झारखण्ड खतियान पर गहमा-गहमी

झारखण्डियों को 1932 खतियान आधारित स्थानीयता से सम्बन्धित विधेयक विधानसभा से पारित करने और केंद्र को 9वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए भेजने की ख़ुशी में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पिछले दो महीने से पूरे प्रदेश में खतियानी जोहार यात्रा निकाल रहे हैं। इस बीच राज्यपाल ने इस विधेयक पर आपत्ति लगाते हुए सरकार को वापस भेज दिया है। कुछ विधायक इस यात्रा पर सवाल उठाने लगे। इससे मुख्यमंत्री खुले मंच से राज्यपाल पर निशाना साधने लगे हैं। इस बीच सवाल उठ रहा कि 1932 खतियान आधारित स्थानीयता राजनीतिक चाल है या समस्या के समाधान की कोशिश? इसी का विश्लेषण करती प्रशांत झा की रिपोर्ट :-

देश में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव कोई नयी बात नहीं है। इतिहास गवाह है कि आज़ादी के बाद से ही यह चलता रहा है। दरअसल राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। ज़ाहिर है कि नियोक्ता के प्रति लॉयल्टी तो होगी ही। टकराव केंद्र सरकार से इतर राज्य में विपक्षी दल की सरकार होने से ज़्यादा दिखता हैं। इसके ताज़ा उदाहरण पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, दिल्ली आदि कई राज्य हैं। हालाँकि इसके बावजूद कुछ राज्यपाल बीच का रास्ता अख़्तियार कर टकराव से बच जाते हैं। इन दिनों झारखण्ड में राज्यपाल-मुख्यमंत्री के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है।

राज्यपाल रमेश बैस और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बीच बीते साल अक्टूबर-नवंबर से शुरू हुई तल्ख़ी अब चरम पर पहुँच रही और टकराव दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इसकी मुख्य वजह राज्यपाल द्वारा 29 जनवरी को 1932 आधारित स्थानीयता से सम्बन्धित विधेयक (झारखण्ड स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा और परिणामी सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधेयक 2022) सरकार को वापस करना है। इसके बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मुखर हो गये हैं और खुले मंच से राज्यपाल पर निशाना साध रहे हैं। क्योंकि इस विधेयक के वापस होने से मुख्यमंत्री की खतियानी जोहार यात्रा पर भी राजनीतिक गलियारे से सवाल खड़े होने लगे हैं।

लोग कहने लगे हैं कि जो विधेयक क़ानून ही नहीं बना, उसके लिए जोहार यात्रा कैसी? यह वर्षों की समस्या का समाधान निकालने का प्रयास था या राजनीतिक चाल? अब 27 फरवरी से झारखण्ड विधानसभा का बजट सत्र शुरू हो रहा है। पहले दिन राज्यपाल का अभिभाषण होगा। राज्यपाल अभिभाषण में क्या बोलते हैं? किन-किन बातों का ज़िक्र करते यह देखना दिलचस्प होगा। साथ ही विधानसभा का बजट सत्र क्या रूप लेता है, यह भी देखने वाला होगा।

कैसे शुरू हुआ मतभेद?

राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद का बीजारोपण ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (टीएसी) के गठन के समय से ही हुआ था। उस वक्त वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राज्य की राज्यपाल थीं। उन्होंने सरकार द्वारा नियम में बदलाव कर टीएसी गठन पर न ही ज़्यादा टिप्पणी की और न ही इसे मंज़ूरी दी। हालाँकि आपत्ति ज़रूर लगायी थी। इस बीच वह राष्ट्रपति बन गयीं और रमेश बैस राज्य के नये राज्यपाल बने। उनकी मुख्यमंत्री के साथ खटास यहीं से शुरू हुई। वह इस मामले को असंवैधानिक क़रार दिया। इसके बाद भाजपा ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा पद का दुरुपयोग करते हुए अपने नाम माइनिंग लीज लेने से सम्बन्धित शिकायत राज्यपाल से की और सदस्यता रद्द करने की माँग की गयी।

