धर्मों के ठेकेदार अपने ही धर्म के लोगों की जेब धार्मिक तरीक़े से काट रहे हैं और धार्मिक तरीक़े से ही उनकी गर्दनें कटवाने पर आमादा हैं। उन्होंने अपने ही लोगों के दिमाग़ में इतनी धर्मांधता भर दी है कि उन्हें अच्छा-बुरा, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ और भविष्य तक की समझ नहीं रहती; ईश्वर तो दूर की बात है। ईश्वर के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम है। न ही तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को कुछ भी मालूम है और न उनका अंधानुकरण करने वालों को ही कुछ मालूम है। जिन्हें मालूम है, उन्होंने घृणा, दुराचार, लूट, चोरी, वैमनस्य, ईष्र्या, छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, अच्छा-बुरा, क्रोध, लालच, काम-वासना, चुगली, झूठ, छल, कपट, लिप्सा, अहंकार सब कुछ छोड़ दिया है। उन्हें न इस संसार से मोह है। न इस संसार में कोई रुचि है; और न ही इस संसार से कोई लालच है। उन्हें ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी धर्म के सहारे की भी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि उन्हें ईश्वर से विशुद्ध प्रेम हो चुका है। इसलिए वे किसी का बुरा भी नहीं सोचते और भला भी नहीं सोचते। वे जो कुछ हो रहा है, सब कुछ ईश्वर की इच्छा मानकर उसी पर छोड़ देते हैं। उन्हें पता है कि काल के चक्र से कोई नहीं बच पाया है। इसलिए वे काम, मद, मोह, लिप्सा, धत्कर्म और पाप सबसे बचे रहते हैं।
यह एक कटु सत्य है कि अपराध वही करता है, जिसमें अज्ञानता भरी हुई हो। अज्ञानता ही लोभ, क्रोध, मद और मोह का बीज है। लेकिन अज्ञानता ही भय, हीनता, दीनता और अंधविश्वास भी पैदा करती है। अज्ञानता की वजह से ही लोग भ्रमित होते हैं। किसी चालाक या समझदार के लिए उन्हें हाँकना उतना ही आसान होता है, जितना कि भेड़ों को हाँकना। बस उनके आगे-आगे चलते जाना है। सभी अंधविश्वासी अपने आप भेड़ों की तरह पीछे-पीछे चलने लगते हैं। जैसे भेड़ों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनके आगे कौन चल रहा है? गधा या कुत्ता? वैसे ही अंधानुकरण करने वालों को भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उन्हें कौन धर्मोपदेश दे रहा है? बस उसके हाथ में धर्म का झण्डा, धर्म की किताबें होनी चाहिए। कोई नहीं पूछता कि उसे धर्म और ईश्वर के बारे में सही में कितना पता है? कोई धर्म के तथाकथित ठेकेदारों से यह भी नहीं पूछता कि आख़िर हमें ले कहाँ जा रहे हो? क्योंकि सच्चाई यह भी है कि कोई नहीं जानता, आख़िर जाना कहाँ है? कोई नहीं जानता, ईश्वर कैसा है? कोई ईश्वर को पहचानता भी नहीं है। किसी को ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता भी नहीं मालूम? सब अन्धे हैं। ऊपर से सब घुप्प अँधेरे में हैं। किसी में रास्ता दिखाने की सामथ्र्य नहीं है। किसी को कोई किरण नहीं दिखती, सब उन्हीं पगडंडियों के चक्कर काट रहे हैं, जो पगडंडियाँ पहले से किसी ने बना रखी हैं। वे आगे भी नहीं बढ़ रहे हैं। सब चींटियों की तरह बनी-बनायी पगडंडियों पर ही रेंग रहे हैं। एक भी उन पगडंडियों से अलग होता है, अथवा अपना रास्ता अलग बनाता है, तो सब उसे भटका हुआ मानकर उसे धर्म-विरोधी और ईश्वर-विरोधी तय कर देते हैं।
इस विरोध का कारण यह नहीं है कि वह भटक गया है; बल्कि यह है कि उनकी पंक्ति से अलग चल रहा व्यक्ति कहीं उनका विरोध न कर दे। उसके अलग होने से वह अपनी जेब कटने से बचा ले जाएगा। वह उस भीड़ में शामिल नहीं होगा, जो एक उकसावे पर धर्म के नाम पर हिंसा के लिए उतारू हो जाते हैं। बस यही बात तथाकथित पाखण्डी धर्माचार्यों को परेशान करती है। इसी कारण तथाकथित किताबी धर्मों के विरोध में खड़े लोगों की हत्याएँ होती हैं। भले ही वे कितने भी मानवीय हों। कितने भी लोगों की भलाई का काम करते हों। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे सत्य भी बोलते हों। फ़र्क़ इस बात से पड़ता है कि उन्होंने पाखण्ड को स्वीकार क्यों नहीं किया? उस लीक को क्यों छोड़ दिया, जिस पर सब अन्धे होकर चल रहे हैं?
इस संसार में यही समस्या है। जो अलग चला, जिसने अपना रास्ता ख़ुद बनाने की सोची, उसके विरोध में तमाम अन्धे रोड़ा बनने लगते हैं। वे चाहते हैं कि अपना रास्ता बनाने वाला उनकी तरह ही अन्धा होना चाहिए। वे यह भी भूल जाते हैं कि जो अपना रास्ता ख़ुद बना रहा है, उससे उन्हें भी लाभ होगा। इसीलिए तो ईश्वर की खोज करने वाले संसार को छोड़ देते हैं। वे जानते हैं कि मूर्खों से भरे इस संसार में अगर कोई उनका समर्थन न करके अपने तरीक़े से ईश्वर का भजन करेगा, तो उसके धन्धे का विद्रोह हो सकता है। इसलिए, जिसने संसार में रहकर एक सही रास्ता ईश्वर को पाने का बताया है; उसका पुरज़ोर विरोध हुआ है। चाहे कबीर हों, चाहे ओशो, चाहे कोई और। धर्म के नाम पर जेब-तराश हत्यारों को इससे बड़ी तकलीफ़ होती है। उनकी सत्ता को इससे ख़तरा होने लगता है। उन्हें डर लगने लगता है कि उनके सुख-भोग और सम्मान का अन्त न हो जाए। इसलिए वे धर्म की किताबों को दबोचे एक बड़ी भीड़ को गुमराह किये रहते हैं। उनके पास अपना कोई ज्ञान नहीं है।