पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जी-जान से जुटे सियासी दल
देश में चुनावी बुख़ार चढ़ चुका है। चुनाव वाले राज्य तो ख़ैर चुनावी रंग में डूबे ही हैं; लेकिन जिन राज्यों में चुनाव नहीं हो रहे हैं, वहाँ भी इन राज्यों, ख़ासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब को लेकर नुक्कड़ की आम लोगों की महफ़िलों में सम्भावित नतीजों और उनके 2024 के लोकसभा चुनाव पर असर की चर्चा हर कोई कर रहा है। उत्तर प्रदेश को देश की सत्ता का गेटवे (द्वार) माना जाता है, लिहाज़ा वहाँ जनता क्या फ़ैसला करेगी? यह बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। फ़िलहाल सभी राजनीतिक दल जीत के लिए जी-जान एक किये हुए हैं। आख़िर यह चुनाव कई नेताओं के भविष्य का फ़ैसला करेंगे। विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-
सन् 2017 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले भाजपा के लिए इस बार के चुनाव उत्तर प्रदेश में बड़ी चुनौती हो सकते हैं। क्यों? क्योंकि उन दोनों चुनावों में भाजपा चुनाव का नैरेटिव तैयार करने में सफल रही थी; लेकिन इस बार नहीं कर पायी है। इस दौरान भाजपा के पिछड़े वर्ग के एक दर्ज़न से ज़्यादा विधायक-मंत्री उसका साथ छोडक़र सपा में जा चुके हैं। किसानों का एक बड़ा वर्ग भाजपा से रूठा बैठा है। यही नहीं, पिछले विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले इस बार उसके विरोधी कहीं ज़्यादा मज़बूती से चुनाव मैदान में डटे हैं, ख़ासकर सपा और कांग्रेस।
उत्तर प्रदेश की ज़मीनी हक़ीक़त से ज़ाहिर होता है कि योगी सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी माहौल भी है। ऐसे हालात में भी भाजपा उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में भी 300 सीटें जीतने का दावा कर रही है और कह रही है कि चंद विधायकों के जाने से उसकी चुनावी सम्भावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि योगी सरकार ने जनकल्याण के काफ़ी काम किये हैं। लेकिन पिछले पाँच साल में यह पहला ऐसा चुनाव है, जो भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं दिख रहा है। बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अपनी हार से बचने के लिए चुनाव के नज़दीक भाजपा बहुत चतुराई से कोई और बड़ा मुद्दा खड़ा करके चुनाव का रूख़ अपने पक्ष में करने की फिर कोशिश कर सकती है।
सन् 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने नोटबंदी को पूरी सफलता से अपना चुनावी नारा बना लिया था। यह एक ऐसा पक्ष था, जो उसने बहुत चतुराई से चुना था। नोटबंदी से उसने बसपा और सपा जैसे विरोधियों को जहाँ आर्थिक झटका दिया, वहीं जनता में यह सन्देश देने में सफल रही कि प्रधानमंत्री मोदी का यह क़दम देश में भ्रष्टचार की कमर तोड़ देगा। लेकिन नोटबंदी से देश में कोई बेहतर बदलाव नहीं हुआ। उलटे जनता ने असंख्य मुश्किलें झेलीं और छोटे-मोटे काम-धन्धे करने वालों की कमर टूट गयी।
जनता में सन् 2018 के आख़िर तक नोटबंदी के शिगूफ़े का असर पूरी तरह ख़त्म हो चुका था और भाजपा इसे अपने ख़िलाफ़ देखने लगी थी। लिहाज़ा चिन्तित भाजपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव आते-आते पुलवामा और बालाकोट के ज़रिये देशभक्ति का नया नैरेटिव स्थापित कर दिया। उसने इसे इतनी चतुराई से भुनाया कि लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव में उसके अपने बूते बहुतमत ही हासिल नहीं किया, बल्कि 300 के पार सीटें जीतने में भी सफल रही। निश्चित ही यह मोदी सरकार के 2014-2019 के बीच किये कामों से ज़्यादा लोगों की देशभक्ति की भावना का करिश्मा था। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि जनवरी के शुरू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पंजाब दौरे के दौरान एक पुल पर फँसने के मसले को भी भाजपा ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में भुनाने की कोशिश की थी। इस घटना को इस रूप में पेश करने की कोशिश की गयी कि यह प्रधानमंत्री को शारीरिक नुक़सान पहुँचाने की कोशिश थी। भाजपा के नेताओं ने देश भर में प्रधानमंत्री मोदी के लिए महामृत्युंजय यज्ञ और पत्रकार वार्ता करके एक माहौल बनाने की पूरी कोशिश की। गोदी मीडिया ने भी अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। लेकिन भाजपा और गोदी मीडिया का प्रधानमंत्री मोदी को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश वाला आरोप कामयाब नहीं हुआ; और न ही यह आरोप जनता के लगे उतरा। कुल मिलाकर भाजपा इसे भी चुनाव जीतने का नैरेटिव तैयार करने में नाकाम हो गयी। हर बार चुनाव से पहले जनभावना अपने पक्ष में करने के नये-नये नैरेटिव तैयार करने की ये बेचैन कोशिशें बताती हैं कि भाजपा अब उत्तर प्रदेश चुनाव में ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही है।
