जेएनयू: लाइब्रेरी का बजट घटा, ढाबों की जगह लेंगी बड़ी खान-पान कंपनियां

यह पहले फेसबुक पर संवाद दिखते थे कि जेएनयू की कैंटीन और ढाबे कैसे हैं। अनहाइजेनिक खाना खा-खाकर विद्यार्थियों का कितना बुरा हाल रहता है। मानो हैजा अब फैला कि तब। लड़कों की बढ़ी दाढ़ी होती है, लड़कियों के चश्मे का पावर। ये इतने कमज़ोर हो गए हैं कि जूतों और सैंडिल पहनने में उन्हें दिक्कत होती है। किसी तरह हवाई चप्पल में पांव डाल कर काम चलाते हैं। चूंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। इन विद्यार्थियों का तन और मन दोनों ही अस्वस्थ हैं और ये क्रांति की बहकी-बहकी बातें करते हैं।

जेएनयू प्रशासन ने तय किया कि परिसर में अब फूडकोर्ट बना कर उसमें खान-पान की बड़ी कंपनियां हल्दीराम और मैक्डोनल्ड को बुलाएंगे। ये क्लीन एंड हाइजेनिक फूड मुहैया कराएंगे। यही नही इंडियन फूड भी रखेंगे। यह फैसला जेएनयू की ईसी का है। परिचयवादियों ने पहले हमें बताया था भारतीयता क्या होती है। अब मैक्डॉनल्ड बता रहा है भारतीय भोजन क्या है।

जानकारी पाने के लिए जेएनयू के प्रशासनिक खंड में रजिस्ट्रार से मिलने का प्रयत्न किया लेकिन सुरक्षा गार्ड ने सलाह दी आप पहले संबंधित सेक्शन के आफिसर से मिल लीजिए। उन्होंने बताया कि प्रेस की जानकारी सिर्फ रजिस्ट्रार साहब ही दे सकते हैं। गार्ड ने रजिस्ट्रार ऑफिस में फोन मिलाकर पूछा, फिर हमें जन-सम्पर्क अधिकारी के पास भेज दिया। जन-सम्पर्क अधिकारी ने बताया कि हमारे पास प्रेस नोट है। हम तो कुछ नहीं करते। जो आगे से आता है उसे हम सिर्फ और सिर्फ आगे भेज देते हैं। मैं इस पड़ताल में लगा कि आखिर कहीं से तो सूचना मिले। हमने छात्र संघ के अध्यक्ष, एवीबीपी जेएनयू इकाई के अध्यक्ष जेएनयूटीए के महासचिव से संपर्क किया। साथ ही कर्मचारी संघ और ढाबे पर काम करने वाले कर्मचारियों से भी बात की लेकिन कर्मचारी संघ और ढाबे के कर्मचारी ज़्यादा कुछ न बता पाए।

जेएनयू इकाई के एबीवीपी के अध्यक्ष विजय ने बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन साक्षात्कार के लिए अलग-अलग सेन्टरों से छात्रों को बुलाते हैं। मेरे सेन्टर के छात्रों को भी एक बार बुलाया गया था। यह बात फरवरी- मार्च 2018 की है। हमारे सेन्टर से करीब 40-50 छात्र मिलने गए थे। इस मीटिंग में उपकुलपति, रजिस्ट्रार, डीन ऑफ डायरेक्टर और हमारे सेंटर के प्रोफेसर चिन्तामणि महापात्रा भी थे। जिनकी मेल आने पर हमारे सेंटर के सारे छात्र गए थे। वहीं यह सुझाव मांगा गया कि विश्वविद्यालय को कैसे अच्छा बनाया जाए। उपस्थिति आदि पर चर्चा हुई। कैसे शिक्षा व्यवस्था सुधारी जाए। जिसमें छात्रों ने अपने सुझाव दिए।इसी बैठक में कुछ छात्रों ने कहा कि हम वल्र्ड क्लास विश्वविद्यालय की बात करते हैं। यहां बाहर से प्रतिनिधि आते हैं या छात्रों के पेरेन्टस आते हैं। यहां पर कोई ढंग का कोई ढाबा या इटरी नहीं है। छात्रों ने मांग की कि विश्वविद्यालय में विश्वस्तरीय कैंटीन होनी चाहिए। वास्तव में यह ज़रूरी मंाग है।

