यदि नमक में आयोडीन की हल्की-सी मात्रा आपको कई बीमारियों से बचा सकती है तो हर रोज खाने में इस्तेमाल होने वाले किसी मसाले में बेहद खतरनाक जहर की हल्की-सी मात्रा आपके स्वास्थ्य के लिए घातक भी साबित हो सकती है. हाल ही में आई एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक आप जिस जीरे को हर दिन खाने में इस्तेमाल कर रहे हैं उसमें मिले कीटनाशक भविष्य में आपको कई जानलेवा बीमारियों का शिकार बना सकते हैं. भारत सरकार के कृषि एवं सहकारिता विभाग की पहल पर तैयार की गई एक रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान में कई प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल से यहां उत्पादित होने वाला जीरा जहरीला हो चुका है. उल्लेखनीय है कि राजस्थान देश में जीरे का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक राज्य है.
ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट ऑन पेस्टीसाइड रेजिड्यू नामक परियोजना के तहत 5 साल तक हुए इस अनुसंधान की रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है. लेकिन तहलका के पास मौजूद रिपोर्ट की प्रति में खुलासा किया गया है कि जीरे में न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से कई गुना अधिक मात्रा तक जहर घुला हुआ है.
जीरा ओस और कोहरे में पैदा नहीं होता. इसलिए राजस्थान के मारवाड़ इलाके की सूखी जलवायु में यह खूब पैदा किया जाता है. भारत के कुल 429 हजार हेक्टेयर में से अकेले राजस्थान में 169 हजार हेक्टेयर यानी देश में जीरा उत्पादन के कुल क्षेत्रफल के 40 प्रतिशत भाग पर जीरा पैदा किया जाता है. बीते साल भारत में कुल 127 हजार टन जीरा उत्पादित हुआ और उसमें से अकेले राजस्थान का हिस्सा 43 हजार टन था. राज्य का जीरा कई छोटी मंडियों से होते हुए गुजरात की ऊंझा और दिल्ली की खारीबावली जैसी बड़ी मंडियों तक पहुंचता है. और यहां से ज्यादातर भारतीयों की थाली में.
जीरे में कीटनाशकों की जांच के लिए गठित अनुसंधान दल के प्रभारी एनएस परिहार अध्ययन से जुड़े तथ्य तहलका से साझा करते हुए बताते हैं, ‘ बीते पांच साल में राजस्थान के जीरा उत्पादक सात जिलों (जोधपुर, अजमेर, बाड़मेर, जालौर, पाली, भीलवाड़ा और नागौर) से हर महीने चार-चार नमूने लिए गए थे. इस दौरान जीरा के 60 प्रतिशत नमूनों में कई खतरनाक कीटनाशकों के भारी मात्रा में पाए जाने की पुष्टि हुई है.’ दल के मानकों के हिसाब से कीटनाशकों की न्यूनतम स्वीकृत मात्रा एक पीपीएम (दस लाख में एक हिस्सा) यानी एक किलोग्राम जीरे में एक मिलीग्राम से कम होनी चाहिए. मगर इन नमूनों में कीटनाशकों की मात्रा खतरनाक स्तर को पार करते हुए 2 से 4 पीपीएम यानी एक किलोग्राम जीरे में 2 से 4 मिलीग्राम तक पाई गई. परियोजना से जुड़े कृषि वैज्ञानिक बीएन शर्मा इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, ‘राज्य के जीरा उत्पादक कई कीटनाशकों को तयशुदा मात्रा से चार गुना तक इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे कि मेनकोजेब नामक फफूंदीनाशक को एक लीटर पानी में दो ग्राम की जगह आठ ग्राम तक डाला जा रहा है. जीरे की फसल में झुलसा नामक फंफूद जब आती है तब बीज पककर तैयार हो जाता है और ऐसे में मेनकोजेब का अंधाधुंध छिड़काव करने से यह जहर के तौर पर बीज में रह जाता है.’ राजस्थान में जीरे की फसल पर एक के साथ चार-चार कीटनाशकों का छोटे-छोटे अंतराल पर छिड़काव किया जा रहा है. मगर इससे भी खतरनाक तथ्य यह है कि जीरे की फसल में कई प्रतिबंधित कीटनाशकों का भी इस्तेमाल हो रहा है. इनमें शरीर के कई अहम अंगों में बीमरियां फैलाने वाले आरगेनोक्लोरिन, आरगेनोफास्फेट और सिंथेटिक पाइरेथ्रोइड से भी बेहद जहरीले कीटनाशक शामिल हैं.
प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर कीटनाशक एजेंसी चलाने वाले पंकज जोशी बताते हैं कि राजस्थान के जीरा उत्पादकों को सरकार की ओर से परामर्श की कोई व्यवस्था नहीं है. इसलिए जीरा उत्पादक को जीरे में होने वाली बीमारियों के लिए कृषि विभाग के अधिकारी की बजाय कीटनाशक विक्रेता से संपर्क करना पड़ता है. यह विक्रेता कंपनी द्वारा बताए गए कई महंगे कीटनाशकों की सूची जीरा उत्पादक को थमाता रहता है और उसकी जेब से पैसा निकालता रहता है. जाहिर है इस धंधे में सबसे ज्यादा मुनाफा जीरे को अपनी बेहिसाब कमाई का जरिया बनाने वाली कीटनाशक कंपनियों को ही होता है.