राज्यपाल ने इस पर चुनाव आयोग से गंतव्य लिया। इसके बाद मुख्यमंत्री की सदस्यता जाने की अफ़वाह उड़ी। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपने विधायकों को एकजुट रखने लिए छत्तीसगढ़ से झारखण्ड तक इधर-उधर घूमते रहे। सरकार ने 15 नवंबर को राज्य स्थापना दिवस के समारोह में राज्यपाल को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था, राज्यपाल कार्यक्रम में नहीं गये। इस बीच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मनरेगा जाँच का दायरा बढ़ाते हुए साहेबगंज में 1000 करोड़ के अवैध खनन और मनी लॉन्ड्रिंग की जाँच शुरू कर दी।

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा पर शिकंजा कसा, वह अभी भी जेल में हैं। मुख्यमंत्री के प्रेस सलाहकार से पूछताछ हुई। मुख्यमंत्री हेमंत को भी पूछताछ के लिए बुलाया गया। उनके क़रीबी समेत राज्य के कई अधिकारी ईडी की रडार पर हैं। ईडी की पूछताछ और जाँच जारी है। मुख्यमंत्री इन सभी बातों के लिए केंद्र सरकार और भाजपा पर निशाना साधते रहे, पर राज्यपाल पर खुले मंच से कभी प्रहार नहीं किया। सदस्यता जाने के सम्बन्ध में इतना ही बयान देते रहे कि ‘मैंने अपनी बात रख दी है। अब राज्यपाल को जो निर्णय लेना है वह लें। अगर चुनाव आयोग ने पत्र भेजा है, तो सार्वजनिक करें।’ हालाँकि अभी तक यह मामला राजभवन के पास लंबित है।

राजनीतिक चाल

सदस्यता जाने का डर और ईडी की बढ़ती दबिश के बीच मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने 11 नवंबर को झारखण्ड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया। इस सत्र में 1932 आधारित स्थानीयता को पारित कर दिया गया। लोगों में चर्चा है कि मुख्यमंत्री ने राजनीतिक चाल चली है। इस विधेयक में जोड़ा गया कि जब केंद्र सरकार इसे 9वीं अनुसूची में शामिल कर लेगी, तभी यह राज्य में लागू होगा। दूसरी बात विशेष सत्र से एक महीना पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ख़ुद विधानसभा सत्र के दौरान सदन में कहा था कि ‘1932 आधारित खतियान सम्भव नहीं है।’

तीसरी और सबसे अहम बात यह भी है कि सरकार द्वारा राज्यपाल को विधेयक भेजने से पहले इस पर विधि विभाग से राय ली गयी थी। सरकार के अपने ही मताहत विधि विभाग ने इसमें ख़ामियाँ बतायी थी। इसे नज़रअंदाज़ कर सरकार ने राज्यपाल के पास विधेयक भेजा। यह बात भी उजागर हो चुकी है। ऐसे में राज्यपाल पर दोषारोपण या राजनीतिक आरोप मढऩा लोगों की नज़र में उचित प्रतीत नहीं हो रहा।

चौथी बार लौटाया विधेयक

झारखण्ड में यह पहला मौक़ा नहीं है जब राज्‍यपाल ने किसी विधेयक को वापस किया हो। मॉब लिंचिंग विधेयक, ट्राइबल यूनिवर्सिटी विधेयक, कृषि उपज विधेयक, कोर्ट फीस विधेयक, वित्‍त विधेयक को राज्यपाल अपनी आपत्तियों के साथ वापस कर चुके हैं, जिनमें तीन विधेयकों को विधानसभा से दोबारा पास कराया गया। अभी पिछले सप्ताह राज्यपाल ने वित्त विधेयक को तीसरी बार आपत्तियों के साथ सरकार को वापस भेज दिया। इन सब विधेयकों पर इतना बवाल नहीं हुआ, जितना इससे पहले 1932 खतियान आधारित विधेयक के लौटाने पर अब तक हो रहा। इसके पीछे वोट बैंक और राजनीतिक वजह मानी जा रही है। साथ ही यह भी माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री की खतियान जोहार यात्रा इसकी दूसरी वजह है।

