जीत

आशिमा अपनी जीत को याद कर अकेले में बार-बार मुस्करा रही थी। सोच रही थी कि कैसे एक पुरस्कार ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी। कल तक उसके टीचर, दोस्त और रिश्तेदार उसे हिकारत की नज़रों से देखते थे, लेकिन 11 जुलाई, 2020 को लोगों की उसके प्रति सोच बदल गयी। उसे 10 जुलाई की शाम को फोन से सूचित किया गया कि उसे पुरस्कार लेने के लिए 11 जुलाई को नरीमन प्वाइंट स्थित यशवंत राव चव्हाण ऑडोटोरियम सायंकाल 5:00 बजे आना है। प्रदेश के मुख्यमंत्री उसे पुरस्कार से नवाज़ेंगे और उसका टेलीविजन के सभी चैनलों पर सीधा प्रसारण किया जाएगा।

हिन्दी अकादमी, मुम्बई ने इस पुरस्कार समारोह को आयोजित किया था। कोरोना महामारी विषय पर अकादमी ने 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पेंटिंग और क्विज प्रतियोगिता का आयोजन 5 जुलाई को किया था। पहले पुरस्कार समारोह नवंबर या दिसंबर महीने में आयोजित करने की योजना थी, लेकिन प्रतियोगिता में शामिल बच्चों की विशेष माँग पर इसे जुलाई में करने का फैसला किया गया।

ऑडोटोरियम में सोशल डिस्टेन्सिंग की व्यवस्था की गयी थी। बिना मास्क के किसी को भी ऑडोटोरियम में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। ऑडोटोरियम में सभी एक निश्चित दूरी बनाकर बैठे थे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मुख्य अथिति थे। उनके साथ कुछ काबीना मंत्री भी आये थे। मुख्यमंत्री की उपस्थिति की वजह से हर तरफ पुलिस की मौज़ूदगी थी। कला-संस्कृति से जुड़े शहर के नामी-गिरामी कलाकार इस समारोह की शोभा बढ़ा रहे थे। कुछ फिल्मी सितारे भी इस समारोह में शामिल हुए थे, जिसकी वजह से ऑडोटोरियम लगभग भरा हुआ था, जो यह बता रहा था कि अभी भी आमजन के बीच फिल्मी सितारों का आकर्षण कायम है। विजेता बच्चों के स्कूल के प्रिंसिपल को भी अथिति के तौर पर समारोह में बुलाया गया था। सरस्वती वंदना के बाद अथितियों को पुष्पगुच्छ भेंट की गयी। तत्पश्चात् मंच संचालक ने पुरस्कार प्राप्त करने के लिए पहला नाम आशिमा का पुकारा।

पेंटिंग और क्विज दोनों प्रतियोगिताओं में आशिमा ने पहला पुरस्कार जीता था। बेटी का नाम पुकारे जाने पर माँ की आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े।

मुख्यमंत्री के हाथों सर्टिफिकेट और शील्ड प्राप्त करने के बाद आशिमा को मंच संचालक ने अपनी बात रखने के लिए कहा। आशिमा ने सबसे पहले आयोजकों को धन्यवाद दिया। इसके बाद उसने कहा कि मेरी इस उपलब्धि का श्रेय मेरे माता-पिता और छोटी बहन सनाया को जाता है।

आशिमा के स्कूल की प्रिंसिपल स्वाति मैडम को भी दो शब्द बोलने के लिए मंच पर बुलाया गया। प्रिंसिपल मैडम भाषण में शुरू से अन्त तक आशिमा की तारीफ करती रहीं। उन्होंने कहा कि आशिमा पढऩे में बहुत ही ज़हीन है। वह अच्छी आर्टिस्ट भी है। उसका सामान्य ज्ञान का स्तर बहुत ही ऊँचा है। वह पहले भी हिन्दुस्तान टाइम्स, मुम्बई संस्करण द्वारा आयोजित क्विज प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीत चुकी है। वह हमारे स्कूल की शान है। हमें उस पर नाज़ है; आदि-आदि। आशिमा सोच रही थी कि प्रिंसिपल मैडम की सोच में अचानक से कैसे बदलाव आ गया? स्कूल में तो वह हमेशा उसे डाँटती रहती हैं। दूसरे टीचरों में, कल्पना मैडम, जानकी मैडम, सरिता मैडम, गुलेरिया मैडम आदि उसे डाँटा करती हैं; जबकि उसकी कभी कोई गलती नहीं होती है। उसका गुनाह हमेशा इतना ही होता है कि वह या उसकी माँ टीचरों की चमचागिरी करने से परहेज़ करती हैं। वह हमेशा टीचरों का सम्मान करती है। कभी भी पलटकर उन्हें जबाव नहीं देती; जबकि अनेक बच्चे टीचरों को उनके सामने ही खरी-खोटी सुना देते हैं।

