भारत के हालिया इतिहास की दो दिलचस्प घटनाएँ हैं। जम्मू और कश्मीर की रियासत का विलय और जूनागढ़ को सौराष्ट्र में मिलाना, जो अब गुजरात का हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर के मामले में पाकिस्तान ने दावा किया कि चूँकि यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र था, इसलिए इसका नये बने मुस्लिम होमलैंड में विलय करना चाहिए। हालाँकि जूनागढ़, जो कि हिन्दू बहुल क्षेत्र है; के मामले में उसका कहना है कि यह इसलिए पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए; क्योंकि इसके शासक ने पाकिस्तान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। जम्मू-कश्मीर की रियासत के हिन्दू शासक, महाराजा हरि सिंह, नये बने इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान के शासक मुहम्मद अली जिन्ना के साथ स्थायी समझौते पर हस्ताक्षर करते हैं, और राज्य के भविष्य के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पहले अपने विषयों के लिए कुछ समय देने का अनुरोध करते हैं। इस प्रकार अगर जूनागढ़ के परिग्रहण को स्वीकार कर लिया जाता है, तो महाराजा के निर्णय को भी चुनौती नहीं दी जा सकती।
महाराजा के साथ समझौते की स्याही सूखने से पहले ही इसे डस्टबिन में फेंक दिया गया था। जिन्ना ने राज्य को बल से साथ मिलाने का फैसला किया। पाकिस्तानी सेना, तब भारत के अन्तिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के पसन्दीदा ब्रिटिश जनरल सर फ्रैंक मेसर्वी के तहत थी और उन्हें यह कार्य सौंपा गया था। इसे मेसर्वी के लिए एक आसान कार्रवाई माना गया था; क्योंकि राज्य की सडक़ और रेल सम्पर्क पंजाब क्षेत्र के माध्यम से था, जो अब पाकिस्तान के अधीन है। मुस्लिम सैनिकों की एक छोटी-सी टुकड़ी, जिन पर महाराजा का भरोसा था, हमलावर सेना में शामिल हो गये। पाकिस्तानी का नियंत्रण लगभग हो चुका था, जब भारतीय सेना श्रीनगर में प्रवेश कर गयी।
पाकिस्तानी-ब्रिटिश षड्यंत्र को अंतत: भारतीय सेना और कश्मीरी नेता, शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने नाकाम कर दिया था। अब्दुल्ला की पार्टी ने जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत की सदस्यता नहीं ली। उन्होंने मुस्लिम सामंती और भू-स्वामियों वाले पाकिस्तान की भूमि की तुलना में लोकतांत्रिक भारत को प्राथमिकता दी।
ऐसा प्रतीत होता है कि सौभाग्य से जनरल मेसर्वी को फज़ीहत से बचाने के लिए माउंटबेटन ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जोड़-तोड़ करके संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में संघर्ष विराम के लिए मना लिया। इसके बाद मेसर्वी ने फरवरी, 1948 में चुपचाप पाकिस्तान छोड़ दिया और एक और ब्रिटिश सर डगलस ग्रेसी को उनकी जगह नियुक्त किया गया, जो अगले तीन साल तक पद पर रहे; जब तक कि अंग्रेजों को मूल मुस्लिमों में से एक उपयुक्त सेना प्रमुख नहीं मिल गया। ग्रेसी के कार्यकाल में ही पाकिस्तानी सेना की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) बनायी गयी, जो आज जम्मू-कश्मीर में हो रही हिंसा के पीछे है।
जूनागढ़ के मामले में निवर्तमान औपनिवेशिक ताकत और सिन्ध के भू-स्वामियों के पसन्दीदा शाह नवाज़ भुट्टो को नवाब मुहम्मद महाबत खान-तृतीय के दरबार में अपने दीवान या प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था। ब्रिटिश रक्षक होने के कारण जूनागढ़ के शासक को उच्च नियुक्तियों के लिए ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। भुट्टो की नियुक्ति से पहले नवाब के संवैधानिक सलाहकार नबी बख्श ने माउंटबेटन से कहा था कि उनका सुझाव था कि जूनागढ़ भारत में शामिल हो। हालाँकि भुट्टो ने इस कोशिश को नाकाम कर दिया।
हालाँकि 15 अगस्त, 1947 को दीवान भुट्टो की सलाह पर नवाब ने पाकिस्तान में विलय का फैसला किया। 13 सितंबर, 1947 को पाकिस्तान ने यह भी अधिसूचित किया कि यह विलय स्वीकार किया जाता है। जूनागढ़ के अधिकांश लोगों ने विद्रोह कर दिया, जिससे राज्य सरकार का पतन होते-होते बचा और भारत को अपनी सेना को जूनागढ़ भेजना पड़ा। दिसंबर, 1947 में एक जनमत संग्रह आयोजित किया गया, जिसमें 91 फीसदी आबादी ने भारत में शामिल होने का समर्थन किया। पाकिस्तान के हक में इस बाद के जनमत संग्रह में केवल 91 मत थे।
इन दोनों घटनाओं के अलग-अलग सन्दर्भ हैं। यदि तत्कालीन शासक का हस्ताक्षरित विलय स्वीकार किया जाता है, तो पाकिस्तान को यह स्वीकार करना होगा कि उसका जम्मू-कश्मीर पर कोई दावा नहीं है। भले यह तर्क स्वीकार कर लिया जाए कि कश्मीरियों ने बहुमत के साथ भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के विलय के समर्थन में राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है। जनमत संग्रह के मुद्दे पर इसने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद कब्ज़े वाले कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों से सैनिकों को वापस नहीं किया।