आप देखेंगे कि जेएनयू के बगल में ही एम्बीएन्स मॉल है यह प्रोमिनेन्ट मॉल है। मैं जेएनयू में एक कार्यकर्ता हूं। बहुत से लोगों को जानता हूं। मैं भी वहां जाता हूं मुझे बहुत सारे छात्र वहां दिखते हैं। सवाल यह है कि वे वहां क्यों जाते हैं। हो सकता है उनको जो चाहिए वह इस कैम्पस में नहीं है। एक अच्छा हाइजेनिक कैफे, हर आदमी की अपनी प्राथमिकता होती है। रही बात जेएनयू संस्कृति की बात तो ढाबा जेएनयू संस्कृति का अंग है। यह होना ही चाहिए। यह नहीं कि ढाबे बंद करके क्लास कैफे वगैरह खोले जाएं या रेेस्टोरेन्ट। हम इसका समर्थ नहीं करते। लेकिन हां रेस्टोरेन्ट का विकल्प होना चाहिए। अगर यहां पर विश्वस्तरीय कैंटिन खुलती है तो किसी भी छात्र को धक्का देकर जबरदस्ती उसमें नहीं भेजा जाएगा। छात्र की अपनी रुचि पर है उसे विकल्प मिल रहा है। हम एक हाइजेनिक फूड कैंटिन के हक में हैं। लेकिन ढाबा भी रहेे।

मन में सवाल उठा कि क्या आपका यह कहना है कि एक बैठक में यह फैसला लिया गया। छात्रों ने प्रशासन से लिखित रूप में कोई मांग नहीं की। उन्होंने कहा कि लिखित रूप से मांग होगी मेल भी गया होगा। उस मिटिंग में मैं खुद था। इसलिए हवाला दे रहा हूं कि छात्रों ने मांग की थी।

आपने कहा कि यहां बाहर का फूड कोर्ट होना चाहिए। लेकिन भारत सरकार या स्वदेशी आंदोलन का क्या होगा?

हम किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी (एमएनसी) मैकडॉनल्ड, डोमिनो और केएफसी की बात नहीं कर रहे हैं। भारत में सरकार की कैंटीन आईआरटीसीसी की है। उसे ठेका दिया जाए।

जेएनयू रोल मॉडल है। देश में 55 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। करीब 750 दूसरे विश्वविद्यालय हैं। मैं जेएनयू का छात्र होने के नाते गर्व से कह सकता हूं कि जेएनयू इनमें सबसे बढिय़ा है। जेएनयू की तुलना बाकी विश्वविद्यालयों से नहीं हो सकती। मैंने आपको पहले बताया कि जेएनयू के छात्र आस पास के रेस्टोरेन्ट में जाते हैं। वे इसलिए जाते है क्यों कि यहां पर अच्छी हाइजेनिक कैंटिन का अभाव है। उनकी भी च्वाइस है, उनको भी तो हम मार रहे हैं। हम यह नही कह रहे कि यहां के ढाबों को बंद कर दिया जाए। यहां की कैंटिन बंद कर दी जाए और इन्ही को लाया जाए। दूसरा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मल्टीनेशनल ब्रांड का विरोध करती है। हमारी ज़मीन से हमारी मिट्टी से उपजी फूड चेन को आना चाहिए। जेएनयू में 7270 छात्र हैं वो भारत के अलग अलग राज्यों से आते हैं। कोई नार्थ-ईस्ट से है तो उसे नार्थ -ईस्ट का स्वादिष्ट हाइजेनिक खाना मिलना चाहिए। अगर कोई दक्षिण का है तो उसे डोसा-इडली मिलना चाहिए।

यहां के ढाबा संस्कृति को हम कोई नुकसान नहीं होने देंगे। जहां हम विचारधारा पर बात करते हैं। विचारधारा के आदान-प्रदान की संस्कृति को हम बनाए रखेंगे। यह हम अपने संगठन की तरफ से पूरा आश्वासन देते हैं।

यहां जो ढाबे चल रहे हैं वे बिना प्रशासन की अनुमति के चल रहे हैं।

प्रशासन ने प्रेस नोट में लिखा है कि जो ढाबे यहां गैर कानूनी ढंग से चल रहे हैं उनको बिडिंग प्रोसेस में भाग नहीं लेने देगे। प्रशासन ने ऐसा क्यों किया। प्रैस नोट में लिखा है कि जिन्होंने यहां पर नियम कानून का पालन नहीं किया है और गैर कानूनी ढंग से अपना कार्यकाल खत्म होने के बावजूद भी ढाबा चला रहे हैं उनको ही बिडिंग प्रोसेस से हटाया गया है। बाकी सब कर सकते हैं। ढाबे का समय कम किया गया है। उसके लिए हमारे कम्युनिस्ट साथी जिम्मेदार हैं।

आप छात्र संघ में हैं कैम्पस डेवलमेंट कमेटी के सदस्य हैं। आपके रहते इस तरह की गड़बडिय़ां क्यों हैं। ढाबों का समय क्यों कम किया गया?