आशिमा ने हिन्दी अकादमी, मुम्बई द्वारा आयोजित पेंटिंग और क्विज प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता था। दोनों प्रतियोगिताओं में 10,000 से अधिक प्रतियोगी शामिल हुए थे। इन दोनों प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार जीतना उसके लिए बड़ी उपलब्धि थी। जब उसने यह खबर अपने पापा को सुनायी, तो वह खुशी से उछल पड़े। पापा बोले, आशिमा मुझे विश्वास था कि इन प्रतियोगिताओं में तुम्हें ज़रूर पुरस्कार मिलेगा; लेकिन प्रथम पुरस्कार मिलेगा, इसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। उन्होंने तुरन्त फेसबुक पर और परिवार के व्हाट्स एप ग्रुप में आशिमा उपलब्धि को साझा किया। अपने बॉस, सहकॢमयों एवं दोस्तों के साथ भी उसकी उपलब्धि को शेयर किया।

आशिमा की माँ को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था; क्योंकि उसे स्कूल में कभी भी पेंटिंग में अच्छे नम्बर नहीं मिले थे। पेंटिंग की टीचर अनुराधा मैडम आशिमा को हमेशा डाँटती रहती थीं। वह आशिमा की पेंटिंग की कभी भी तारीफ नहीं करती थीं। हालाँकि आशिमा के पापा टीचर के विचारों से इत्तिफाक नहीं रखते थे। उनका मानना था कि वह अच्छी पेंटिंग बनाती है। वह अक्सर कहा करते थे कि तुम कला की दुनिया में एक दिन ज़रूर अपना नाम रौशन करोगी; लेकिन इसके लिए तुम्हें कड़ी मेहनत करनी होगी।

माँ, पापा की बातों से सहमत नहीं थी। माँ का कहना था कि अगर आशिमा अच्छी पेंटिंग बनाती है, तो क्यों नहीं वह मनीष आवासीय सोसायटी द्वारा आयोजित की जाने वाली पेंटिंग प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतती है? आशिमा और उसका परिवार इसी सोसायटी में रहता था। यह सोसायटी हर साल कला-संस्कृति से जुड़े 4 से 5 कार्यक्रम अवश्य आयोजित करवाती थी। मुम्बई में सोसायटियों द्वारा ऐसे कार्यक्रमों को आयोजित करने का पुराना चलन है। आशिमा के पापा के अनुसार, इस तरह के आयोजनों का मुम्बई की सोसायटियों में होना बहुत ज़रूरी है; क्योंकि महानगरीय जीवन में अधिकांश लोग तनाव से ग्रसित रहते हैं और यहाँ टेलीविजन को छोडक़र मनोरंजन के दूसरे विकल्प उपलब्ध नहीं हैं।

