शिवेंद्र राणा
मई, 1997 में स्वर्ण जयंती रथयात्रा, जिसे लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रभक्ति की तीर्थ यात्रा कहा; के दौरान जब वह उड़ीसा पहुँचे, तब उन्होंने अपने भाषण में कहा था- ‘आम लोगों को एक टेलीफोन कनेक्शन या गैस कनेक्शन लेने के लिए रिश्वत क्यों देनी पड़ती है? हमारे देश में जीवन की बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों की इतनी कमी क्यों है? मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जब भाजपा केंद्र में सत्ता में आएगी, तब हम इन स्थितियों को बदल देंगे।’ अब वाजपेयी की गठबंधन सरकार को जाने दें, तो भी अभी पिछले नौ वर्षों से प्रचंड बहुमत के साथ केंद्रीय सत्ता में स्थापित भाजपा अपने पितृपुरुष आडवाणी के वादे को न सिर्फ़ भूल गयी है, बल्कि शर्मसार करने पर उतर आयी है। आडवाणी के वक्तव्य के लिए कई कारण गिनाये जा सकते हैं। परन्तु इसे याद करने की एक विशेष वजह है।
दरअसल बीते दिनों बिहार के नये राज्यपाल राजेंद्र्र आर्लेकर ने राज्य के सात विश्वविद्यालयों- मगध विश्वविद्यालय बोधगया, पटना विश्वविद्यालय, मौलाना मज़हरुल हक़ अरबी एवं फ़ारसी विश्वविद्यालय, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय आरा और मुंगेर विश्वविद्यालय के कुलसचिवों (रजिस्टार) के काम-काज पर रोक लगाने के निर्देश जारी कर दिये। इनकी नियुक्तियाँ पूर्व राज्यपाल फागू चौहान के समय हुई थीं। साथ ही आर्लेकर भागलपुर विश्वविद्यालय के वित्त पदाधिकारी और वित्तीय परामर्शी के काम पर भी रोक लगायी है, जिनकी नियुक्ति फागू चौहान ने अपने तबादले की ख़बर आने के बाद की थी। बताते चलें कि चौहान के कार्यकाल में बिहार के विश्वविद्यालयों में व्याप्त घोर भ्रष्टाचार आम चर्चा में था। माननीय के कृत्यों का स्तर यह है कि बिहार से अपने तबादले के बाद भी उन्होंने न सिर्फ़ एक विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति की, बल्कि कई रजिस्ट्रारों का ट्रांसफर भी कर दिया।
यह कोई पहला या विशेष मामला नहीं है, जहाँ विश्वविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार प्रकाश में आया है। देश में उच्च शिक्षण संस्थान इस समय संगठित भ्रष्टाचार का केंद्र बने हुए हैं। उदाहरणस्वरूप अभी चर्चा में रहा छत्रपति शाहू जी विश्वविद्यालय कानपुर के कुलपति प्रोफेसर विनय पाठक का मामला। उन पर फ़र्ज़ीवाड़े, भ्रष्टाचार और रंगदारी जैसे गम्भीर आरोप लगे, जिनकी जाँच सीबीआई एवं ईडी कर रही है। एकेटीयू के कुलपति प्रो. पी.के. मिश्रा पर पद के दुरुपयोग और गम्भीर वित्तीय अनियमितता के आरोप लगाये गये, जिसकी जाँच शुरू होने के बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। आगरा वि.वि. के कुलपति प्रो. अशोक मित्तल पर वित्तीय अनियमितता, संविदा शिक्षकों की नियुक्ति में नियमों का पालन न करने के आरोप लगने के बाद उन्होंने जनवरी, 2022 में इस्तीफ़ा दे दिया। ऐसे ही अवध वि.