यह व्यापक रूप से माना जाता है कि चीन और नेपाल से प्रेरित पाकिस्तान नयी आक्रामक मुद्राएँअपना रहा है। क्रिकेटर से राजनेता बने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान का एक नया नक्शा ही बना डाला है, जिसमें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, सर क्रीक और जूनागढ़ सभी उसके हिस्से में शामिल दिखाये गये हैं। इस बीच एक अल्पकालिक ऋण के रूप में पाकिस्तान को दिये गये एक बिलियन अमेरिकी डॉलर (100 करोड़ अमेरिकी डॉलर) की वापसी की माँग के साथ पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच सम्बन्ध निम्न स्तर पर पहुँच गये हैं। अरब सहयोगी के साथ बकाया निपटाने के लिए पाकिस्तान ने चीन से उच्च ब्याज दरों पर ऋण लिया। उसने इस क्षेत्र को और अधिक चीनी नीतियों के अधीन कर दिया है।
जम्मू-कश्मीर में पाक्सितान के लम्बे समय तक आतंकवादी अभियानों के बावजूद कश्मीर में कोई भी पाकिस्तान में शामिल होने के लिए तैयार नहीं है। एक वर्ग स्वतंत्र कश्मीर के हक में ज़रूर हो सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह नया मानचित्र इमरान खान की सरकार की गिरती साख को बचाने की एक कोशिश हो सकती है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि मानचित्र उसकी एक बेतुकी कसरत के अलावा कुछ नहीं, जो भारत के क्षेत्रों के बिना सिर-पैर के दावे करता रहता है। उन्होंने कहा कि इन हास्यास्पद दावों की न तो कानूनी वैधता है और न ही अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता। बयान में कहा गया है कि नये नक्शे के जारी होने से सीमा पार से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के इरादों की पुष्टि होती है। इस बीच सेना प्रमुख का समर्थक माने जाने वाले पाकिस्तानी मीडिया ने खान और उनके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की चीन से नये ऋण को लेने के मामले में देश को अँधेरे में रखने का आरोप लगातार उनकी आलोचना शुरू कर दी है।
यह अब दुनिया भर को पता चल गया है कि चीन भारत को अपने पड़ोसियों के साथ यथासम्भव विवाद में उलझाये रखने की कोशिश में है। यदि नेपाल में चीनी राजदूत नेपाली सरकार को भारतीय क्षेत्रों पर दावा करने के लिए उकसा सकता है, तो पाकिस्तान का नया दावा भी इस क्षेत्र में चीन की शरारत का हिस्सा हो सकता है।
सन् 2019 में अपनी भारत यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने माँग की थी कि भारत को जम्मू-कश्मीर को संवैधानिक दर्जा बहाल करना चाहिए। भारत इससे चौंका ज़रूर था। इसके बाद तिब्बत और भारत के बीच लम्बी हिमालयी सीमाओं के साथ चीनी सैन्य गतिविधियाँ शुरू हुईं, जिसके कारण जून 2020 में गलवान की झड़पें हुईं। क्षेत्र में चीन ने ईरान को भारी धनराशि का वादा किया है; लेकिन पश्चिम में निर्यात में गिरावट के कारण ईरान को भारी वित्तीय सहायता की भविष्यवाणी करना मुश्किल है।
पाकिस्तान के भीतर भी इमरान सरकार के तथाकथित साहसिक दावों के कुछ गिने-चुने ही समर्थक हैं। दो प्रमुख राजनीतिक दलों- पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने अब तक नये नक्शे का समर्थन नहीं किया है। इस बीच पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी की भ्रष्टाचार के मामले में फिर से गिरफ्तारी ने खान सरकार को और कमज़ोर कर दिया है, जो केवल सेना मुख्यालय की मदद से चल रही है। पीएमएल-एन के प्रमुख नेताओं में से एक अब्बासी को लाहौर में उनके वाहन को रोकने के बाद पुलिस हिरासत में ले लिया गया था। गिरफ्तारी वारंट पर राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) के अध्यक्ष ने हस्ताक्षर किये थे।
एनएबी भ्रष्टट्राचार विरोधी निगरानी तंत्र है, जो केवल राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई करती है; लेकिन भ्रष्ट सैन्य अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है, जिन्होंने जनता के कल्याण के लिए आवंटित पैसे को हड़पकर भारी धन अर्जित किया है।
अब्बासी 2017 और 2018 के बीच प्रधानमंत्री के रूप में अपने वर्ष के दौरान लिक्विफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) अनुबन्धों पर हस्ताक्षर करने में भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। अब्बासी ने भविष्यवाणी की है कि अगर विरोधियों को मामलों में फँसाने ने की ये नीतियाँ जारी रहती हैं, तो पाकिस्तान नहीं बचेगा।
इससे पहले एनएबी ने पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को गिरफ्तार किया था; जो पीपीपी के प्रमुख हैं। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ ने भी पहले एक वीडियो जारी किया था, जिसमें भ्रष्टाचार विरोधी न्यायाधीश, जिसने उनके पिता को दोषी ठहराया था; को यह स्वीकार करते हुए दिखाया गया है कि ये फैसले देने के लिए उन्हें ब्लैकमेल किया गया था। हालाँकि न्यायाधीश ने वीडियो की प्रामाणिकता से इन्कार किया था; लेकिन उन्हें उनके पद से निलंबित कर दिया गया था।
विपक्षी नेताओं के खिलाफ इन कार्रवाइयों के बीच देश के भीतर पाकिस्तान के नये नक्शे के गिने-चुने ही समर्थक हैं। यह 4 जुलाई को जारी किया गया था, जो भारत सरकार के संविधान के अनुच्छेद-370 के तहत जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने का एक साल होने के एक दिन पहले जारी किया गया था।
(गोपाल मिश्रा नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र स्तंभकार हैं। उपरोक्त उनके निजी विचार हैं।)