कोरोना की दूसरी लहर में उत्तर प्रदेश में जैसी हालत हुई, उससे लोगों में अभी तक ग़ुस्सा है। इससे मुख्यमंत्री योगी की शासन क्षमता पर ढेरों सवाल उठे हैं। उत्तर प्रदेश की नदियों में जिस तरह कोरोना से मरने वालों के शव तैरते मिले, उसने भाजपा और योगी दोनों की छवि को जबरदस्त नुक़सान पहुँचाया है। उसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पायी थी कि चुनाव की घोषणा के बीच फिर कोरोना-माइक्रॉन का हमला होने से लोगों में फिर चिन्ता पसर गयी है। सरकार चुनावों में व्यस्त है और महामारी के मामले बढ़ते जा रहे हैं।
भाजपा के जनवरी के पहले पखबाड़े जिस राजनीतिक घटनाक्रम ने सबसे ज़्यादा विचलित किया, वह उसके एक दर्ज़न से ज़्यादा पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के विधायकों का पार्टी से टूट जाना था। पिछले पाँच सालों में हुए चुनावों, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में, पिछड़े वर्ग के लोग भाजपा के लिए बड़ी ताक़त रहे हैं। ऐसा नहीं कि इन दर्ज़न भर विधायकों के जाने से उसके पास पिछड़े वर्ग के विधायक ही नहीं बचे हैं। भाजपा पिछड़ा वर्ग को अपने साथ बनाये रखने के लिए कितनी चिन्तित है, यह भाजपा के विधानसभा चुनाव के लिए तय उम्मीदवारों की संख्या से ज़ाहिर हो जाता है। भाजपा ने पहली सूचियों में तो पिछड़ों की संख्या उतनी नहीं रखी लेकिन दर्ज़न भर विधायकों की बग़ावत के बाद चौथी लिस्ट में उसने 85 उम्मीदवारों में 49 पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग के हैं। लिस्ट में 85 में से 30 पिछड़ा वर्ग के हैं। यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा कि अखिलेश प्रसाद यादव की पिछली सरकार में पिछड़ा वर्ग के मंत्रियों की संख्या 31.9 फ़ीसदी थी, जबकि योगी सरकार में यह 35.1 फ़ीसदी है। हालाँकि इसके बावजूद पिछड़ा वर्ग में भाजपा के प्रति इस बात को लेकर नाराज़गी है और उनका आरोप है कि योगी सरकार में सिर्फ़ एक ही वर्ग को महत्त्व मिला है और पिछड़ा वर्ग के मंत्रियों को ताक़त नहीं दी गयी है। यही आरोप लगते हुए स्वामी प्रसाद मौर्या और उनके समर्थक विधायक भाजपा छोडक़र सपा में शामिल हुए।
भाजपा ने पिछड़े वर्ग की चिन्ता में ही हाल में ऐच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) लेने वाले आईपीएस अधिकारी असिम अरुण को भाजपा में शामिल करके उन्हें कन्नौज सदर सुरक्षित सीट से टिकट दिया गया है। भाजपा ने चौथी सूची में जिन 85 उम्मीदवारों के नाम घोषित किये हैं उन सीटों पर पिछले चुनाव में 73 सीटें जीती थीं। बाद में चार विधायक सपा में चले गये और बाकी बचे 69 में 13 के टिकट काटकर पार्टी ने 56 को फिर मैदान में उतारा है। जहाँ तक अन्य की बात है, उनमें 15 ठाकुरों, 14 ब्राह्मणों, चार वैश्यों और तीन पंजाबियों को टिकट दिया है। वैसे पिछड़ा वर्ग में भी भाजपा का फोकस लोधी, कुर्मी, मौर्या, कुशवाहा और शाक्य पर रहा है।
दल बदल से चिन्तित नहीं भाजपा!
वैसे दर्ज़न भर पिछड़े विधायकों के जाने से भाजपा विचलित नहीं है। पार्टी का कहना है कि उसके पास पिछड़े समुदायों के पर्याप्त वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी को राज्य में आगामी चुनावों में उसे 300 सीटों को पार करने का पक्का भरोसा है। हाल में भाजपा की तरफ़ से इस तरह के बयान आये हैं, जिनमें पार्टी ने कहा कि स्वामी प्रसाद मौर्य और सपा में जाने वाले अन्य नेताओं को पता था कि उनके टिकट काट दिये जाएँगे। पार्टी ने यह भी कहा था कि वह विधानसभा चुनावों में अपने सांसदों को उम्मीदवार नहीं बनाएगी। पार्टी ने एकाध अपवाद को छोडक़र परिवार में एक से अधिक सदस्यों को टिकट देने से बचने की भी कोशिश की है। पार्टी में कई सांसद अपने बच्चों के लिए टिकट चाहते थे। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जैसे अपवाद को छोड़ दें, तो पार्टी ने दावा किया है कि उसने योग्यता के आधार पर टिकट देने की कोशिश की है। हाल के विधायकों के दल बदल के बाद गृह मंत्री और भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह भी 21 जनवरी को उत्तर प्रदेश दौरे पर गये। उन्होंने वहाँ हालात को जानने की कोशिश की और अपने नेताओं को नयी स्थितियों के आधार पर आगे बढऩे का मंत्र दिया।
अमित शाह के उत्तर प्रदेश दौरे से ऐन पहले भाजपा ने मुलायम सिंह यादव की बहू अपर्णा यादव को पार्टी में शामिल किया और अनुप्रिया पटेल के अपना दल से गठबंधन को अन्तिम रूप दिया। पार्टी का संजय निषाद की पार्टी के साथ भी गठबंधन है। पिछड़ा वर्ग को ध्यान में रखकर ही पार्टी यह सब कर रही है, ताकि चुनाव में पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग में सही सन्देश जाए। भाजपा को पहले दो चरणों में पिछले चुनाव में अपने प्रदर्शन को दोहराने का भरोसा है, जब उसने 2017 के चुनाव में 83 विधानसभा सीटें मिली थीं।
भाजपा से नाराज़ हैं किसान