वि. के कुलपति प्रो. रविशंकर सिंह ने भी वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगने के पश्चात् जून, 2022 में इस्तीफ़ा दे दिया। दिसंबर, 2020 में भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय (लखनऊ) की कुलपति प्रो. श्रुति सडोलीकर को राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में बर्ख़ास्त कर दिया था। जनवरी, 2021 में उनके ख़िलाफ़ गबन, धोखाधड़ी आदि धाराओं में एफआईआर दर्ज करायी गयी। ध्यातव्य हो यूपी के गर्वनर रहे टीवी राजेश्वर ने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार एवं वित्तीय अनियमिताओं के आरोप में रुहेलखंड वि.वि. बरेली, पूर्वांचल वि.वि. जौनपुर, बुंदेलखंड वि.वि. झांसी, कानपुर कृषि वि.वि. और मेरठ कृषि वि.वि. गोरखपुर वि.वि. आदि लगभग 10 कुलपतियों को बर्ख़ास्त किया था। 2007-08 में सी.पी.एम.टी. में गड़बडिय़ों पर पूर्वांचल वि.वि. के कुलपति को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। राज्यपाल राम नाइक ने भी कानपुर कृषि वि.वि. के कुलपति को भ्रष्टाचार की शिकायतों पर बर्ख़ास्त किया था।
इन भ्रष्ट तत्त्वों को सत्ता का संरक्षण इतना जबरदस्त है कि ये ऐसे आरोपों और जाँच को अपने जूतों पर रखते हैं। जनवरी से सीबीआई विनय पाठक के भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच कर रही है। पिछले डेढ़ दशक में सम्भवत: सूबे में यह पहला मामला है, जिसमें किसी कुलपति पर इतनी गम्भीर धाराओं में मुक़दमे दर्ज हों, वह पद पर विराजमान हो और अलग-अलग विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त किया जाता रहा हो। इसी प्रकार जाँच एजेंसियों की कार्रवाई की ज़द में रहे एकेटीयू के कुलपति प्रो. पी.के. मिश्र को पदच्युत करने के बजाय उन्हें शकुंतला वि.वि. से संबद्ध कर दिया गया। यही नहीं, राजभवन की ओर से जारी दिशा-निर्देश के बावजूद ये लोग जाँच में भी सहयोग नहीं करते रहे हैं। आख़िर भ्रष्टाचार के विरुद्ध निरंतर गर्जन-तर्जन करने वाली, विपक्षी नेताओं उनकी उनके कार्यकाल की जाँच को आतुर सरकार इस वीभत्स स्थिति पर मौन क्यों है?
अब उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए सरकार की नीयत को एक दूसरे प्रसंग से समझने का प्रयास करते हैं। इस वर्ष जनवरी में नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सिफ़ारिश के पश्चात् विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा जारी एक नये मसौदे के तहत अब विदेशी उच्च शिक्षण संस्थान यूजीसी की अनुमति से देश में कहीं भी अपने कैंपस खोल सकेंगे। यह अनुमति शुरुआत में 10 वर्षों की होगी, जिसे यथावत् रखने का फ़ैसला प्रदर्शन के आधार पर लिया जाएगा। इनकी निगरानी का अधिकार भी यूजीसी को दिया गया है। इन विदेशी शिक्षण संस्थानों द्वारा किसी भी अनियमितता की स्थिति में ज़ुर्माना और अनुमति वापस लेने जैसे दंडात्मक प्रावधान भी किये गये हैं। सरकार का तर्क है कि यह बड़ा क़दम है। इससे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत देश में ही गुणवत्तापूर्ण और विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा मुहैया हो सकेगी। इससे भारतीय छात्रों का उच्च शिक्षा हेतु यूरोप और अमेरिका पलायन रोका जा सकेगा और भारतीय मुद्रा की बचत होगी। चालू शैक्षणिक सत्र में ही तक़रीबन साढ़े चार लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विदेश गये, जिनके द्वारा अनुमानित व्यय 28-30 बिलियन डॉलर होगा।