हेमंत सोरेन वोट बैंक को मज़बूत करने दो चरण में खतियानी जोहार यात्रा निकाल चुके हैं, तीसरे चरण की तैयारी चल रही है। इस पर कटाक्ष हो रहा है। विपक्षी दल भाजपा यात्रा पर तो कटाक्ष कर ही रही, लेकिन 1932 खतियान पर टिप्पणी से बच रही। वहीं, सत्ता पक्ष के कुछ विधायक और पार्टी नेता दबी ज़ुबान में मुख्यमंत्री के क़दम की आलोचना कर रहे, तो कुछ खुलकर सामने आ गये हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के अपनी ही पार्टी झामुमो के एक विधायक लोबिन हेंब्रम ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने संवाददाता सम्मेलन बुलाकर कहा कि ‘जब विधेयक पास ही नहीं हुआ, तो खतियानी जोहार यात्रा कैसा?

मुख्यमंत्री लोगों को मुर्ख बना रहे हैं।’ उधर, मुख्यमंत्री खुले मंच से बोल रहे हैं कि ‘राज्यपाल जो चाहेंगे, वह नहीं होगा। राज्‍य सरकार जो चाहेगी, वही होगा। यह नयी बात नहीं है, ग़ैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों को पिछले दरवाज़े से राज्यपाल के माध्‍यम से परेशान किया जा रहा है। यह दिल्‍ली या अंडमान निकोबार नहीं है। यह झारखण्ड है, यहाँ जो राज्‍य सरकार चाहेगी, वही लागू होगा।

नहीं दिख रहा समस्या का हल

सरकार और राजनीतिक दलों की अपनी समस्या है। उन्हें चुनाव लडऩा है। राजनीति करनी है। राज्यपाल का अपना संवैधानिक दायरा है। राज्यपाल ने 1932 आधारित खतियान संवैधानिक प्रावधानों के तहत आपत्ति के साथ भेजा। आपत्तियों में लिखा कि विधेयक संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ है। इसमें संवैधानिक और क़ानूनी पक्षों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का भी हवाला दिया गया। राज्यपाल के पास विधेयक भेजने से पहले इन्हीं सब बातों का ज़िक्र करते हुए सरकार के अधीनस्थ विधि विभाग ने आपत्ति दर्ज की थी। राज्य पिछले 22 वर्षों में झारखण्ड में 11 सरकारें बनीं। हमेशा से स्थानीयता का मुद्दा राज्य को कैंसर की तरह जकड़ा रहा।

सरकार के कामकाज के बारे में कहें, तो सभी ने बहुत काम किया। सालाना बजट 7,000 करोड़ से बढ़ाकर 1,10,000 करोड़ पर पहुँचा दिया। फिर भी यह अभागा राज्य आज भी पिछड़ेपन का रोना रोता है। यह हो भी क्यों नहीं। क्योंकि जब तक स्थानीयता, आरक्षण, धर्म, जाति जैसे मुद्दे की राजनीति होती रहेगी, लोग ऐसे ही समस्याओं के मकडज़ाल में फँसे रहेंगे। इसी स्थानीयता के मुद्दे पर बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा, तो अर्जुन मुंडा की सरकार गिर गयी।

सरकार किसी की हो, सभी दल मिल बैठकर कभी समाधान निकालने का सार्थक प्रयास नहीं किया। क्योंकि अगर सभी ने मिल कर समाधान निकल दिया, तो इस पर राजनीति कहाँ से होगी। अगर यही हाल रहा, तो राज्य गठन के 22 साल बाद भी स्थानीयता का मुद्दा है और बना ही रहेगा। विकास में राज्य पिछड़ता रहेगा। जनता पिसती रहेगी। अन्य राज्यों की तुलना में विकास नहीं होने का रोना रोती रहेगी। आरोप-प्रत्यारोप चलता रहेगा। चुनाव के समय हर दल के प्रत्याशी से सुनते रहेंगे कि सारी समस्याओं का समाधान मेरी जीत में है और आप हमें जीत दिलाएँ।