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गैरी, अगर आपके जीवन की किसी विशेषता पर बात की जाए तो बचपन से ही उसमें आक्रामकता का पुट रहा है. क्या यह सच है? मैंने आपके बारे में पढ़ा है कि आप बचपन से वही करते आए हैं जो आपको सही लगता है.
मैं हमेशा अपने लक्ष्यों पर एकाग्र रहा. मैंने कभी भी केवल जीत पर ध्यान केंद्रित नहीं किया बल्कि मेरी कोशिश रही कि मैं कुछ फर्क पैदा कर पाऊं. अगर आप फर्क पैदा करना चाहते हैं तो आपको यथास्थिति के विरुद्ध आवाज उठानी होगी. यथास्थिति के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए आपको मौजूदा व्यवस्था से लड़ना होगा फिर चाहे वह शतरंज में अनातोली कारपोव हों या राजनीति में व्हादीमिर पुतिन.
आपका अतीत थोड़ा अलग है. आपकी मां आर्मेनिया की थीं और आपके पिता यहूदी. आपकी मां जहां यथार्थवादी थीं वहीं आपके पिता स्वप्नद्रष्टा थे. आपके खेल में भी इन दोनों का मिश्रण देखा जा सकता है जिसमें कड़ी मेहनत और प्रशिक्षण का तत्व भी है और सपनों की उड़ान का भी. क्या इसमें आपके बचपन की भूमिका रही?
मुझे दुख है कि मैं आपको अपने पिता के बारे में बहुत कुछ नहीं बता पाऊंगा. उनकी मौत के वक्त मैं महज सात साल का था. उनकी कुछ बिखरी-बिखरी सी यादें मेरे मन में हैं. लेकिन हां, वे स्वप्नदर्शी थे. मेरे भाई ने मुझे उनकी आकांक्षाओं के बारे में बताया. निश्चित रूप से मुझमें अपने माता-पिता दोनों के गुण हैं. जहां तक बात शतरंज की है तो मैं कहना चाहूंगा कि मेरी शैली रूमानी है. हालांकि बहुत ऊंचे स्तर के शतरंज के बारे में यह कह पाना खासा मुश्किल है कि उसमें कौन-सी शैली अपनाई जाती है. जब भी आप किसी बहुत बड़े खिलाड़ी के साथ खेल रहे होते हैं तो आपकी कोशिश यह होती है कि आप उसे अपने मजबूत क्षेत्र में खींच लाएं. एक खिलाड़ी के रूप में मुझे विविधतापूर्ण और जटिल खेल पसंद है क्योंकि मैं उसमें अधिक सहज महसूस करता हूं.
किस उम्र में आपको लगा कि अब आगे शतरंज ही आपकी जिंदगी होगा?
(हंसते हुए) दुर्भाग्यवश किसी ने उस क्षण को रिकॉर्ड नहीं किया. प्राचीन इतिहास पढ़ते हुए मैं हमेशा चौंक जाता हूं. कहीं पर आपको लिखा मिलेगा- और उस वक्त सिकंदर महान ने यह फैसला किया. मानो कोई ठीक उसी वक्त इस बात को ट्वीट कर रहा हो. मुझे केवल इतना याद आता है कि जब मैंने शतरंज खेलना सीखा तो मुझे इस खेल से जबरदस्त लगाव हो गया. मुझे शतरंज की जटिल चालें सुलझाने में बहुत मजा आता था. मैंने केवल 12 वर्ष की उम्र में तत्कालीन सोवियत संघ की 18 वर्ष तक की उम्र वाली प्रतिस्पर्धा जीत ली थी और शायद सबको यह पता चल गया था कि मेरा भविष्य क्या है. और हां, शायद 14 साल की उम्र में मैंने यह तय कर लिया था कि मुझे विश्व चैंपियन बनना है.
क्या यह वही प्रतिस्पर्धा थी जिसके बारे में कहा जाता है कि आप थोड़े नर्वस थे और आपकी मां ने आपसे कहा कि हर सुबह मैच के पहले पुश्किन की कविता यूजिन ओनेजिन की पंक्तियां दोहरानी चाहिए?