किसान अभी तक भाजपा से नाराज़ हैं। कुछ ऐसे वीडियो अब सामने आ रहे हैं, जिसमें यह दिखता है कि वोट माँगने गये भाजपा के प्रत्याशियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग खदेड़ रहे हैं। इन घटनाओं से यह संकेत मिलते हैं कि किसानों को साधना इस चुनाव में भाजपा के लिए सबसे मुश्किल काम है। इसके अलावा लखीमपुर की घटना, जिसमें मोदी सरकार में राज्यमंत्री और भाजपा नेता के बेटे के पाँच किसानों को बेरहमी से अपनी गाड़ी के नीचे कुचल देने की घटना से किसान ही नहीं, दूसरे लोगों में नाराज़गी है।
उनका मानना है कि यह घटना ज़ाहिर करती है कि भाजपा के नेता अहंकार में इतने अंधे हो चुके हैं कि इंसानों की ज़िन्दगी को भी वे कुछ नहीं समझते। ऊपर से इन किसानों को कुचलने वाले बेटे के केंद्रीय मंत्री पिता ठसके से अपने पद पर बने हुए हैं, जबकि कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष उनको मंत्रिमंडल से बाहर करने की माँग करता रहा है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा और 12 अन्य लोगों पर आरोप है कि उसने लखीमपुर खीरी में चार किसानों और एक पत्रकार को गाडिय़ों से रौंदकर मार दिया। आशीष मिश्रा इस मामले के मुख्य अभियुक्त है। किसानों की भाजपा के प्रति इस नाराज़गी को चुनाव में भुनाने के इरादे से ही समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश प्रसाद यादव ने हाल में एक मंच सजाकर लखीमपुर खीरी घटना में गम्भीर घायल हुए तेजिंदर विर्क को साथ लेकर ‘अन्न संकल्प’ किया। विर्क उत्तराखण्ड के रहने वाले हैं और तराई किसान संगठन के अध्यक्ष हैं। लखीमपुर खीरी में किसान आन्दोलन के दौरान वे काफ़ी सक्रिय रहे थे। हालाँकि कई किसान नेताओं का यह भी कहना है कि यह नहीं कहा जा सकता कि सभी किसान विर्क के कहे मुताबिक, सपा का ही समर्थन करेंगे।
अखिलेश यादव ने अन्न संकल्प के दौरान कहा कि आख़िर किसानों के संघर्ष ने केंद्र सरकार को झुका दिया। उनके मुताबिक, वोटों के लिए भाजपा ने तीनों कृषि क़ानून वापस लिए। किसानों को लुभाने के लिए यादव ने कहा कि सपा अन्न संकल्प लेती है कि जिन्होंने किसान पर अत्याचार और अन्याय किया है, उनको हराएँगे और हटाएँगे। ख़ुद विर्क कह चुके हैं कि किसानों का एकमात्र मक़सद भाजपा को हराना है। सपा को समर्थन पर विर्क कहते हैं कि चूँकि वही इस समय भाजपा को हराने की स्थिति में है, उसे समर्थन दिया जाएगा।
हालाँकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस पर एक ट्वीट के ज़रिये तंज किया और कहा कि दंगाइयों, अपराधियों और आतंकवादियों का हाथ थामने वाले लोग आज अन्नदाताओं के शुभ-चिन्तक होने का नाटक कर रहे हैं। किसान जानते हैं कि मौसम से भी ज़्यादा नुक़सान किसानों को उनके (अखिलेश यादव) के शासनकाल के दंगों के कारण हुआ। वे अन्नदाता प्रेमी नहीं जिन्ना प्रेमी हैं।
भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मतदान की शुरुआत पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होनी है, जो किसानों का मज़बूत गढ़ है। तीन कृषि क़ानून वापस लेने के बावजूद किसानों का ग़ुस्सा ठंडा नहीं हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि भाजपा नेता आज भी किसानों के प्रति उपहास वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। वे उन्हें दंगाई और ख़ालिस्तानी कहने से भी नहीं हिचकते। ऐसे में यह तो तय है कि किसानों का बड़ा वर्ग भाजपा के ख़िलाफ़ जा सकता है। वैसे हाल में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत का एक बयान ख़ूब वायरल हुआ था, जिसमें वे सपा-रालोद गठबंधन के एक उम्मीदवार को समर्थन की बात कर रहे थे। हालाँकि बाद में उन्होंने यह कहा कि वे किसी राजनीतिक विशेष के समर्थन में नहीं हैं। नरेश टिकैत का यह बयान रालोद नेता जयंत चौधरी के नरेश टिकैत का हालचाल जानने के लिए अस्पताल जाने के कुछ दिन बाद आया था। शायद इस शिष्टाचार के उपकार में ही नरेश ने यह बात कही हो। रालोद किसान आन्दोलन में सक्रिय रही थी और जाट उनके समर्थक माने जाते हैं। लिहाज़ा रालोद इस चुनाव में ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतकर सरकार बनाने की प्रभावी भूमिका में आना चाहती है।
हाल में केंद्रीय मंत्री और मुज़फ़्फ़रनगर से भाजपा सांसद संजीव बालियान की मुज़फ़्फ़रनगर में नरेश टिकैत से मुलाक़ात भी ख़ासी चर्चा में रही थी। हालाँकि राकेश टिकैत जिस तरह सख़्ती से भाजपा का विरोध कर रहे हैं उसे देखते यह कम ही सम्भावना है कि यह किसान नेता परदे के पीछे कोई खेल करेगा। राकेश लगातार किसानों की माँगों पर अटल हैं और भाजपा पर हमले कर रहे हैं।
वैसे देखा जाये तो लखीमपुर खीरी घटना में कांग्रेस सपा से कहीं ज़्यादा सक्रिय रही थी। प्रियंका गाँधी और राहुल गाँधी दोनों लखीमपुर जाकर पीडि़त किसानों और पत्रकार के परिवार से मिले थे। भले सपा अब किसानों को सक्रिय दिख रही हो, कांग्रेस ने लगातार किसानों के हक़ में आवाज़ उठायी है। ऐसे में भला प्रियंका गाँधी कहाँ पीछे रहने वाली हैं। वे लखीमपुर काण्ड और किसानों के मुद्दे को ज़िन्दा रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं।
