र्ज़ीवाड़े की चर्चा राज्य में गर्म है। क्योंकि इसके ज़रिये मनी लॉन्ड्रिंग होने के शक में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने एक केस को अपने हाथों में ले लिया। ईडी ने कार्रवाई शुरू की तो राज्य के एक आईएएस अधिकारी से लेकर अंचल कर्मचारी, बड़े-बड़े कारोबारी और ज़मीन के दलाल तक गिरफ़्त में आ रहे हैं। रांची के एक ज़मीन को लेकर शुरू की गयी कार्रवाई दूर तलक जाने की उम्मीद है। छापेमारी के बाद यहाँ केवल एक ही नहीं कई ज़मीनों का फ़र्ज़ीवाड़ा सामने आने लगा है। चर्चा है कि केवल रांची में 10,000 करोड़ रुपये के ज़मीन की फ़र्ज़ीवाड़ा के सुबूत मिले हैं। राज्य के अन्य शहरों की तो अभी चर्चा ही नहीं है।
सेना की ज़मीन भी नहीं छोड़ी
ईडी ने 13 अप्रैल को ज़मीन फ़र्ज़ीवाड़ा मामले में बड़ी कार्रवाई की। खनन घोटाले मामले के बाद इडी की यह दूसरी बड़ी कार्रवाई थी। इस कार्रवाई में रांची के पूर्व उपायुक्त (डीसी) छवि रंजन शिकंजे में आ गये हैं। वर्तमान में छवि रंजन समाज कल्याण विभाग में निदेशक के पद पर हैं। इडी ने आईएएस छवि रंजन, अंचलकर्मी भानू प्रताप, रिम्स अस्पताल कर्मी अफ़सर अली ख़ान समेत ज़मीन के दलाली करने वालों के झारखण्ड, बिहार और पश्चिम बंगाल में 22 ठिकानों पर एक साथ छापेमारी की।
इन जगहों से ज़मीन से जुड़े ऐसे काग़ज़ात मिले जिन्हें देख कर अधिकारी भी चौंक गये। केवल अंचलकर्मी के घर से ही बड़े-बड़े बक्सों में ज़मीन से जुड़े दस्तावेज़ मिले। इडी ने रांची के बरियातू स्थित सेना के क़ब्ज़े वाली 4.55 एकड़ ज़मीन की ख़रीद-बिक्री मामले में यह कार्रवाई की थी, पर छापेमारी में कई ऐसे दस्तावेज़ मिले जो फ़र्ज़ीवाड़ा की जड़ कितनी गहरी है, इसकी जाँच में इडी को सम्भवत: महीनों लगे।
रंजन से पूछताछ, सात गिरफ़्तार
ईडी ने छापेमारी के बाद अंचलकर्मी भानु प्रताप, रिम्सकर्मी अफ़सर अली ख़ान समेत सात लोगों को गिरफ़्तार किया। इन लोगों से पूछताछ हुई। अफ़सर अली ख़ान रिम्स का एक मामूली कर्मचारी है। जानकारी के अनुसार, ज़मीन के फ़र्ज़ी काग़ज़ात बनाना अफ़सर अली के बाएँ हाथ का खेल है। उसकी ज़िला प्रशासन और अंचल कार्यालय में गहरी पैठ है। उसने इसके ज़रिये अकूत संपत्ति कमायी है।
इन सात लोगों से पूछताछ और ज़ब्त काग़ज़ात की जाँच हुई तो रांची ज़िला प्रशासन की भूमिका भी संदेह के घेरे में आ गयी। ईडी ने तत्कालीन डीसी छवि रंजन को पूछताछ के लिए तलब किया। उनसे 24 अप्रैल को 10 घंटे पूछताछ हुई। छवि रंजन को अपने और परिवार के अन्य सदस्यों का ब्योरा लेकर 01 मई को फिर ईडी कार्यालय बुलाया गया है। उनसे फिर पूछताछ होगी। चर्चा है कि उनकी अगर गिरफ़्तारी होती है, तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
एक टिप्पणी से फँसे पूर्व डीसी