अब इस महान् नीति का दूसरा पहलू देखिए- यूजीसी के मसौदे के अनुसार, भारत में अपने दाख़िले और शिक्षण शुल्क तय करने का अधिकार इन विदेशी विश्वविद्यालयों को ही होगा। यूजीसी इसमें दख़ल नहीं देगा। दूसरा, ये संस्थान शुल्क भारतीय रुपये में ही लेकर अपने देश भेजेंगे। भारतीय मुद्रा तब भी बाहर ही जाएगी। तो जिस रुपये के संरक्षण का दावा किया जा रहा है, वह तो वैसे भी विदेशी विश्वविद्यालयों को प्राप्त धन के रूप में बाहर जाएगा। साफ़ है यह योजना भारतीय विश्वविद्यालयों, विशेषकर कमज़ोर संसाधनों और निम्न उत्पादकता वाले शिक्षण संस्थानों को निगल जाएगी। वैसे ही, जैसे देश के तमाम प्राथमिक विद्यालयों को निगलकर आज हरेक दूसरे चौराहे पर किंडरगार्टन और कॉन्वेंट स्कूल जैसी शिक्षा प्रदाता दुकानें दिखती हैं। सवाल यह है कि इन विदेशी संस्थानों की गुणवत्ता का मानक क्या हो, यह भी स्पष्ट होना बाक़ी है। लेकिन इन महँगे विदेशी विश्वविद्यालयों में नामांकन भी धनाढ्य परिवारों के बच्चों ही कराएँगे, क्योंकि इनकी मनमानी फीस चुकाने की क्षमता आम भारतीय परिवारों में होना कठिन है। यह सम्भवत: उदारीकरण का विस्तार है। तब इसका सीधा अर्थ है कि भारत को विकसित और श्रेष्ठ बनाने के नाम पर इसे शिक्षा का ग्लोबल बाज़ार बनाने अथवा उदारीकरण की नीति के तहत शिक्षा के बाज़ारीकरण की पूरी तैयारी हो चुकी है।
होना तो यह चाहिए था कि अपने देशी उच्च शिक्षण संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाने के प्रयास किये जाते। परन्तु प्राध्यापकों की राजनीतिक नियुक्तियाँ और जनता के पैसे से मोटी तनख़्वाह पर इन तथाकथित बौद्धिक परजीवियों का पालन ही इस समय मुख्य ध्येय बन गया है। एक उदाहरण से इसे समझिए. पत्रकारिता विभाग में कई ऐसे लोग उच्च पदों पर हैं, जिन्होंने जीवन में कभी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पत्रकारिता नहीं की है। केवल किताबों में पढ़ा है और एकेडमिक सम्बन्धों के बूते विश्वविद्यालयों में नियुक्त होकर वही किताबी ज्ञान बच्चों को दे रहें हैं। मानविकी के कई ऐसे प्राध्यापक की, जो प्रोफेसर पद तक प्रोन्नत हो चुके हैं; अपने विषयों में गम्भीर लेखन तो दूर, सम्बम्धित मुद्दों पर बात करते हुए ज़बान लडख़ड़ाने लगती है। यदि इनसे भारत के भविष्य निर्माण की उम्मीद की जा रही है, तो स्थिति चिंताजनक है।
परन्तु इन मुद्दों पर विमर्श की कौन कहे, यहाँ वसूली से फ़ुर्सत मिले तभी इस दिशा में कुछ सोचा जाएगा। तो पहले सरकार संरक्षित इन शिक्षा माफ़ियाओं द्वारा वसूली की हवस पूरी हो जाए, फिर यदि समय मिला तो शिक्षा की गुणवत्ता पर भी सोच लिया जाएगा। साथ ही अगर विधिक नज़रिये से देखें, तो यदि कुलपतियों की नियुक्तियाँ आर्थिक लेन-देन पर आधारित है और नियुक्ति के पश्चात् स्वयं ये कुलपति ले-देकर नियुक्तियाँ कर रहें हैं और ख़ुद