यह सरासर प्रशासन की गलती है। जेएनयूएसयू के प्रधिकारियों से पूछिए कि कैम्पस डेवलमेंट कमेटी(सीडीसी) क्या होती है। उसके सदस्य हमेशा चुने हुए कांसलर होते हैं जिन्हें जेएनयूएसयू मनोनीत करता है। जेएनयूएसयू में सारे वामपंथी दल हैं। मैं जब से इस कैम्पस में हूं तब से बस सीडीसी, लाइब्रेरी, हैल्थ कमेटी, स्पोर्टस कमेटी और दूसरी कमेटी के स्टूडेन्ट कन्वीनर लेफ्ट के ही होते हैं। मैं खुद 2015 में कान्सलर जीता था और एवीबीपी जेएनयूएसयू हमेशा सिंगिल लार्जेस्ट पार्टी रही है कान्सलर में। हमें कभी भी किसी कमेटी में नही रखा गया। हमने कहा हमें लाइब्रेरी दे दो हैल्थ दे दो, सीडीसी दे दो हम छात्रों के अधिकारों के लिए काम करेंगें। कभी नहीं दिया। हमेशा अपने पास वामपंथियों ने रखा। ढाबे की इतनी समस्या क्यों है ढाबे के समय को कम क्यों कर दिया गया। जवाब देही उनकी है। छात्रसंघ में वे हैं। सीडीसी की बैठक में ढाबे वाली बात क्यों नहीं उठाई गई।

ज्ेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष बालाजी ने कहा कि मुख्य रूप से जगदीश कुमार जब से उप-कुलपति बने हैं और वित्तीय अधिकारी हीरानंद तिवारी हैं। जेएनयू का जो फंड आता है उसमें कथित तौर पर खासी धांधली है। कई दफा हमने आरटीआई डाली हैं कोई जवाब नहीं मिला। लेकिन इस साल वह धांधली हमें साफ तौर पर दिखने को मिली। लाइब्रेरी का बजट आठ करोड़ का था। आठ करोड़ का बजट कैसा था वो भी आपको बताऊंगा। जेएनयू का निर्धारित बजट था 1.7 से 2 करोड का। यूजीसी की बारहवीं वार्षिक योजना का रोड ग्रांट पांच सालों के लिए मिला। यूजीसी ने बारहवीं योजना के लिए 20 करोड़ दिया। अब एक साल के लिए चार करोड़ हुआ। जेएनयू अपने रिसोर्सस से और यूजीसी से मिलने वाले धन के कुल उसमे से एक दो करोड़ किताब खरीदने के लिए मिलाकर रुपए आठ करोड़ मात्र लगभग होता था कुल मिलाकर बजट में 80 फीसद कटौती हुई है। जो आठ करोड़ से सीधा 1.7 करोड़ हो गया। इनका कहना है कि यूजीसी की ग्रांट खत्म हो गई है। हमने कहा कि यूजीसी अगर ग्रांट खत्म कर रहा है तो उसका विकल्प क्या है। सरकार को भी पता है कि योजना आयोग खत्म हुआ और नीति आयोग आया। कुछ तो ग्रांट होगी बताइए। क्या होगा। हमने एमएचआरडी से जब पूछा उन्होंने कहा हमने पुस्तकालय के लिए जो ग्रांट देनी थी दे दी है। इसका मतलब हुआ या तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी)झूठ बोल रहा है या उपकुलपति। मज़ेदार चीज यह है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग कह रहा है कि पुस्तकालय के लिए आप रिवेन्यू जनरेट कीजिए। बताइए कहां से रिवेन्यू जेनरेट करें। क्या किडनी बेचेंगे छात्र, खेती करेंगे या मजदूरी करेंगे। क्या करेंगे। खेत या मजदूर के बेटे हैं, बच्चे हैं जो यहां पढऩे आ रहे हैं। सह उसी तरह का मोदी वाला मजाक हो गया कि पकौड़ा बेचिए। पुस्तकालय में किताब नहीं होगी तो क्या करेंगे मजदूर के बच्चे? किसान के बच्चे? ये सवाल हमने पूछा तो बताया विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पैसा नहीं दे रहा है। जबकि उपकुलपति जगदीश कुमार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यूजीसी का सदस्य है। उनके रहते हुए अगर यह नीति बनी कि पुस्तकालय को रेवेन्यू जेनरेट करना है तो इसके लिए वे जिम्मेदार हैं। उनको उपकुलपति के तौर पर बैठने का अधिकार नहीं है। फिर उनका नया बहाना कि हमारे पास कोष नहीं है तो पुस्तकालय का रीडिंग हाल बंद कर दो। इन्होंने बोला कि 50 लाख रुपए मैरिट फेलोशिप की स्कीम है जेएनयू में बीए और एमए में निम्न आय के नीचे वर्ग के छात्रों को प्रशासन के द्वारा 2000 रुपए और 800 रुपए दिए जाते हैं। यह उन गरीब छात्रों के लिए उपयोगी रहता है। पिछले आठ महीने से 50 लाख से ऊपर हो गया उसका बकाया। छात्रों को जो नहीं दिया गया है। हम ने पूछा इसका क्या हिसाब है। तो वे कहते हैं कि छात्र ज़्यादा हैं। हमारा कहना है कि एमसीएम का पैसा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) नहीं देता है। ये पैसा विश्वविद्यालय से आता है। जो फार्म बिकता है उसका पैसा और जेएनयू में दाखिले के वक्त जो फीस दी जाती है। यह मैं अभी आंकडें निकालकर देख रहा था कि पिछले साल में फार्म का दाम बढ़ा है लेकिन एमसीएम का दाम नहीं बढ़ा हैं जितना पैसा फार्म से या पंजीयन से मिला है और जो पैसा एमसीएम ने दिया है। उन दोनों में 40 लाख का अंतर है।