कांग्रेस लखीमपुर काण्ड में जान गँवाने वाले पत्रकार रमन कश्यप के भाई पवन कश्यप को पार्टी में शामिल कर चुकी है। किसान भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी ने अक्टूबर की घटना के बाद पार्टी की पूरी राजनीतिक ताक़त लखीमपुर के पीडि़त किसानों को इंसाफ़ के लिए लगायी है, लिहाज़ा उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। देखना दिलचस्प होगा कि किसान किस रूप में किस स्तर पर प्रियंका गाँधी और कांग्रेस का समर्थन करते हैं। कांग्रेस को लेकर फ़िलहाल तो यही माना जाता है कि पिछले कई साल के सूखे के बाद इस बार प्रदेश में उसकी सीटें बढ़ सकती हैं। पार्टी नेता मानते हैं कि यदि कांग्रेस 30 या उससे ज़्यादा सीटें जीत जाती है, तो सरकार बनाने में उसकी भूमिका अहम हो सकता है। ख़ुद प्रियंका गाँधी कह चुकी हैं कि भाजपा के अलावा किसी भी अन्य दल का समर्थन पार्टी ले सकती है। अर्थात् ज़रूरत पड़ी, तो समर्थन किया भी जा सकता है। ज़ाहिर है सपा के लिए यह संकेत है। यह भी देखा गया है कि पिछले कुछ समय से सपा प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस और इसके नेतृत्व के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल रहे।
किसान नेता राकेश टिकैत भी कह चुके हैं कि विपक्ष का मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है। भारतीय किसान यूनियन के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष राजवीर सिंह जादौन ने भी हल में कहा था कि लड़ाई सरकार (योगी सरकार) से थी और कौन सी सरकार किसानों की हितैषी है, यह किसान अच्छे से जानते हैं। ज़ाहिर है बुंदेलखण्ड में किसानों की समस्या योगी सरकार और भाजपा के लिए संकट बनी हुई है। तीसरे चरण में जिन 16 ज़िलों की 59 विधानसभा सीटों पर वोट पड़ेंगे, उनमें बुंदेलखण्ड के माधौगढ़, कालपी, उरई, बबीना, झांसी नगर, मऊरानीपुर, गरौठा, ललितपुर, मेहरोनी, हमीरपुर, महोबा और चरखारी शामिल हैं। बुंदेलखण्ड के इलाक़े में पिछले चुनाव में भाजपा ने 19 की 19 सीटें अच्छे अन्तर से जीती थीं। हालाँकि अब किसानों की नाराज़गी और अन्ना पशु जैसे मुद्दे उसके गले की फाँस बन सकते हैं।
जहाँ तक बसपा की बात है वह इस चुनाव में ठंडी दिख रही है। बसपा नेता मायावती लोगों से यह अपील कर रही हैं कि लोग कांग्रेस को वोट न दें, क्योंकि उसकी नेता (प्रियंका गाँधी) ने ख़ुद को पहले मुख्यमंत्री पद की दौड़ में बताया और कुछ घंटे में ही अपना बयान बदल लिया, जिससे साफ़ है कि कांग्रेस की हालत पतली है। वैसे मायावती का यह बयान इसलिए आया माना जा रहा है कि क्योंकि उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस बसपा से आगे निकलती दिख रही है। बसपा न किसानों की आवाज़ बन पायी है, न अन्य वर्गों की। ऐसे में उसके सामने सचमुच इस चुनाव में गम्भीर संकट की स्थिति है।
उत्तर प्रदेश पर पैनी नज़र
उत्तर प्रदेश केंद्र की राजनीति के लिए बहुत अहम है। उत्तर प्रदेश देश की राजनीति में एक राज्य भर नहीं है, बल्कि दिल्ली जाने का गेटवे है। यही कारण है भाजपा से लेकर कांग्रेस, सपा तक सभी अपना अधिकतम इस चुनाव में झोंक रहे हैं। इनमें भाजपा और कांग्रेस विधानसभा के अलावा दिल्ली की राजनीति को भी ध्यान में रखे हैं। सपा का पहला फोकस फ़िलहाल ज़रूर विधानसभा पर है। भाजपा को पता है कि साल 2024 के चुनाव में यदि सत्ता में वापसी करनी है, तो उत्तर प्रदेश पर क़ब्ज़ा बरक़रार रखना होगा। दिलचस्प यह है कि विपक्षी दल, किसान और अन्य भाजपा विरोधी मानते हैं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में रोकना बहुत ज़रूरी है, ताकि साल 2024 में दिल्ली का उसका रास्ता मुश्किल कर दिया जाये। हालाँकि भाजपा भरोसा कर रही है कि विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भले उसकी सीटें घट जाएँ, सरकार वहीं बनाएगी।
सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लोकसभा चुनाव में 300 के पार जाने का एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश में उसकी बादशाहत बरक़रार रहना था। हालाँकि सच यह भी है कि सन् 2014 और सन् 2019 के लोकसभा चुनावों और सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले इस 2022 के विधानसभा चुनाव के ज़मीनी हालात में काफ़ी अन्तर है। भाजपा की लोकप्रियता आज उस स्तर नहीं। केंद्र में पिछले क़रीब ढाई साल के एनडीए शासन में कई ऐसी चीज़ें हुई हैं, जो भाजपा के ख़िलाफ़ कही जा सकती हैं। दूसरे इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने योगी सरकार की ऐंटी-इंकम्बैंसी की चुनौती भी है। ऐसे में उसे इस विधानसभा चुनाव में पिछले चुनावों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक नेता ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि यह सच है कि हमें उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव जैसा जन-समर्थन शायद न मिले; लेकिन हमारे प्रधानमंत्री का करिश्मा अभी बरक़रार है। वोट उनके नाम पर पड़ेंगे और हम बहुमत लायक सीटें जुटा लेंगे।