भी दोनों हाथों से बटोर रहें हैं, तो इसमें कोई बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि विधि आयोग सरकार को नये क़ानून के रूप में यह प्रस्ताव दिया है कि सही काम के लिए रिश्वत देना अब अपराध नहीं रहेगा। यानी अब सही लोगों को नियुक्त करिये और सही तरीक़े से बटोरिये और इन सही लोगों से भी बटोरवाइए। यदि विश्वविद्यालयी भ्रष्टाचार के मामलों के उद्धरण एवं गिनती की बात हो, तो एक पूरा महाकाव्य लिखना पड़ सकता है।
वैसे भी जिस सरकार में एक पेशेवर अपराधी केंद्रीय गृहराज्य मंत्री हो, जहाँ तमाम गम्भीर आरोपों को धता बताकर एक बाहुबली कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद पर बना रहा सकता है, उससे कौन-सी नैतिकता की उम्मीद की जाए? बिहार में राजभवन के संरक्षण में हुए इन अनियमितताओं के प्रकाश ने आने पर ना सिर्फ़ मौन साधने, बल्कि ऐसे व्यक्ति को पुन: उसी स्तर के पद यानी मेघालय का राज्यपाल नियुक्त करने वाली भाजपा लालू परिवार के आर्थिक अपराधों के आरोप पर किस निर्लज्जता से मुखर हो रही है? यहाँ भाजपा विपक्ष पर दुष्प्रचार का आरोप भी नहीं लगा सकती, क्योंकि राजेंद्र्र आर्लेकर कोई विपक्षी एजेंट नहीं, बल्कि संघ की पृष्ठभूमि से आये एक सम्मानित-स्वच्छ छवि के व्यक्ति है। वैसे भी फागू चौहान, जो स्पष्ट रूप से संवैधानिक अधिकारों के दुरुपयोग के आरोपों से घिरे हैं, उन्हें पुन: मेघालय के राज्यपाल पद पर नियुक्त करके सरकार क्या संदेश देना चाहती है?
रही बात केंद्र सरकार की, तो उच्च शिक्षा के लिए वह कितनी आग्रही थी, इसका प्रमाण उसने 2014 में मंत्रिमंडल के गठन के समय दिया। जब उसने स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) का प्रभार सौंपा, जिनकी योग्यता यह थी कि कई वर्षों तक सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लेने और टीवी सीरियल में काम करने के अतिरिक्त वे इंटरमीडियट यानी 12वीं कक्षा तक पढ़ी भी थी। अजीब है, तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में भाजपा को क्या कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो शिक्षा व्यवस्था के रूप में देश का भविष्य संभाल पाये। शिक्षा ही किसी राष्ट्र के भविष्य की नींव तैयार करती है और उसे एक अर्द्ध-शिक्षित सांसद को सौंप कर पार्टी ने अपनी हद पहले ही दिखा दी थी। सत्ता से नैतिकता की उम्मीद छोड़ दें पर जनता को समझना होगा कि जब भी कोई सत्ता शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में अनाधिकृत हस्तक्षेप करती है, तो वह वास्तव में समाज को पतनशीलता की ओर धकेल रही होती है। भाजपा की धोवन मशीन से शुद्ध होकर संवैधानिक एवं सांविधिक पदों पर नियुक्त किये जा रहें है ये समाजद्रोही शिक्षा माफ़िया, शिक्षण संस्थानों में कितनी गंदगी फैला रहे हैं, वो शायद सत्ताधारी दल को नहीं दिख रहा है या सत्ता के दंभ में उसे अनदेखा कर रही है अथवा अपने वसूली एजेंट के रूप में प्रश्रय दे रही है। कारण जो भी हो, परन्तु इसका दुष्परिणाम देश का भविष्य भुगतेगा।
(लेखक पत्रकार हैं और ये उनके अपने विचार हैं।)