फीफा अंडर-17 महिला विश्व कप 2022 तक पहुँचने वाली राज्य की बेटियों व अन्य खिलाडिय़ों को मदद की दरकार
ओडिशा के भुवनेश्वर से 14 अक्टूबर को ख़बर आयी कि भारतीय टीम फीफा अंडर-17 महिला विश्व कप 2022 में ख़िताब की दौड़ से बाहर हो गयी है। दरअसल भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम में आयोजित मुक़ाबले भारतीय टीम को मोरक्को ने 3-0 से हरा दिया। भारत को अपने पहले मुक़ाबले में अमेरिका ने भी 8-0 से हरा दिया था।
यह ख़बर झारखण्ड के लोगों को दु:खी करने वाली थी। क्योंकि चंद दिनों पहले फीफा विश्व कप को लेकर झारखण्ड में काफ़ी उत्साह था। कारण, यहाँ की छ: बेटियाँ इस टीम में शामिल थीं। ख़ास बात यह थी कि भारतीय टीम का नेतृत्व भी झारखण्ड की बेटी अष्टम उरांव ही कर रही थीं। हर तरफ़ ख़शियाँ मनायी जा रही थीं। राज्य के मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, राजनीतिक दलों के नेता समेत अन्य लोग खिलाडिय़ों को बधाई दे रहे थे। समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर झारखण्ड के इस ग़ौरव को जगह दी जा रही थी। अष्टम के गाँव में भी ख़शियाँ मनायी जा रही थीं।
प्रशासन ने अष्टम के घर में टीवी लगवा दिया, ताकि उनके मात-पिता अष्टम का मैच देख सकें। लेकिन कुछ दिनों के अन्दर ही भारतीय टीम के फीफा अंडर-17 महिला विश्व कप से बाहर होने के बाद स्थिति बदल गयी। आज अख़बारों के पन्नों से इन खिलाडिय़ों की ख़बरें तो ग़ायब हो रही हैं, धीरे-धीरे ख़ास और आम चर्चा भी बन्द हो चुकी है। हार-जीत खेल में होती है। पर फीफा अंडर-17 में भारतीय टीम का जिस तरह का प्रदर्शन रहा, उस पर राज्य के रहनुमाओं को सोचने की ज़रूरत है। क्योंकि राज्य में खेल के हीरों की कमी नहीं है। बस ज़रूरत है, तो उन्हें तराशने की; जिससे भारत भी दूसरे देश के साथ बराबरी का मुक़ाबला कर सके।
राज्य की खिलाड़ी बेटियों के हालात
फीफा अंडर-17 महिला विश्व कप के भारतीय टीम में झारखण्ड की छ: बेटियों- अष्टम उरांव, नीतू लिंडा, अंजली मुंडा, अनिता कुमारी, पूर्णिमा कुमारी और सुधा अंकिता तिर्की का चयन हुआ था। अष्टम व सुधा गुमला ज़िले की, नीतू, अनिता व अंजली रांची की और पूर्णिमा कुमारी सिमडेगा ज़िले की रहने वाली हैं। ये सभी महिला खिलाड़ी ग़रीब परिवार से ही आती हैं। राष्ट्रीय स्तर तक ख़द की मेहनत से किसी तरह से पहुँची। ये खिलाड़ी और इनके परिवार रोज़मर्रा की ज़रूरतों और बुनियादी सुविधाओं के लिए हर दिन जूझते हैं।
पहले फीफा अंडर-17 महिला विश्व कप की कप्तान अष्टम उरांव की पारिवारिक स्थिति को ही देखते हैं। अष्टम झारखण्ड के गुमला ज़िला अंतर्गत एक छोटे से गाँव बनारी गोराटोली की रहने वाली हैं। उसके परिवार में माता-पिता, तीन बहनें और एक भाई हैं। परिवार की माली हालत अच्छी नहीं है। माता-पिता मज़दूरी करते हैं। कच्चा घर है। हालत यह है कि बेटी का मैच देखने के लिए घर में टीवी भी नहीं है। पारिवारिक स्थिति के बारे में उसकी माँ तारा देवी ने ‘तहलका’ को बताया- ‘अष्टम शुरू से ही एक जुझारू बच्ची रही है। यही वजह है कि आज वह इस मुकाम तक पहुँच पायी है। हमारी माली हालत ऐसी नहीं है कि बच्चों को सुख-सुविधा मुहैया करा सकें। यहाँ तक कि बेहतर भोजन दे सकूँ, यह भी सम्भव नहीं होता है। मैंने अपने सभी बच्चों को माड़-भात खिलाकर बड़ा किया है। अभाव में ही बच्ची अपनी मेहनत और लगन से यहाँ तक पहुँची है।’
हाल यह है कि गाँव में अष्टम नाम से सडक़ का निर्माण कराया गया, तो अभावों के चलते इस सडक़ के निर्माण में अष्टम के माता-पिता को मज़दूरी करनी पड़ी। स्थानीय लोग कहते हैं कि यह ख़शी की बात है कि सडक़ को अष्टम के नाम पर बनाया गया; लेकिन दु:ख की बात है कि इस सडक़ के निर्माण में अष्टम के माता-पिता को मज़दूरी करनी पड़ी। यह दिखाता है कि अष्टम के परिवार की माली हालत कितनी ख़राब है। लोग कहते हैं कि ज़ाहिर है अष्टम के माता-पिता को मिला टीवी एक डब्बा बनकर रह जाएगा; क्योंकि वे पहले खाने-पीने और अन्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काम करेंगे या टीवी केबल का रिचार्ज कराएँगे? जिन बच्चों के परिवार की स्थिति ऐसी हो, उनसे अव्वल दर्जे के प्रदर्शन की कैसे उम्मीद की जा सकती है?