ऐसा नहीं हैं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में अपनी ज़मीनी हक़ीक़त पता नहीं है। उसे मालूम है कि इस बार राह उतनी आसान नहीं है। लिहाज़ा वो मुद्दों का चयन ध्रुवीकरण के हिसाब से कर रही है। ‘लाल टोपी वालों के लिए रेड अलर्ट’ वाले प्रधानमंत्री मोदी के चुनावी प्रचार वाले जुमले से लेकर भाजपा के नेता चुनाव में धार्मिक मुद्दों को बनाये रखने से उसकी चिन्ता तो उजागर होती ही है।
गोरखपुर में योगी की मुश्किलें
भाजपा में योगी आदित्यनाथ भले मुख्यमंत्री हैं और उन्हें ही भाजपा की सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री बनना तय माना जाता है; लेकिन एक बात में उनकी भी भाजपा में नहीं चली। पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के मुताबिक, योगी इस बार का चुनाव गोरखपुर से नहीं लडऩा चाहते थे। वह अयोध्या या मथुरा से चुनाव लडऩे के इच्छुक थे। लेकिन भाजपा आलाकमान ने उनकी सीट नहीं बदली। इसके क्या मायने हैं? भाजपा के ही कुछ नेताओं की मानें, तो गोरखपुर में योगी संकट में पड़ सकते हैं। वहाँ समीकरण योगी के बहुत ज़्यादा पक्ष में नहीं हैं और अपनी सीट जीतने के लिए उन्हें काफ़ी मेहनत करनी होगी।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भाजपा में योगी को कमज़ोर करने की कोशिश हो रही है? और यह भी सवाल है कि उन्हें कमज़ोर करने की कोशिश कर कौन रहा है? योगी इस विधानसभा चुनाव में भले मुख्यमंत्री पद के भाजपा के अघोषित उम्मीदवार हों, उनका नाम पार्टी में बहुत लोग भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में लेते हैं। ऐसे में यह सवाल तो उठता है कि क्या योगी को भाजपा के बीच ही रोकने की कोशिश हो रही है?
यह बात गले से आसानी से नहीं उतरती। लेकिन भाजपा के ही भीतर यह चर्चा तक रही है कि पार्टी के ही कुछ लोग योगी को बम्पर बहुमत से इस चुनाव में जीता हुआ नहीं नहीं देखना चाहते; क्योंकि इससे उनकी स्थिति भाजपा के भीतर बहुत मज़बूत हो जाएगी और वह भविष्य के लिए प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार के रूप में उभरेंगे।
याद करें तो सन् 2017 में हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति बनी थी, जब पार्टी के मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर हलक़े से चुनाव लडऩा चाहते थे। लेकिन पार्टी आलाकमान ने उन्हें सुजानपुर से लडऩे का फ़रमान जारी कर दिया। नतीजा यह रहा कि धूमल मुख्यमंत्री उम्मीदवार होते हुए भी चुनाव में हार गये, जबकि उनकी वजह से ही भाजपा को चुनाव में 44 सीटें मिली थीं। ऐसी स्थिति अब उत्तर प्रदेश में भी दिख रही हैं, जहाँ योगी न चाहते हुए भी गोरखपुर से चुनाव मैदान में हैं।
हालाँकि पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि मुख्यमंत्री योगी गोरखपुर से लड़ेंगे, तो इसका लाभ पार्टी को पूर्वांचल की सभी सीटों पर मिलेगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि गोरखपुर में योगी का अपना मज़बूत प्रचार तंत्र है, क्योंकि वे यहाँ से पाँच बार सांसद रहे हैं। योगी की हिन्दू युवा वाहिनी भी योगी के लिए ज़मीन पर बहुत मज़बूती से काम करती है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक आज़ाद समाज पार्टी (एएसपी) ने अपने प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद को योगी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार घोषित किया है, जबकि चर्चा है कि सपा यहाँ किसी ब्राह्मण को टिकट दे सकती है। कांग्रेस और बसपा ने भी उम्मीदवार घोषित नहीं किये हैं। पिछली बार योगी विधान परिषद् के रास्ते से सदन में आये थे, जबकि अब वह मैदान में हैं।
कांग्रेस की कोशिश
जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो उसकी प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी महिलाओं और युवाओं पर फोकस कर रही हैं। बिहार में रेलवे भर्ती के नतीजों में धाँधली के आरोपों के बाद जिस तरह युवा सडक़ों पर उतरे और उसका असर यह रिपोर्ट लिखे जाने तक उत्तर प्रदेश में भी दिखने लगा था और इस चुनावी राज्य में भी बेरोज़गारी का मुद्दा ज़ोर पकड़ता है, तो कांग्रेस को उम्मीद है कि प्रियंका गाँधी की मेहनत इसे वोटों में तब्दील कर सकती है।