उसके पापा, उसकी माँ को हमेशा चिन्ता करने से मना कहते थे। उनका मानना था कि किसी की प्रतिभा को दबाया नहीं जा सकता है और न ही किसी प्रतियोगिता में हारने से किसी की प्रतिभा कम हो जाती है। हमेशा कोशिश करते रहना ज़रूरी है। इसलिए सोसायटी द्वारा आयोजित पेटिंग प्रतियोगिता में हारने के बाद भी आशिमा के उसके पापा उसका उत्साहवर्धन करते रहते थे और माँ के सामने उसकी पेंटिंग की तारीफ करते थकते नहीं थे। उनके अनुसार, आशिमा में उच्च दर्जे का चित्रकार बनने की अपूर्व क्षमताएँ और सम्भावनाएँ हैं। हालाँकि पापा का हमेशा समर्थन मिलने के बाद भी पिछले साल सोसायटी द्वारा आयोजित पेंटिंग प्रतियोगिता में हारने की वजह से आशिमा बहुत ज़्यादा आहत हो गयी थी। हारने से ज़्यादा वह माँ और सीता आंटी के बीच लड़ाई होने के कारण दु:खी थी। सावन का महीना था। मुम्बई में रोज़ बारिश हो रही थी। बच्चे कई दिनों से अपने घर में कैद थे। बच्चों को रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखने के लिए सोसायटी ने एक पेंटिंग प्रतियोगिता का आयोजन किया। पेंटिंग की थीम बारिश थी। आशिमा ने पूरे उत्साह से प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। उसने पेंटिंग बहुत ही सुन्दर बनायी थी। बावजूद इसके उसे कोई पुरस्कार नहीं मिला। सभी पुरस्कार सोसायटी की सेक्रेटरी सीता ने अपने पहचान वाले प्रतिभागियों को दे दिये। आशिमा रोने लगी। उसकी माँ उसका रोना सह नहीं सकीं। वह बोलीं, तुम्हारे पापा हमेशा बोलते हैं कि तुम बहुत अच्छी पेंटिंग बनाती हो; फिर क्यों तुम्हें कोई पुरस्कार नहीं मिला? माँ बहुत ज़्यादा गुस्से में थीं। वह आवेश में सेक्रेटरी सीता से उलझ गयीं। उन्होंने उस पर प्रतियोगिता में भेदभाव करने के आरोप लगाये; लेकिन सीता पर ज़रा भी असर नहीं हुआ। उल्टा वह आशिमा की माँ से लडऩे लगीं। वह उनसे बोलीं, तुम्हारी बेटी को जब पेंटिंग बनाना नहीं आता है, तो वह क्यों प्रतियोगिता में हिस्सा लेती है? सबसे खराब पेंटिंग तुम्हारी बेटी की है। सच कहूँ तो आशिमा की पेटिंग को पेंटिंग कहना पेटिंग की तौहीन है। आशिमा की माँ बहुत ही भावुक थीं। वह लड़ाई का दबाव नहीं झेल पायीं और रोने लगीं। जबकि वहाँ पर मौज़ूद लोग उनका पक्ष ले रहे थे। सीता की बेटियाँ भी स्वभाव में अपनी माँ की प्रतिलिपि थीं। एक तरफ सीता आशिमा की माँ से लड़ रही थी, तो दूसरी तरफ उसकी बेटियाँ लड़ाई का वीडियो बना रही थीं। आशिमा अपनी माँ को चुप कराने की कोशिश करती है; लेकिन उनका सुबकना कम नहीं होता है। फिर आशिमा माँ को समझा-बुझाकर घर ले आती है।

स्कूल एवं सोसायटी में लोगों के ताने सुन-सुनकर आशिमा बहुत ज़्यादा हतोत्साहित हो गयी थी। वह किसी भी पेटिंग प्रतियोगिता में शामिल नहीं होना चाहती थी। इसलिए जब उसके पापा ने हिन्दी अकादमी, मुम्बई द्वारा आयोजित की जाने वाली पेंटिंग और क्विज प्रतियोगिता के बारे में बताया, तो भी उसने प्रतियोगिता में शामिल होने से मना कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि आशिमा यह केवल प्रतियोगिता नहीं है, यह तुम्हें अपने को साबित करने का अवसर भी है। उच्च स्तर के प्रतियोगिताओं में पक्षपात नहीं किया जाता। अगर तुम्हें अपनी कला और ज्ञान पर भरोसा है, तो ज़रूर प्रतियोगिता में भाग लो। अगर प्रतियोगिता को जीतने में तुम कामयाब होती हो, तो तुम्हारे प्रति लोगों का नज़रिया बदल जाएगा। अंतत: पापा के समझाने पर आशिमा प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए मान जाती है। आशिमा को अपने पापा पर पूरा भरोसा था; क्योंकि उनको कला की अच्छी समझ थी। पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में भी वह अच्छी दखल रखते हैं।

आशिमा को किताबें पढऩे का भी बहुत शौक है। वह हर महीने पापा को अपनी पसन्द की किताबें खरीदने के लिए कुछ किताबों की सूची देती थी या फिर पापा को ज़बरदस्ती इन-आर्बिट मॉल ले जाती थी; ताकि वह मॉल में स्थित क्रॉसवर्ड की दुकान से किताबों की खरीददारी कर सके। क्रॉसवर्ड में अंग्रेजी किताबों की एक विस्तृत शृंखला मौज़ूद थी। इस दुकान में पाँच रैक सिर्फ बच्चों की किताबों से भरी थीं। अमूमन पापा उसकी पसन्द की किताबें खरीद देते थे; पर कभी-कभार मना भी कर देते थे। फिर भी वह अपने पैसों से हर महीने कुछ किताबें अवश्य खरीदती थी। पापा पॉकेट मनी नहीं देते थे; लेकिन वह हर महीने 1500 से 2000 रुपये लेखन से कमा लेती थी। वह बच्चों की समस्याओं पर नियमित तौर पर अंग्रेजी अखबारों में लेख लिखती थी। कविताएँ लिखने का भी शौक था उसे। एक लेख से उसे 1000 रुपये और एक कविता से 500 रुपये मानदेय मिलता था। वह हर महीने कम-से-कम एक लेख और एक कविता ज़रूर लिख लेती थी।

