‘मैं ही हूं अश्वत्थामा, जिसे नर या कुंजर / मारा जाना है/ हर युद्ध में! /मैं ही हूं ट्रैजेडी का देवता दिओनिसस / मैं ही अपोलो! / सीनेट के द्वार खटखटाता हुआ / चीखता हूं मैं/ संभलो, अभी भी समय है!/ सीनेट बेख़बर है / सीनेट के सामने समस्या है / एक अरब डॉलर हथियारों के लिए कम हैं या ज़्यादा हैं.’
हिंदी को युद्धों और साम्राज्यों की व्यर्थता से जुड़ी कुछ सबसे अच्छी कविताएं देने वाले कवि श्रीकांत वर्मा का बेटा अभिषेक वर्मा इन दिनों हथियारों की दलाली के आरोप में अपनी पत्नी के साथ पुलिस की हिरासत में है. क्या श्रीकांत वर्मा ने कभी सोचा होगा कि उनका बेटा एक ऐसे संदिग्ध पेशे में जाएगा जिसका प्रतिरोध जीवन भर उनकी कविता करती रही? चाहें तो कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी जिंंदगी जी थी और उनका बेटा अपनी जी रहा है. फिर यह पिता और पुत्र के बीच का मामला है जिसमें कवि को घसीटा नहीं जाना चाहिए. लेकिन यह विडंबना फिर भी अलक्षित नहीं रह जाती कि श्रीकांत वर्मा जैसे संवेदनशील और समर्थ कवि की विरासत इतनी कमजोर क्यों निकली कि वह अपने पुत्र को भी छू नहीं पाई. इस विडंबना की पड़ताल में उतरें तो हमें कई और विडंबनाएं दिखाई पड़ती हैं जो शायद बताती हैं कि विरासत का सवाल इतना इकहरा नहीं होता, वह कई स्तरों पर चुपचाप बनता चलता है. क्या श्रीकांत वर्मा के मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा? यह एक निर्मम प्रश्न है, लेकिन पूछा जाना जरूरी है कि क्या कविता को उन्होंने अपने सत्ता विमर्श की सीढ़ी भी नहीं बना लिया था. कविता से वे पत्रकारिता तक पहुंचे और पत्रकारिता से राजनीति तक. वे इंदिरा गांधी के करीबी लोगों में बताए जाते थे और कांग्रेस के महासचिव तक बने. जाहिर है, सत्ता और शक्ति का एक खेल कवि को लुभाता-भरमाता रहा. यह सच है कि कविता को उन्होंने कभी छोड़ा नहीं, अपने राजनीतिक सौदों और समझौतों के बीच वे अपनी विवशताओं का मगध रचते रहे. लेकिन शायद यह सत्ता की, शक्ति की, हैसियत की विरासत थी जो श्रीकांत वर्मा से अभिषेक वर्मा तक गई. इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि अंततः श्रीकांत वर्मा ने जीवन में जो कुछ किया, वह जीवन के स्थूल संबंधों में उनके सबसे करीबियों तक गया. शायद उन्हीं के रहते बने संबंध और संपर्क होंगे जिन्होंने अभिषेक वर्मा को उसके भविष्य का रास्ता दिखाया होगा.