प्रियंका गाँधी को यदि कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर देती है तो यह इस चुनाव का सबसे बड़ा आकर्षण बन सकता है। ख़ुद प्रियंका ने एक साक्षात्कार में इस बाबत पूछने पर जब यह कहा कि और कौन चेहरा दिखता है आपको? तो इसके बाद कई कयास लगने शुरू हो गये। कांग्रेस उन्हें चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करेगी या नहीं, कहना अभी कठिन है। लेकिन राजनीतिक हलक़ों में माना जाता है कि यदि कांग्रेस इतनी हिम्मत करती है, तो राजनीतिक रिस्क के बावजूद यह चतुराई भरा फ़ैसला होगा। क्योंकि अकेले यह बात अन्तिम समय में भी चुनाव का नैरेटिव बदलने की क्षमता रखती है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमज़ोरी सांगठनिक ढाँचे का लचर होना है। थोड़ा भी मज़बूत होता, तो कांग्रेस इस चुनाव में हाल के दो वर्षों में व्यवस्था के प्रति उभरी युवाओं की नाराज़गी और महिलाओं के वोटों को अपनी तरफ़ मोड़ सकती थी। कांग्रेस ही उत्तर प्रदेश में एक ऐसा राजनीतिक दल है, जो भाजपा के हिन्दू वोट बैंक तक को अपनी तरफ़ खींचने की क्षमता रखता है। सपा से लेकर बसपा तक एक ख़ास वोट बैंक में बँधे हुए दल हैं; लेकिन कांग्रेस उत्तर प्रदेश सभी वर्गों से वोट खींचने के क्षमता रखती है। चाहे ब्राह्मण हों, मुस्लिम हों, पिछड़े हों या दलित। सभी एक समय कांग्रेस का मज़बूत वोट बैंक रहे हैं। हालाँकि इसके बावजूद कांग्रेस ही एक ऐसा दल है, जो इस चुनाव में अभी भी अपनी सीटों की संख्या को आश्चर्यजनक रूप में बढ़ा सकता है।
कांग्रेस की कोशिश उत्तर प्रदेश में ख़ुद को ज़मीन से उठाकर एक राजनीतिक दल के रूप में प्रासांगिक स्थिति में लाने की है। आज से कुछ महीने पहले तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कोई चर्चा नहीं होती थी; लेकिन आज कांग्रेस की चर्चा है। मीडिया में भी और जनता में भी। इसे प्रियंका गाँधी की मेहनत का ही नतीजा कहा जा सकता है।
प्रियंका ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बाक़ायदा युवाओं का विशेष घोषणा-पत्र जारी किया है। ख़ुद कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी ने दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में इसे जारी किया था। इसमें कांग्रेस ने अपनी सरकार बनने की स्थिति में आठ लाख सरकारी पद महिलाओं के लिए रखने और कुल 20 लाख लोगों को नौकरी देने का वादा किया है। कांग्रेस ने यह भी कहा है कि वह चुनाव प्रचार में कोई नकारात्मक बात नहीं करेगी और सिर्फ़ जनता के मुद्दों पर ही चुनाव लड़ेगी। घोषणा-पत्र में कांग्रेस ने 20 लाख नौकरियाँ देने का वादा किया है। इनमें से आठ लाख नौकरियाँ महिलाओं को दी जाएँगी और 1.5 लाख प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती की जाएगी। प्रियंका गाँधी का कहना है कि कांग्रेस ने यह घोषणा-पत्र बनाने से पहले युवाओं से उनकी समस्याएँ समझने की कोशिश की है। उन्होंने ऐलान किया कि किसी भी नौकरी के लिए आवेदन शुल्क नहीं लिया जाएगा।
प्रियंका गाँधी की घोषणाओं के मुताबिक, कांग्रेस सत्ता में आने पर आठ लाख सरकारी पद महिलाओं के लिए देगी जबकि कुल 20 लाख लोगों को नौकरी देंगे। परीक्षार्थियों के लिए रेल और बस यात्रा मुफ़्त होगी। स्टार्टअप्स के लिए 5,000 करोड़ रुपये का फंड रखा जाएगा। एक लाख प्रधानाध्यापकों की नियुक्ति की जाएगी। उत्तर प्रदेश के सभी कॉलेजों में प्लेसमेंट सेल का गठन किया जाएगा। मुफ़्त वाईफाई और लाइब्रेरी जैसी सुविधाएँ दी जाएँगी। हर साल यूथ फेस्टिवल आयोजित होंगे और नशामुक्ति के लिए बड़ा क़दम उठाये जाएँगे। युवा घोषणा-पत्र जारी करने के मौक़े पर प्रियंका गाँधी ने कहा कि भर्ती विधान को बनाने के लिए हमारे कार्यकर्ताओं ने ज़िले-ज़िले जाकर युवाओं से बात की है। उन्होंने पेपर लीक होने पर कड़ी सज़ा का प्रावधान रखने की बात की है।
प्रियंका ने कहा कि कांग्रेस ने तय किया है कि वह उत्तर प्रदेश चुनाव में किसी तरह की ग़ैर मुद्दा बहस नहीं करेगी। सिर्फ़ जनता की बात की जाएगी। जनता के लिए ही यह वादे हैं। राहुल गाँधी ने इस मौक़े पर कहा कि वर्तमान केंद्र और राज्य (उत्तर प्रदेश) सरकार ने युवाओं को रोजगार देने के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस अपना वादा पूरा करेगी।
सपा की ताक़त
सपा की ताक़त यह है कि उसका संगठन ज़मीन पर मज़बूत है। यादवों के वोट की राजनीति करती रही सपा अखिलेश यादव के नेतृत्व में इस बार दलितों और पिछड़ों को भी साथ जोडऩे की कोशिश में दिखी है। हालाँकि इससे जब पार्टी के भीतर यादव वर्ग की नाराज़गी का अहसास उन्हें हुआ तो अखिलेश को कहना पड़ा कि अब वे भाजपा से किसी और को सपा में नहीं लेंगे। लेकिन, इसमें कोई दो-राय नहीं कि सपा भाजपा को कड़ी टक्कर देती दिख रही है। इन स्थितियों में कोई बदलाव चुनाव तक कांग्रेस या बसपा कर पाएँगे, इसकी फ़िलहाल बहुत कम सम्भावना है।
सपा चुनाव की बाद की स्थिति को लेकर उम्मीद के तेज़ दौड़ते घोड़े पर सवार है। उसे लग रहा है कि चुनावी माहौल में अचानक कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ, तो वह सरकार बनाने की स्थिति में आ सकती है। उसका अपना फीडबैक भी कि अगले 10 दिन में कोई बड़ी घटना नहीं हुई तो सपा भाजपा को बराबर टक्कर दे रही है और कांग्रेस भी पहले से ज़्यादा सीटें जीतने की स्थिति में दिख रही है।