इसका मतलब एमसीएम का 40 लाख कम दिया गया है। और 50 लाख बकाया है। इसका मतलब हुआ कि ये लोग खुद झूठ बोल रहे हैं। हमने यह जानकारी उनके डाटा से निकाली है। तीसरी बात अब विश्वविद्यालय में पैसा नहीं है। तो ये लोग कर क्या रहे हैं। जो छोटे-छोटे ढाबे हैं जिन्हें छोटे दुकानदार चलाते हैं। वो करोड़ों में कमाते हैं। उसको बंद करके ये लोग फूड कोर्ट लाना चाहते हैं। ये लोग वहां से रिवेन्यू जेनरेट करने के लिए वहां से यहां घोटाले कर रहे हैं और फिर उसे छुपाने के लिए किसी का रोजगार छीन रहे हैं। यह जीएसटी वाला मॉडल हो गया ना। छोटे दुकानदारों का काम बंद करा देंगे ताकि बड़े व्यपारियों को सौंपे। यहां पर भी यही कर रहे हैं। अभी क्यों वित्तिय अनियमितता हो रही हैं। जेएनयु में आरएसएस के कार्यक्रम को सदगुरु को और श्रीश्री को न्यौते का उपकुलपति ने स्वागत किया है। उनको बुलाया है हवाई टिकट दिया है। उनको सारी चीजें दी गई हैं। यह किनके पैसे से दी गई हंै। उसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी)ने अलग स।पैसा नहीं दिया। ये सब एमसीएम के कोटे से दिया गया। ये पुस्तकालय के पैसे से गया। ये लोग यह सब तमाम चीजें अपने विचारधारा को बढ़ाने के लिए करवाते हैं। हमारे पैसे से अपने कार्यक्रम करवाते हैं और जब पैसा नहीं है तो हमारी ही संपत्ति बेच दे रहे हैं। यह पूरी धोखाधड़ी हैं जिसमें उपकुलपति और एक प्रोफेसर तिवारी खुद शमिल हैं। सबसे मजेदार चीज मैं आपको बताऊँ पिछले एक साल में जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का अनुदान आता है। इसका पहला उप-कुलपति था सोपोरी मामला जगदीश कुमार के आने के बाद 17 करोड़ रुपया विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को जेएनयू से बिना उपयोग की राशि वापस चली गई। एक तरफ जो पैसा दिया जा रहा है उसको खर्च नहीं कर रहे हैं और बचे हुए पैसे से मसलन आप अपने लोगों श्रीश्री को और सदगुरु को बुला रहे हैं। छोटे व्यपारियों को बंद कर रहे हैं। बड़े व्यापारियों को बुला रहे हैं।

बड़े व्यपारियों से क्या मतलब जबकि अपने प्रेस नोट में उन्होंने उल्लेख किया है कि हम छात्रों की मांग पर ऐसा कर रहे हैं।