दुर्भाग्य से हममें से बहुत सारे लोग अपनी विरासत के साथ फिर वही अनजाना या सयाना खिलवाड़ कर रहे हैं जो श्रीकांत वर्मा ने किया
या क्या पता, जिसे हम अभिषेक वर्मा का भटकाव कह रहे हैं, शायद उसका सयानापन पिता-पुत्र और परिवार को पहले से समझ में आ गया हो. आखिर कुछ दिनों की जेल और कुछ मुकदमों के बावजूद अभिषेक वर्मा एक साधनसंपन्न शख्स है जो दुनिया भर में घूमता है, वह हिंदी के कई बीहड़ कवियों के लाचार बेटों के मुकाबले- जिन्हें जिंदगी कहीं ज्यादा निर्ममता से पीस रही है- खुशकिस्मत है कि अंततः एक दिन छूट जाएगा और किन्हीं बैंकों में रखे अपने पैसे निकाल कर एक अश्लील और अय्याश जिंदगी का सुख भोगता रहेगा. लेकिन एक तरह से यह कविता की विफलता ही है- शायद उस तरह के संवेदनशील जीवन की भी जिसकी हम कामना करते हैं. हममें से बहुत सारे लोग, जो ज़िंदगी को उसकी तरलता और सरलता के साथ जीना चाहते हैं, जो अपने बहुत सारे अभावों या बहुत सारी विफलताओं के बावजूद इस बात से खुश रहते हैं कि उन्होंने समझौते नहीं किए या किसी गर्हित मूल्यहीनता के शिकार नहीं हुए, क्या इस तरह की निर्लज्ज धृष्टता से भरी जिंदगी जीना चाहेंगे? हम जो लिखते-पढ़ते हैं, जो रचते-गुनते हैं, आखिर उसका मकसद क्या होता है? बस इतना ही कि जिंंदगी को उसकी स्थूलताओं के पार जाकर समझने की कोशिश करें, उसकी ढेर सारी छिपी हुई परतों को खोजें, उससे निकलने वाले रंगों से विस्मित और प्रमुदित हों, उसकी विडंबनाओं को भी पहचानें- जानें कि न्याय और बराबरी के बिना एक सुंदर दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती. अगर कविता और साहित्य अगर इतना भर मूल्यबोध हमें नहीं देते तो फिर वे व्यर्थ ही नहीं हो जाते, शक्ति और प्रदर्शन के हथियारों में और उनकी सौदागरी में बदल जाते हैं. फिर श्रीकांत वर्मा और अभिषेक वर्मा का फर्क मिट जाता है.
लेकिन कविता बची रहती है. वह अपने कवि से छिटक कर दूर खड़ी हो जाती है. या फिर वह अपने उस कवि को धो-पोंछ कर निकालती है जो सफलता की गर्द में और सत्ता की चमक-दमक में कहीं खो गया था. श्रीकांत वर्मा के साथ शायद यही हो रहा है. जिस कविता को लिखकर वे जीवन भर अपने से दूर करते रहे, वही अब उनकी कीर्ति का कवच बनी हुई है. लेकिन इससे श्रीकांत वर्मा की निजी विडंबना कम नहीं होती- एक कवि और व्यक्ति के तौर पर उनकी वह विफलता जो साकार रूप में अभिषेक वर्मा के तौर पर हम सबके सामने है. दुर्भाग्य से हममें से बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनके लिए कविता- या वृहत्तर अर्थों में साहित्य- के सरोकार लगातार सत्ता और शक्ति के विमर्श में बदलते जा रहे हैं. यह अपनी विरासत के साथ फिर वही अनजाना या सयाना खिलवाड़ है जो श्रीकांत वर्मा ने किया.
इसकी कुछ परिणतियां अब स्पष्ट हैं. लेकिन इसके बहुत सारे नतीजों से हम बेखबर हैं- क्या पता हमारी कविता भी हमारी जी हुई जिंदगी का मोल चुकाती हो? वह उतनी संवेदनसंकुल और प्राणवान न रह पाती हो जितनी हो सकती थी? क्या जिदंगी का अधूरापन हमारी कविताओं में भी दाखिल नहीं हो जाता है? लेकिन हम समझने को तैयार नहीं होते, श्रीकांत वर्मा भी कहां समझ पाए. जो रचा उसी से बचते रहे, यह लिखने के बावजूद कि जो बचेगा वह रचेगा कैसे? और बच कर रचेगा तो उसकी परिणति क्या होगी- यह उनकी विरासत का एक स्थूल रूप बता रहा है.