सपा का अपना अनुमान है कि फ़िलहाल उसे कांग्रेस नेतृत्व ज़्यादा नहीं बोलना है। हो सकता है चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस उसके सरकार बनाने के काम आये। जहाँ तक बसपा की बात है, इस चुनाव में वह बहुत असमंजस की स्थिति में दिखी है। उसे अपने वोट बैंक पर भरोसा है; लेकिन यह कितनी सीटें बसपा को दिला देगा? सरकार बनाने की बात तो दूर है, बसपा में यह चिन्ता है कि कहीं सीटें जीतने में कांग्रेस उससे आगे न निकल जाए। उत्तर प्रदेश में इस बार कांग्रेस की चर्चा बसपा से ज़्यादा हो रही है, यह बात बसपा नेताओं से लेकर ख़ुद मायावती भी समझ रही हैं। लिहाज़ा उन्होंने कांग्रेस को वोट कटवा पार्टी बताकर उसका वजन काम करने की कोशिश की। कितनी सफलता उन्हें इसमें मिली, यह तो नतीजों से ही ज़ाहिर होगा।
पंजाब में चुनाव की बेला में ईडी के छापे
पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के भतीजे पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की छापेमारी राजनीतिक चर्चा का कारण बन गये। कांग्रेस ने इस पर ग़ुस्सा जताया और इसे सरकारी एजेंसी का दुरुपयोग बताते हुए भाजपा पर हमला किया। लेकिन चुनाव में ख़ुद भाजपा की स्थिति इस सरहदी सूबे में कोई ख़ास अच्छी नहीं। कांग्रेस का आरोप है कि केंद्र में भाजपा सरकार के ईडी के ज़रिये यह छापे देश के एकमात्र दलित मुख्यमंत्री को परेशान करने की कोशिश है; लेकिन जनता इसका जवाब देगी। हालाँकि भाजपा का कहना है कि भ्रष्टचार को जाति से जोडऩा कांग्रेस के इरादों को साफ़ करता है।
कांग्रेस ने इन छापों के बाद आरोप लगाया कि ईडी का मतलब भाजपा का चुनाव विभाग है। कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि भाजपा पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर काम कर रही है और देश में एकमात्र दलित मुख्यमंत्री सरदार चरणजीत सिंह चन्नी से बदला ले रही है। कांग्रेस का मामले को दलित बनाना इस कारण से है, क्योंकि सूबे में 32 फ़ीसदी के क़रीब आबादी है। चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से इस वर्ग में ख़ुशी है, कांग्रेस को यह लगता है।
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने जो छापे मारे वह रेत खनन से सम्बन्धित धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) से जुड़े हैं। ईडी ने पंजाब के मुख्यमंत्री के भतीजे भूपिंदर सिंह हनी के 10 अलग-अलग ठिकानों पर छापेमारी की। ईडी की टीम ने इस दौरान किसी को घर से निकलने की इजाज़त नहीं दी, जैसा कि वो ऐसे छापों के दौरान करती ही है। बाद में यह ख़बर आयी कि ईडी ने मुख्यमंत्री के भतीजे भूपिंदर सिंह के लुधियाना स्थित ठिकाने पर छापेमारी में क़रीब चार करोड़ रुपये बरामद किये। इसके अलावा लुधियाना में ही एक अन्य व्यक्ति संजीव कुमार के ठिकाने से दो करोड़ रुपये मिले। इस छापेमारी का नतीजा यह निकला कि आम आदमी पार्टी, जो पंजाब के इस चुनाव में कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी दिख रही है, को कांग्रेस पर हमला करने का अवसर मिल गया। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि ऐन चुनाव के मौक़े पर ईडी या किसी भी एजेंसी की इस तरह के छापों पर सवाल उठते हैं और इन्हें राजनीति से जोडक़र देखा जाता है। हाल के महीनों में यह देखा गया है कि ईडी और सीबीआई का राजनीति मक़सद के लिए जमकर इस्तेमाल किया गया है। पंजाब में चुनाव सर्वे जो कह रहे हों, फ़िलहाल मुक़ाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में है, जिसमें कांग्रेस कुछ आगे दिखती है। बाक़ी सभी तीसरे नंबर की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें भाजपा भी शामिल है।
उत्तराखण्ड की स्थिति
उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव के मुहाने पर दलबदल का बड़ा खेल देख रहा है। भाजपा के नेता कांग्रेस में आ रहे, कांग्रेस के भाजपा में जा रहे। चुनाव के नज़दीक यह एक रिवाज़-सा है। हालाँकि इससे नतीजों को लेकर कोई कयास लगा पाना मुश्किल होता है। बंगाल में यह सबने देखा था, जहाँ चुनाव से पहले टीएमसी के कई नेता ममता बनर्जी का साथ छोडक़र भाजपा में जा मिले थे। लेकिन जब नतीजे आये, तो ममता बनर्जी (टीएमसी) की सीटें पिछली बार से ज़्यादा हो गयी थीं।
उत्तराखण्ड में भाजपा के ख़िलाफ़ यह बात थी कि उसने अकेले पिछले साल कम समय में तीन मुख्यमंत्री बदल दिये, जिसका विपरीत असर इस पहाड़ी राज्य में सीधे विकास के कामों पर पड़ा। जनता में भी भाजपा के प्रति नाराज़गी दिखायी दी है। हालाँकि भाजपा ने अपने सबसे ज़्यादा भरोसे के चेहरे प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा करते हुए उम्मीद रखी है कि भले पिछली बार से सीटें कम हो जाएँ, सरकार उसकी ही बनेगी। हालाँकि निष्पक्ष राजनीतिक टिप्पणीकारों की सुनें तो यह संकेत मिलता है कि चुनाव तक कांग्रेस ने वर्तमान माहौल $कायम रखा तो वह भाजपा को झटका दे सकती है।