हमने ऐसी कोई मांग नहीं की है। कौन से छात्र हैं ये। जितने शिक्षक आपको दिख रहे हैं जितने छात्र आपको दिख रहे हैं। सब के सब गंगा ढाबा से लेकर मुगल ढाबा से लेकर सारे कैंटिन में खाते हैं ये सारे कैंटिन 40 साल से ऊपर चल रहे हैं। हो सकता है कि कम दाम पर खिलाते हों। अनहाइजेनिक बिलकुल नहीं है। होते तो हम रोज बीमार पड़ते। बीमार मालूम है कौन पड़ा। जो नया इंजीनियरिंग स्कूल खुला था न जब उस स्कूल में 80-80 हजार रुपए देकर आए थे। उनके लिए उपकुलपति ने वाटर कूलर तक नहीं लगाए। उनके वाटर कूलर में कीड़े थे कीड़े। उस पानी को पीने की वजह से पूरे इंजीनियरिंग स्कूल के बच्चे बीमार पड़े। जब इसकी शिकायत हमने की तो भी उसका हल नहीं निकला। दरअसल ये अपनी नालायकी से लोगों को बीमार कर रहे हैं। दूसरी तरफ जो सही सलामत चल रहा है जहां आप सिर्फ खाना ही नहीं खा रहे है। विचारों को आराम से बैठकर आपस में डिस्कस भी कर रहे हैं। उसको ये खत्म करना चाहते हैं।

हमारा मानना है कि जेएनयू पहला प्रयोग है वहां अगर ढाबा विरोधी संस्कृति लागू हुई तो पूरे देश में चल रहे विश्वविद्यालय में डाबे की संस्कृति खत्म हो जाएगी।

देखिए सभी अपने नेता की ओर देखते हैं। देश का प्रधानमंत्री कौन है? उपकुलपति वहीं से नियुक्त किया गया। जैसा मोदी करेंगे वैसा ही जगदीश कुमार करेंगे। मोदी ने जीएसटी लागू किया। छोटे दुकानदार खत्म करके बड़े दुकानदारों को मौका दे रहे हैं। मोदीजी देश भर में आरक्षण को खत्म कर रहे हैं। जगदीश कुमार ने कैंपस में आरक्षण को खत्म किया। महिलाओं के ऊपर अत्याचार किए और आरोपियों को बचाया। उनके पक्ष में खड़ा रहे। हर जगह पर फंड कट चल रही है। मोदी सरकार के चलते फैलोशिप, स्टूडेंटस, एग्रीकल्चर हर कहीं स्टूडेंटस का फंड कट कर रहे हैं। मोदी जी बोलते हैं कि पढऩा क्यों? पकौड़े तलिए। यहां इन्होंने पुस्तकालय का फंड कट कराया। ये बिल्कुल मोदी के मॉडल को रिप्लीकेट कर के विश्वविद्यालय में लागू कर रहे हैं। इसमें कोई बात नहीं

ढाबे पर बैठे छात्र समूह से बात की। उन्होंने बताया कि ढाबा बिलकुल बंद नहीं होना चाहिए। हमारे लिए तो दिक्कत है जैसे हम लोग तो काफी सीनियर छात्र हैं जितने भी बैठै हुए हैं सब के सब पीएचडी लास्ट ईयर वाले हैं। हम लोगों ने जिस जेएनयू को देखा था वह जेएनयू एकऐसा जेएनयू था जो सब क।लिए ‘एक्सेसेबलÓ था। किसी भी कोने से आप आते हैं। यहां पर रहते हैं सस्ते दाम पर। आपको खाना मिल रहा है वह भी अच्छी गुणवत्ता का। आप कह सकते हैं कि हम 24घंटे यहीं पर रहत।थे। जेएनयू संस्कृति जिसे आप कहते हंै तो ये ढाबे उसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये बौद्धिक जानकारी के आदान-प्रदान की जगह थी। अभी जिस तरह की संस्कृति लाने की कोशिश की जा रही है इसमें कहा जा रहा है कि कैंपस छात्रों के लिए नहीं है।

विश्वविद्यालय के प्रेस नोट में छात्रों की बढ़ती मांग पर ढाबों के अलावा बहुदेशीय कंपनियों को न्यौता गया।

ये छात्र कौन से छात्र हैं जेएनयू कें। ये छात्र कौन से हैं। ये जेएनयूएसयू के तो नहीं हैं जिसने ये मांग की।

शिक्षकों का कहना कि ऐसे तुगलकी फरमान जारी कर जेएनयू के उपकुलपति और देश की सरकार भारतीय शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को कहां ले जाना चाहते हैं। आज भी जेएनयू में कोई एक कोना ऐसा नहीं है जहां पर भारतीय संस्कृति की बात हो वहां शिक्षा ही उपलब्ध है। छात्रों और शिक्षकों को छात्रवास या ढाबे के नामकरण में भरोसा नहीं।