लेख लिखने के क्रम में आशिमा सम्बन्धित विषय का गहन अनुसंधान करती थी। आशिमा को समाचार पत्र और पत्रिका पढऩे की भी आदत थी, जिससे वह सम-सामयिक विषयों से अवगत रहती थी; जिसका फायदा उसे लेखन में मिलता था। कविता वह तभी लिखती थी, जब मौसम बहुत खुशनुमा होता था या वह बहुत खुश होती थी। चूँकि मुम्बई का मौसम हमेशा खुशनुमा रहता था और घर में भी वह लाडली थी। इसलिए उसे कविता लिखने में कभी कोई परेशानी नहीं होती थी।

आशिमा इनसाइक्लोपीडिया दो बार पढ़ चुकी थी। मनोरमा ईयर बुक का नया संस्करण वह हर साल पढ़ती थी। कहानी की किताबें तो वह नियमित तौर पर पढ़ती थी। हिन्दी की किताबें पढऩे में आशिमा की कोई खास रुचि नहीं थी। फिर भी नंदन, बाल भारती, चंपक, पंचतंत्र और बीरबल की कहानियाँ यदा-कदा वह पढ़ती रहती थी। अंग्रेजी भाषा से उसे खास लगाव था। कई अंग्रेजी कहानी की किताबें वह पढ़ चुकी थी और उसकी पढ़ी हुई किताबों की सूची में हर महीने 8 से 10 नयी किताबें जुड़ जाती थीं। एलन मूरे की बैटमैन द किलिंग जोक, क्रिस वेयर की जिमी कोरीगन द स्मार किड ऑन अर्थ, क्रेग थॉमसन की ब्लेंकेट्स, ब्रायन के वॉगन की सागा, टॉम पारकिसन मॉर्गन की किल सिक्स बिलियन डेमन्स, एलिसन बेचडेल की फन होम अ फैमली ट्रेजी कॉमिक आदि से आशिमा विशेष रूप से प्रभावित थी। आशिमा के सामान्य ज्ञान या उसके लेखन या फिर उसके पेंटिंग करने के गुण आदि से टीचर भली-भाँति परिचित थे। बावजूद इसके टीचर जान-बूझकर उसकी प्रतिभा को नज़रअंदाज़ करते थे। वे उन बच्चों को तरजीह देते थे, जिनके अभिभावकों से उनकी जान-पहचान होती थी या जिनके बच्चों को वे ट्यूशन पढ़ाते थे या जिनके अभिभावक उन्हें गिफ्ट देते थे। बच्चों का भी ग्रुप बना हुआ था। इस ग्रुप के कुछ बच्चे आशिमा को नियमित रूप से बुली करते थे और ऐसा करने के लिए टीचर उन्हें शह देते थे। इसी वजह से आशिमा को कभी स्कूल के सालाना कार्यक्रम में उभरते लेखक का पुरस्कार नहीं दिया गया, जबकि वह स्थापित लेखिका थी। स्कूल में होने वाले क्विज में भी आशिमा को कभी शामिल नहीं किया जाता था।

आशिमा को अच्छी तरह से अहसास हो गया था कि इस दुनिया में जीने के लिए खुद को मानसिक रूप से मज़बूत रखना ज़रूरी है। अपने अधिकारों को पाने के लिए चुपचाप रहना समाधान नहीं है। सिर्फ प्रतिभाशाली होना भी काफी नहीं है। अपने को साबित करने एवं अपने गुणों की मार्केटिंग करने की ज़रूरत है। शिक्षा आज कारोबार बन गयी है। गुरु-शिष्य की परम्परा बीते ज़माने की बात हो गयी है। टीचर से बहुत अपेक्षा रखना बेवकूफी है। बच्चे पढ़ रहे हैं या नहीं? इससे मतलब न तो टीचर को है और न ही स्कूल संचालकों को। सभी को सिर्फ पैसा चाहिए। तन-मन-धन से टीचरों की सेवा करने वाले बच्चे ही व्यावहारिक हैं, आदि-आदि।

लोगों की लगातार उपेक्षा सहने की वजह से आशिमा कम उम्र में ही परिपक्व बन गयी थी। उसने कम उम्र में ही हर तरह के उतार-चढ़ाव को देख लिया था। लोगों की फितरत को वह अच्छी तरह से समझने लगी थी। वह ज़हीन और प्रतिभाशाली थी; लेकिन सिस्टम ने उसकी प्रतिभा को दबा दिया था। उसका खुद पर से भरोसा उठने लगा था; लेकिन इस जीत ने उसके अन्दर के आत्मविश्वास को फिर से जगा दिया। सभी के नज़रिये को भी इस जीत ने पूरी तरह से बदल दिया। अब वह टीचरों, दोस्तों और रिश्तेदारों की आँखों में अपने प्रति सम्मान के भाव को साफ तौर पर देख पा रही थी।