राज्य में भाजपा को अपनी सरकार के ख़िलाफ़ जनता के बीच बने सत्ता विरोधी रूख़ से बचने के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के चेहरे पर भरोसा है। उत्तराखण्ड ऐसा राज्य है, जहाँ पिछले 21 साल में 11 मुख्यमंत्री बन चुके हैं। यही नहीं दिवंगत नारायण दत्त तिवारी अकेले ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने पाँच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया है। इस चुनाव में धामी यदि भाजपा को जिता पाते हैं, तो यह कमाल ही कहलाएगा।
कांग्रेस की चुनाव पतवार दिग्गज और अनुभवी नेता हरीश रावत के हाथ है। चुनाव रणनीति में वह माहिर माने जाते हैं। हाल में हरक सिंह रावत कांग्रेस में शामिल। कांग्रेस में जाने से पहले ही उन्होंने दावा किया कि चुनाव के बाद कांग्रेस बम्पर बहुमत के साथ सत्ता में आ रही है। हालाँकि तब तक भाजपा उन्हें मंत्रिमंडल और पार्टी से बाहर कर चुकी थी। लेकिन इसके बावजूद उत्तराखण्ड में कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाजपा को निश्चित ही पहाड़ी राज्य में चुनाव की बड़ी चुनौती है। अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी उत्तराखण्ड में दाँव लगा रही है। अभी तक की स्थिति यही है कि पार्टी के नाम पर न सही, उम्मीदवारों के चेहरों पर पड़े वोट एकाध सीट उसे दिला सकते हैं। लेकिन जो भी वोट आम आदमी पार्टी लेगी, वह कांग्रेस का नुक़सान होगा; क्योंकि यह सभी वोट सत्ता के विरोध के पडऩे वाले वोट होंगे, जो आम आदमी पार्टी के न होने पर कांग्रेस को मिलते।
गोवा के हालात
गोवा में इस बार आम आदमी पार्टी ने भंडारी समुदाय के अमित पालेकर को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर सभी राजनीतिक दलों को रक्षात्मक करने की रणनीति बुनी है। दलबदल का खेल गोवा में भी इधर से उधर जाने का चल रहा है। आज की तारीख़ में गोवा में बहुकोणीय लड़ाई है। वहाँ विपक्ष अलग-अलग दिशाओं में दिख रहा है और बँटा हुआ है। विपक्ष की कोशिश भाजपा को सत्ता से बाहर करने की है। भाजपा पिछले 10 साल से गोवा में सत्ता में है।
कांग्रेस भाजपा से सत्ता छीनने की कोशिश कर रही है; लेकिन चुनाव में आम आदमी पार्टी और टीएमसी के आने से स्थिति दिलचस्प हो गयी है। कांग्रेस का अभी भी दावा है कि वही है, जो भाजपा और टीएमसी, आम आदमी पार्टी, राकांपा-शिवसेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। गठबंधन की कांग्रेस की कोशिश फ़िलहाल सिरे नहीं चढ़ी है।
भाजपा प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी है। कांग्रेस के पास दिगंबर कामत जैसे दिग्गज नेता हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में 40 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को सबसे ज़्यादा 32.48 फ़ीसदी वोट और 13 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को 28.35 फ़ीसदी वोट के साथ 17 सीटें मिले थीं। इस तरह कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी), जिससे कांग्रेस को 11.27 फ़ीसदी वोट के साथ तीन सीटें मिली थीं। क़रीब 11.12 फ़ीसदी वोट के साथ तीन निर्दलीय भी जीते थे।
मणिपुर के समीकरण
मणिपुर की 60 विधानसभा सीटों के लिए दो चरणों में 27 फरवरी और 3 मार्च को मतदान होना है। भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का नेनृत्व मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह कर रहे हैं और सरकार दोहराने की लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले चुनाव की बात करें तो 2017 में कांग्रेस को 28 सीटें, भाजपा को 21 सीटें, एनपीएफ और को चार-चार, एलजेपी और तृणमूल को एक-एक और निर्दलीय को भी एक ही सीट मिली थी। इस बार चुनाव से पहले ही टीएमसी ने ख़ुद को तीसरी ताक़त के रूप में स्थापित करने के लिए कांग्रेस जैसे दल में सेंधमारी की है।
इस समय भाजपा के साथ एनपीएफ, एनपीपी और एलजेपी सहयोगी हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि विधानसभा में भाजपा के 28, कांग्रेस के 15, एनपीपी और एनपीएफ के चार-चार, टीएमसी और तृणमूल की एक और निर्दलीय भी एक है, जबकि सात विधानसभा सीटें रिक्त पड़ी हैं।
अफ्सपा को हटाने की माँग पूरे प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा है, जबकि स्थानीय मुद्दे भी हैं। कांग्रेस पिछले चुनाव में मिली 28 सीटों जैसा प्रदर्शन दोहराना चाहती है। लेकिन हाल में उसके कई विधायक भाजपा में चले गये। इस कड़ुवे अनुभव से गुज़री कांग्रेस इस बार विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी बनाये गये लोगों से वफ़ादारी की शपथ ले रही है। पार्टी सभी प्रत्याशियों से वादा ले रही है कि वे चुनाव के बाद भी पार्टी के प्रति वफ़ादार रहेंगे। सन् 2017 में कांग्रेस के जितने विधायक जीते थे, उनमें से तक़रीबन आधे (42 फ़ीसदी) विधायक पिछले साढ़े चार साल में पार्टी छोड़ चुके हैं।
फ़िलहाल चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुक़ाबला है। टीएमसी और स्थानीय राजनीतिक दल भी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतकर बँटे जनादेश की स्थिति में सरकार बनाने में भूमिका निभा सकें।