वह टूर्नामेंट बहुत महत्वपूर्ण था. यह जनवरी,1978 की बात है. एक वक्त आता है जब आपको परिणाम देना होता है. मैं वह मैच अपने घर से बहुत दूर खेल रहा था और वहां बहुत बड़े खिलाड़ी थे. जाहिर है मैं थोड़ा डरा हुआ था. कोई भी व्यक्ति जो कहता है उसे डर नहीं लगता, वह दरअसल झूठ बोलता है. डरता तो हर कोई है. बात केवल यह है कि आप अपने डर से किस तरह निपटते हैं. तो वह मेरी मां का एक मनोवैज्ञानिक तरीका था मुझे सहज बनाने का. और मैंने उस टूर्नामेंट में कई ग्रैंडमास्टर्स को हराते हुए जीत हासिल की. निश्चित रूप से मां की सलाह से मुझे अपना तनाव खत्म करने में मदद मिली थी.
शतरंज के खेल में मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण होते हैं?
जी हां, जब आप लगातार एक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ खेलते हैं. कई बार आपको सैकड़ों घंटे एक ही प्रतिद्वंदी के साथ खेलते हुए बिताने पड़ते हैं. जाहिर है आप अपने प्रतिस्पर्धी के बारे में काफी कुछ जान जाते हैं. कई बार आप कुछ चालें चलकर केवल यह देखना चाहते हैं कि उसकी प्रतिक्रिया क्या है. जहां तक मनोविज्ञानियों की मदद की बात है मुझे नहीं लगता कि दर्शकों के बीच बैठा कोई व्यक्ति तब तक आपकी कोई मानसिक मदद कर सकता है जब तक आप खुद ऐसा नहीं चाहें. विश्व चैंपियनशिप में एक चाल से हार और जीत हो सकती है. ऐसे में जाहिर है तनाव बहुत ज्यादा होता है. अब इस हालत में अगर आप मान बैठेंगे कि दर्शकों के बीच बैठा कोई व्यक्ति आपको मानसिक स्तर पर नुकसान पहुंचा सकता है तो फिर आप मुसीबत में हैं.
क्या आपको कभी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा है?
नहीं. क्योंकि मैंने हमेशा से यह यकीन किया है कि मेरी हार या जीत केवल मेरी बुरी अथवा अच्छी चालों की वजह से होती है.
गैरी, एक बार आपने कहा था कि शतरंज बहुत हिंसक खेल है. क्या आप इस बात को थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?
कोई भी खेल हो वह हिंसक होता है. शतरंज एक मानसिक खेल है. यह दो लोगों के बीच मनोवैज्ञानिक युद्ध की तरह होता है. कई लोग सोचेंगे कि मानसिक खेल हिंसक कैसे हो सकता है? यह कोई बॉक्सिंग या फुटबॉल तो नहीं है कि इसमें कोई शारीरिक नुकसान हो. लेकिन मैच हारने का मनोवैज्ञानिक झटका शारीरिक चोट से बहुत अधिक घातक होता है क्योंकि आपको लगता है कि आप अपने प्रतिद्वंद्वी से मानसिक रूप से कमजोर हैं. विश्व चैंपियनशिप जैसी बड़ी प्रतियोगिता में यह असर और भी ज्यादा होता है. इसलिए मैं कहता हूं कि शतरंज बहुत खतरनाक खेल है.
हालांकि आप ऐसी हालत में ज्यादा नहीं पड़े, लेकिन फिर भी कोई मैच हारने या खराब खेलने पर आपको कैसा लगता था.
मेरे लिए हार की वजह हमेशा मेरी गलती रही है और इसलिए मैंने कभी किसी को दोषी नहीं ठहराया. हार के बाद या खराब खेल के बाद मैं हमेशा अगले मैच की तैयारी में लग जाता था. किसी हार ने मुझे मेरे लक्ष्य से भटकने नहीं दिया.
उस शख्स की बात करते हैं जिसके साथ खेलते हुए आपने अपनी युवावस्था का काफी अरसा गुजारा. अनातोली कारपोव, शतरंज की दुनिया के एक और महान खिलाड़ी. कैसा अनुभव रहा उनके साथ खेलने का?