सूत्रों के मुताबिक, तत्कालीन डीसी छवि रंजन ने प्रदीप बागची नामक व्यक्ति द्वारा दिये गये आवेदन को पर सेना की ज़मीन सम्बन्धित रिपोर्ट सर्किल ऑफिसर (सीओ) से माँगी थी। सीओ ने सीआई भानू को जाँच कर रिपोर्ट देने को कहा। सीआई की रिपोर्ट के आधार पर छवि रंजन ने मौखिक रूप से तत्कालीन सब रजिस्ट्रार घासीराम पिंगुवा को उस ज़मीन की रजिस्ट्री कोलकाता के जगतबंधु टी एस्टेट प्रा. लि. के निदेशक दिलीप कुमार घोष के नाम करने का निर्देश दिया। सब रजिस्ट्रार ने ख़ुद को बचाने के लिए निबंधन के दौरान सेल डीड पर लिख दिया कि उपायुक्त सह ज़िला दंडाधिकारी को संबोधित अंचल अधिकारी बडग़ाईं, रांची के ज्ञापांक 847, दिनांक 25 सितंबर, 2021 के आलोक में निबंधन की स्वीकृति दी जाती है। यही टिप्पणी छवि रंजन के लिए काल बन गयी।
दूसरे राज्य में बनते थे काग़ज़
सूत्रों की मानें, तो ईडी को रांची में अरबों की ज़मीन की ख़रीद बिक्री में गड़बड़ी और उससे मनी लांड्रिंग के साक्ष्य मिले हैं। अधिकतर काग़ज़ात कोलकाता से बनवाये जाते थे। अंचलकर्मी के यहाँ छापामारी में कोलकाता रजिस्ट्री ऑफिस के दो फ़र्ज़ी स्टांप भी मिले। वहीं, इस मामले में गिरफ़्तार प्रदीप बागची द्वारा पेश दस्तावेज़ में बताया गया है कि 4.55 एकड़ ज़मीन को उसके पिता ने 1932 में ख़रीदी थी और इसकी रजिस्ट्री कोलकाता में हुई थी। इस दस्तावेज़ में राज्य का उल्लेख पश्चिम बंगाल के रूप में है, जबकि 1932 में राज्य का नाम बंगाल था।
पश्चिम बंगाल 1947 में अस्तित्व में आया। इसी तरह दस्तावेज़ में कई जगहों पर गवाहों, विक्रेता और क्रेता के पते के साथ पिन कोड का उल्लेख किया गया है। उस समय पिन कोड का अस्तित्व ही नहीं था। पोस्टल इंडेक्स नंबर (पिन) की शुरुआत 15 अगस्त, 1972 को हुई थी। दस्तावेज़ में एक गवाह का स्थायी पता भोजपुर ज़िला बताया गया है, जबकि बिहार के इस ज़िले की स्थापना 1972 में हुई। ईडी इन दस्तावेज़ों का फोरेंसिक जाँच भी करवा रही है।
खुलेंगे फ़र्ज़ीवाड़े के और मामले
ईडी ज़ब्त काग़ज़ात को देख रही है। आईएएस छवि रंजन से पूछताछ की गयी। अन्य छ: आरोपियों को रिमांड पर लेकर पूछताछ चल रही है। सूत्रों की मानें, तो रांची में केवल सेना की 4.55 एकड़ ज़मीन ही नहीं, कई अन्य ज़मीनों के फ़र्ज़ीवाड़े के सुबूत मिले हैं, जिनमें ओरमांझी के मनातू का वाटर पार्क, हेहल अंचल के बग़ल में बड़ा भूखंड, चेशायर होम रोड स्थित भूखंड समेत कई अन्य जगहों के बड़े भूखंड शामिल हैं। ईडी की जाँच जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, इनका ख़ुलासा होगा। इसमें झारखण्ड के ही नहीं बिहार और बंगाल तक के बड़े व्यवसायी, बिल्डर और सफ़ेदपोश ज़द में आएँगे।
दूसरे शहरों में भी चल रहा खेल