‘जीरे में मिल रहा मोनोक्रोटोफास किडनी और लीवर को हानि पहुंचा रहा है तो फारेट से कैंसर का खतरा बढ़ता जा रहा है’
राज्य कृषि विभाग ने राजस्थान में मोनोक्रोटोफास जैसे जहरीले कीटनाशक को केवल कपास में इस्तेमाल करने की छूट दी है. मगर सरकारी स्तर पर कोई निगरानी और नियंत्रण नहीं होने से जीरे में इसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है. इसी तरह फारेट नामक जहरीले कीटनाशक पर तो पूरी तरह से रोक लगाई गई है. बावजूद इसके यह यहां के बाजारों में आसानी से उपलब्ध है. प्रतिबंधित कीटनाशकों के खुलेआम बिकने के मसले पर जब तहलका ने राजस्थान कृषि विभाग के आयुक्त से संपर्क किया तो उनके पास भी इस मामले में गोल-गोल बातों के बीच सिर्फ जांच कराने का आश्वासन था.
फिजीशियनों की राय में इस प्रकार से जहर का रोज और नियमित मात्रा में शरीर में पहुंचते रहना एक ऐसा धीमा लेकिन खतरनाक हादसा है जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को ही खत्म कर देता है. चित्तौड़गढ़ के डॉ नरेंद्र गुप्ता कहते हैं, ‘ मोनोक्रोटोफास का किडनी और लीवर पर बहुत बुरा असर पड़ता है. वहीं सिंथेटिक पाइराथ्रोइड से एलर्जी और फारेट से कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है.’ भारत में कई जगहों पर जीरा कच्चे तौर पर और औषधियों के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. विशेषज्ञों की राय में कच्चे तौर पर इस्तेमाल में लाया गया जीरा अपेक्षाकृत अधिक जहरीला होता है.
राजस्थान में जीरे की फसल में कीटनाशकों का प्रयोग न सिर्फ इसकी पूरी खेती को ही जहरीला बना रहा है बल्कि मिट्टी की संरचना पर भी इसके कई घातक असर पड़ रहे हैं. जोधपुर में कृषि शोधकार्यों से जुड़े नासिर खिलजी बताते हैं, ‘ कुछ साल पहले तक हम जब नंगे पैर खेतों में काम करते थे तब शरीर को कोई नुकसान नहीं होता था. मगर अब मिट्टी भी इस कदर जहरीली होती जा रही है कि जीरा उत्पादन में लगे किसानों की त्वचा में कोई न कोई बीमारी लगी ही रहती है.’ खिलजी को आशंका है कि अगर जीरे के खेतों में जहर इसी तरह से जड़ें जमाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मारवाड़ के जीरे के खेतों की तुलना पंजाब के उन खौफनाक खेतों से की जाएगी जो कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण फिलहाल जहरीली फसल उगल रहे हैं और कैंसर मरीजों के बड़े केंद्र बन चुके हैं. मारवाड़ के कई जीरा उत्पादक यह भी बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में मिट्टी की उर्वरता भी तेजी से घटी है. पाली जिले के जैतारन गांव के जीरा उत्पादक हरिनारायण चौधरी बताते, ‘ कीटनाशकों को लेकर जीरे की भूख हर साल बढ़ती ही जाती है. मगर अब कीटनाशकों की प्रचुरता के चलते इस इलाके के कुछ खेतों की उर्वरता इस हद तक घटी है कि जीरा उगना ही बंद हो रहा है. इसी के साथ कीटनाशकों के भारी छिड़काव से जीरे के दुश्मन कीट के साथ केंचुआ सहित कई मित्रकीट भी मारे जा रहे हैं.’ कृषि विज्ञान के जानकार बताते हैं कि लेडीबायराबीटल जीरे का एक ऐसा मित्रकीट है जो उसकी फसल को नुकसान पहुंचाने वाले चेपा यानी एफिड (पौधा चूसने वाला मच्छर) को खाता है. मगर इनदिनों कई हानिकारक रसायनों से लेडीबायराबील जैसे कई मित्रकीट का ही तेजी से सफाया किया जा रहा है.
इन भयावह हालात की सारी जिम्मेदारी अकेले जीरा उत्पादकों के कंधों पर नहीं डाली जा सकती. कृषि विश्वविद्यालय, उदयपुर के पूर्व कुलपति डॉ वीबी सिंह के मुताबिक इसके लिए सरकार की वह नीति भी जिम्मेदार है जिसने जीरा उत्पादकों को आधुनिकता के नाम पर खतरनाक कीटनाशकों की ओर धकेला है. वे कहते हैं, ‘ इसी आधुनिकता के मार्फत बाजार की ताकतें शामिल हुईं और उन्होंने जीरे की खेती को पूरी तरह से कीटनाशकों पर ही निर्भर बना दिया. इससे एक ओर कीट की प्रतिरोधकता बढ़ने से कीटनाशक अपना असर खोते जा रहे हैं और दूसरी तरफ जीरा उत्पादक भी अपनी फसल बचाने के लिए ज्यादा से ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हुए हैं.’
तहलका से बातचीत में कई जीरा उत्पादक बताते हैं कि मारवाड़ में कीटनाशकों की ज्यादा मात्रा डालना अब उनकी मजबूरी है; क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करेंगे तो फसल बर्बाद होने का खतरा है. इससे जीरा उत्पादकों का नुकसान यह हो रहा है कि कीटनाशकों की खरीद कई गुना तक बढ़ गई है. इसकी वजह से जीरा उत्पादन की लागत साल दर साल बढ़ती जा रही है. वहीं जीरे की गुणवत्ता में भी गिरावट आ रही है.
कुल मिलाकर यह ऐसा दुष्चक्र है जिसमें एक तरफ राजस्थान के जीरा उत्पादक किसान फंस चुके हैं तो दूसरी तरफ देश के वे तमाम उपभोक्ता हैं जिन्हें जीरे के तौर पर जहर मिल रहा है.