कुछ ऐसा ही हाल खिलाड़ी पूर्णिमा कुमारी का है। सिमडेगा ज़िले के जामबहार गाँव की रहने वाली पूर्णिमा अपनी माँ को बचपन में ही खो चुकी हैं। उनका परिवार विकट आर्थिक तंगी से गुज़र रहा है। उसका घर आज भी कच्चा और खपड़े का है। घर में पौष्टिक आहार तो दूर ढंग के खाने तक के लाले हैं। दूसरे खिलाडिय़ों की भी कमोबेश यही स्थिति है। ये खिलाड़ी जब ट्रेनिंग कैम्प में रहती हैं, तो अच्छा खाना मिल भी जाता है। लेकिन छुट्टी में खाने को मोहताज हो जाती हैं। ज़ाहिर है केवल तीन महीने या छ: महीने के ट्रेनिंग कैम्प में हुई तैयारी से विश्व स्तर पर मुक़ाबले या उत्कृष्ट प्रदर्शन की उम्मीद रखना बेमानी ही है। जिन बेटियों की पारिवारिक स्थिति ही ठीक नहीं हो; घर में रहने पर सही पौष्टिक आहार नसीब न हो; प्रैक्टिस करने की बजाय घर के कामकाज की चक्की में पिस रही हों; वे मानसिक और शारीरिक रूप से कितनी सक्षम होंगी? अन्य देशों की साल भर मेहनत करने वाली, सुख-सुविधाओं में जीने वाली खिलाडिय़ों के साथ मैदान में वे कैसे जूझ पाएँगी?
संकट में भविष्य
झारखण्ड की खेल की दुनिया में एक अलग पहचान है। यह पहचान राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर नाम रोशन करने वाले कुछ खिलाडिय़ों ने बनायी है। इनमें क्रिकेट के पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी, हॉकी में सुमराय टेटे, अंसुता लकड़ा, ओलंपियन निक्की प्रधान, तीरंदाज़ ओलंपियन दीपिका कुमारी, मधुमिता कुमारी और कोमोलिका कुमारी का नाम देखने को मिलता है। इन खिलाडिय़ों ने पूरी दुनिया में देश का परचम लहराया है। अब भी राज्य में इन विश्व स्तरीय खिलाडिय़ों की तरह कई ऐसी खेल प्रतिभाएँ हैं, जो अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। इनमें से कई प्रतिभाएँ अभावों के बीच अपनी मेहनत राष्ट्रीय स्तर पर भी पहुँची हैं।
ज़ाहिर है यही प्रतिभाएँ भविष्य में देश और राज्य का नाम पूरी दुनिया में रोशन करेंगी। लेकिन ग़रीबी और मदद न मिलने के कारण ये प्रतिभाएँ दम तोड़ रही हैं। खेल के मैदान में जौहर दिखाने वाले खिलाड़ी जीवनयापन के झंझावातों में उलझ रहे हैं। अष्टम, पूर्णिमा, नीतू, सुधा, अनिता, अंजली और पूर्णिमा कुमारी जैसी फुटबॉल खिलाड़ी हों या फिर अन्य अभी जूनियर खेलों में अपने बलबूते दमख़म लगाकर बेहतर प्रदर्शन करने वाले बच्चे हों; इन खिलाडिय़ों की प्रतिभाओं पर पारिवारिक आर्थिक संकट का काला साया पड़ रहा है, जिससे खेल के मैदान के बाहर वे हर दिन जूझते हैं। पारिवारिक संकट इनकी प्रतिभा कमज़ोर हो रही है, जिसके लिए आर्थिक रूप से या नौकरी देकर मदद देने की बहुत दरकार है। इसके लिए राज्य व केंद्र की सरकारों को आगे आने की ज़रूरत है। क्योंकि आर्थिक संकट के चलते इन खिलाडिय़ों का वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी संकट में है। अगर केंद्र और राज्य सरकारें इन खिलाडिय़ों की मदद करें, तो राज्य की ये होनहार प्रतिभाएँ देश और राज्य का नाम रोशन करने में सफल होंगी; ऐसा विश्वास है। राज्य में कई ऐसे बड़े खिलाड़ी हैं, जिन्होंने अपनी क्षमता का लोहा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मनवाया है।
कुछ खिलाडिय़ों को छोड़ दें, तो अब भी उनमें क्षमता बाक़ी है। लेकिन जीवनयापन के लिए कोई सब्ज़ी बेचने को मजबूर है, कोई मज़दूरी कर रहा है, कोई रोज़गार की तलाश में है, तो कोई किराने की छोटी-सी दुकान चला रहा।
व्यवस्था बदलने की ज़रूरत
सरकार ने हाल के दिनों में खेल नीति बनायी है। इसका लाभ राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर नाम रोशन कर चुके खिलाडिय़ों को धीरे-धीरे मिल रहा है। कुछ लोगों को आर्थिक सहायता और नौकरी दी गयी। यह सब ऊँट के मुँह में जीरा के समान ही है। सरकार, प्रशासन, खेल संघ, समाज सभी को आगे बढक़र खेल प्रतिभाओं को उभारने की ज़रूरत है। उनका दायित्व लेने की ज़रूरत है। आज जिस तरह शिक्षा के अधिकार के तहत हर बच्चे को शिक्षा की व्यवस्था के साथ-साथ अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं, उसी तरह खेल को भी एक शिक्षा के रूप में लेना होगा। अन्य देशों की तरह बालपन से ही खेल प्रतिभाओं को तराशना होगा। उनके पारिवारिक आर्थिक संकट को दूर करना होगा। तभी राज्य के ये खेल हीरे राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चमक बिखेर सकेंगे।