झारखण्ड बनने के बाद यहाँ ज़मीन का कारोबार सबसे अधिक फला-फूला। मोहल्ले के बेरोज़गार युवा से लेकर प्रशासन और सरकार के ऊँचे स्तर तक के लोग और बड़े व्यवसायी तक इस कारोबार में शामिल हो गये। पहले यह कारोबार लुके-छिपे तरीक़े से चलता था; लेकिन जब प्रभावशाली लोग इसमें शरीक़ होने लगे, तो फिर यह पूरा खेल बेपर्दा हो गया। हालत यह हो गयी कि पुलिस-प्रशासन के अधिकारी और जवान भी इस कारोबार से जुड़ कर अंधाधुंध कमायी करने लगे। बाक़ायदा पुलिस बल की मदद से ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया जा रहा है। प्रभावशाली और पैसे वाले लोग फ़र्ज़ी दस्तावेज़ तैयार कर ज़मीन ख़रीदने-बेचने लगे। जिन पर काग़ज़ात तैयार करने की तैयारी थी, उन्हीं की मदद से फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनने लगे। कारोबारियों-दलालों की नज़र सरकारी ज़मीन पर भी पड़ी। देखते-ही-देखते सरकारी ज़मीन का भी सौदा बे-रोकटोक चलने लगा।
राज्य सरकार के आँकड़े बताते हैं कि झारखण्ड में अब तक क़रीब 20,000 एकड़ सरकारी ज़मीन बेची जा चुकी है और इन पर कंक्रीट की इमारतें खड़ी हो गयी हैं। इस 20,000 एकड़ में जंगल भी थे, नदियाँ और तालाब भी थे और पहाड़ भी थे। इन प्राकृतिक संपदाओं का अस्तित्व ही ख़त्म हो गया। रांची, देवघर, हज़ारीबाग़, गिरिडीह, कोडरमा, लोहरदगा, गुमला और बोकारो जैसे ज़िलों में तो इस कारोबार में रसूखदार लोगों ने सक्रिय भूमिका निभायी। ऐसा नहीं है कि यह सारा धंधा चोरी-छिपे हुआ। चूँकि इस कारोबार में पहुँच वाले लोग शामिल थे, इसलिए गड़बडिय़ों की जाँच के आदेश दिये गये; लेकिन वास्तविक जाँच नहीं हुई। यदि हुई भी, तो फिर रिपोर्ट को ही कहीं दबा दिया गया। सेना की ज़मीन के साथ भी ऐसा ही हुआ था। इस मामले में नगर निगम द्वारा थाने में एफआईआर कराया गया था। आयुक्त ने अपनी रिपोर्ट में फ़र्ज़ीवाड़े की बात लिखी। इसके बावजूद बे-रोकटोक सेना की ज़मीन का कारोबार चलता रहा।
जाँच से लोगों को उम्मीद
द्वापर से कलयुग तक भारतीय जन मानस में ज़मीन का बहुत महत्त्व रहा है। महाभारत का युद्ध ज़मीन को लेकर हुआ। आधुनिक युग में भारत का अपने पड़ोसियों से सीमा विवाद भी ज़मीन को लेकर ही है। काली कमायी का एक बड़ा हस्सा प्रापर्टी पर ही लगाते हैं। आम लोग ज़मीन को मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा से जुड़ा मानते हैं। नतीजतन ईडी की जाँच से लोगों में एक नयी उम्मीद जगी है।
जमीन फ़र्ज़ीवाड़ा के ख़ुलासे के बाद भारी संख्या में लोग आवेदन देने ईडी कार्यालय पहुँच रहे हैं। कई लोगों ने अलग-अलग ज़मीनों के फ़र्ज़ीवाड़ा का आवेदन दिया है। अब देखना है कि ईडी की जाँच किस दिशा में और कितनी दूर तक जाती है। ज़मीन के फ़र्ज़ीवाड़े की ज़द में कौन-कौन से नेता, अधिकारी और कारोबारी आते हैं। इस कारोबार में किन बड़े रसूखदार लोगों का पर्दे के पीछे का खेल है। अगर इन सब का ख़ुलासा हुआ, तो निश्चय ही लोगों को राहत महसूस होगी।