दा जेएंडके बैंक एक मात्र ऐसा निज़ी संस्थान है जो मुनाफे में जा रहा है। राज्यपाल की प्रशासकीय कांऊसिल के इस प्रस्ताव पर कि इसे सार्वजनिक क्षेत्र का संस्थान बना दिया जाए, पर एक विवाद खड़ा हो गया हैं। राज्य के प्रमुख राजनैतिक दलों कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने खुले तौर पर इसका विरोध किया है। इसी प्रकार की प्रतिक्रिया सिविल सोसायटी और बैंक कर्मचारियों की ओर से भी आई है। उन्होंने आरोप लगाया है कि इस प्रस्ताव में बैंक के खिलाफ एक छुपा हुआ ‘एजेंडा’ है और इस प्रस्ताव को तुरंत वापिस लिया जाए।
दूरगामी नतीजे निकालने वाले इस फैसले का खुलासा 23 नवंबर को हुआ। इस प्रस्ताव के मुताबिक यह बैंक न केवल राज्य विधानसभा के प्रति जवाबदेह होगा बल्कि इसे आरटीआई और चीफ विजिलेंस कमिश्नर (सीवीसी) के निर्देशों के तहत भी लाया जाएगा।
1938 में स्थापित जेएंडके बैंक लिमिटेड एक मात्र ऐसा बंैक है जिसे राज्य सरकार ने ‘प्रमोट’ किया है। इसमें जम्मू-कश्मीर सरकार के 50 फीसद शेयर हैं। इस प्रस्ताव में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस तरह का फैसला लेने के पीछे क्या खास कारण है।
काफी बाद में राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि यह कदम ‘कारपोरेट गवर्नेंस’ को मज़बूत करने और इसमें पारदर्शिता लाने के इरादे से किया गया है। उन्होंने कहा कि इसे आरटीआई और सीवीसी के तहत लाने से इस के कामकाज में पारदर्शिता बढ़ेगी। इसका विरोध करने वालों पर उन्होंने कहा कि वे केवल व्यक्तिगत या राजनैतिक कारणों से ऐसा कर रहे है।
पर उनके इस तर्क से गिने-चुने लोग ही सहमत हैं। राज्य के पूर्व वित्तमंत्री हसीब द्राबू ने तो राज्यपाल से ही सवाल कर डाला कि इस प्रस्ताव के पीछे उनकी अपनी क्या रुचि है।
हां! मेरी इसमें व्यक्तिगत रुचि हैं हम इससे भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। राज्यपाल का फैसला राज्य के वित्तीय हितों के खिलाफ है इसलिए यह मेरे राजनैतिक हितों के भी खिलाफ है। इसमें हमारी कोई दुर्भावना नहीं है। काश! कोई राज्यपाल के फैसले के बारे में भी ऐसा ही कह पाता। द्राबू ने ट्वीट किया। द्राबू इस बैंक के चेयरपर्सन भी रहे हैं।
इसी प्रकार की प्रतिक्रिया डाक्टर फारुक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की तरफ से भी आई है। पीपल्स कांफ्रेंस के सज़ाद लोन और कांग्रेस ने भी इस कदम का विरोध किया और कहा कि केंद्र सरकार इसे केवल मुनाफा कमाने का एक साधन बनाना चाहती है। अब्दुल्ला ने कहा कि निर्वाचित सरकार राज्य में न हो तो राज्यपाल को हमारे संस्थान माफिक नहीं आते। राज्यपाल का यह फैसला दुर्भावना से ग्रसित है। मुझे पता है कि केंद्र सरकार हमेशा ऐसा करने की फिराक में रहती है।
महबूबा ने चेतावनी दी है कि यदि यह फैसला वापिस न लिया गया तो राज्य में अशांति फैल सकती है। पर इस मुद्दे पर असली लड़ाई बैंक के कर्मचारी लड़ रहे हैं। यह विरोध बहुत दिनों से चल रहा है। अभी राज्यपाल ने उन्हें इस फैसले पर फिर से विचार करने का आश्वासन दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘पीएसयू’ शब्द का कोई कानूनी अस्तित्व या अर्थ नहीं हैंैं। पर बैंक को एक ‘पीएसयू’ ही माना जाता है। एक स्थानीय दैनिक ने अपने संपादकीय में ऐसा लिखा। यह भ्रामक है। यह कैसे हो सकता है कि एक कंपनी ‘पीएसयू’ हो पर विधानसभा के प्रति उत्तरदायी न हो। यदि ऐसा ही है तो फिर उस पर से ‘पीएसयू’ का तगमा हटा क्यों न लिया जाए?
यह विवाद शाीध्र समाप्त होता नही लगता। हालांकि राज्यपाल के बैंक कर्मचारियों को दिए आश्वासन से थोड़ा ठंडा ज़रूर पड़ा है। सज़ाद लोन ने कहा कि राज्यपाल प्रशासन को स्वंय को मूल प्रशासन तक सीमित रखना चाहिए। जेएंडके बैंक में कोई भी ढांचागत बदलाव मंजूर नहीं है। उन्होंने राज्यपाल से कहा कि वे अपनी ऊर्जा केवल वहीं तक लगाएं जहां तक का उन्हें अधिकार मिला है। पर आप ऐसा नहीं कर रहे। कृपया नई समस्याएं खड़ी न करें।