निश्चित रूप से उनके साथ खेलने का अनुभव अनूठा था क्योंकि हम दोनों के बीच जो लंबे मुकाबले चले वे केवल शतरंज ही नहीं बल्कि किसी भी खेल के इतिहास के सबसे कठिन मुकाबले थे. हमने 1984 से 1990 के बीच पांच बार विश्व चैंपियनशिप में मुकाबला किया. हमने 144 मैच तो केवल विश्व चैंपियनशिप में ही एक-दूसरे के खिलाफ खेले. इनमें से पहला मुकाबला मेरे लिए बहुत यादगार है. मैं तमाम लोगों को हराकर फाइनल में पहुंचा था और उसके बाद मेरे भीतर एक किस्म का घमंड आ गया था. मुझे लग रहा था कि विश्व चैंपियन बनना अब बस एक औपचारिकता है. लेकिन कारपोव के साथ पहले नौ मैच के बाद मैं 4-0 से पिछड़ गया. कारपोव ने एक मैच और जीता. वे 5-0 से आगे थे. एक और जीत के बाद वे चैंपियन बन जाते. लेकिन यह मुकाबला चलता ही गया, चलता ही गया और ढाई महीने बाद मुकाबला रोक देना पड़ा. इसकी कई वजहें थीं. यह भी कहा गया कि इसका हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ सकता था.
उस वक्त आपके और कारपोव के मैच को लेकर प्रचारित किया गया कि यह नए सोवयत संघ और पुराने कम्युनिस्ट सोवियत संघ के बीच का मुकाबला है. क्या यह सच है कि पुरानी व्यवस्था कारपोव की जीत सुनिश्चित करना चाहती थी?
इस सवाल का सीधा-सीधा जवाब देना मुश्किल है क्योंकि जिंदगी शतरंज से कहीं ज्यादा जटिल होती है. लेकिन हां, इसमें दो राय नहीं कि कारपोव व्यवस्था के बहुत प्रिय खिलाड़ी थे. वे उसी व्यवस्था में पैदा हुए और उसी सांचे में ढले थे. वे एक अच्छे सिपाही थे जबकि मुझे एक विद्रोही के रूप में देखा जाता था. व्यवस्था यह चाहती थी कि यथास्थिति बनी रहे और उनका वफादार सिपाही शीर्ष पर रहे. उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं था. मैंने जीत हासिल की क्योंकि मेरे वक्त हालात उतने खराब नहीं थे जितने 1970 के दशक में. उस वक्त विक्टर कोर्चनॉय को देश छोड़ना पड़ा था क्योंकि वे व्यवस्था के प्रिय खिलाड़ी को चुनौती तक नहीं दे सकते थे. मेरे पास थोड़ा मौका था और मैंने उसका लाभ उठाया.
लेकिन 1990 में जब आप कारपोव के साथ खेल रहे थे उसके एक साल पहले आपके गृहराज्य अजरबैजान में हिंसा और नरसंहार हो रहा था. वह काफी मुश्किल वक्त रहा आपके लिए?
हां यकीनन, उन हत्याओं और नरसंहारों को उन्होंने जातीय सफाई का नाम दिया. आप ऐसी भयावह घटनाओं के लिए अलग-अलग नाम चुन सकते हैं लेकिन इससे सच नहीं बदल जाता. बकू में जो कुछ हुआ वह मेरे जीवन को पूरी तरह बदल देने वाला था. मैं बकू में पैदा हुआ और पला-बढ़ा. हमारा परिवार बहुत विविधतापूर्ण था उसमें अलग-अलग जगहों, अलग-अलग समुदायों के लोग थे.
बकू में आपके परिवार और आपके समुदाय के साथ क्या हुआ था? आप उन सब बातों से किस तरह निपटे?
अंतिम समय तक हमें यह लगता रहा कि हालात सुधर जाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. मुझे मॉस्को में अपने दोस्तों से मदद मांगनी पड़ी. हवाई जहाज किराए पर लेकर हमारा परिवार वहां से बाहर निकला. मैं आखिरी बार बकू में जनवरी, 1990 में रहा. उसके बाद मैं कभी वहां वापस नहीं गया.
क्या बकू में घट रही घटनाओं ने आपके भीतर राजनीतिक चेतना को इतना मुखर किया?
देखिए, बकू में जो कुछ हुआ वह सोवियत संघ के पतन की एक बड़ी वजह बनी. मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझ पर उन घटनाओं का उतना असर नहीं हुआ क्योंकि मैं अपने परिवार को वहां से हटाने और नई जगह बसाने में सक्षम था. मैं साधन संपन्न था. लेकिन वहां घट रही घटनाओं से मैं आंखें नहीं फेर सकता था. लाखों की संख्या में लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे. लोग यहां से वहां जा रहे थे और जहां सीमाओं को लेकर आपसी सहमति नहीं बनी थी.वहां खून खराबा भी हो रहा था. सोवियत संघ में विश्व चैंपियन का कद बहुत बड़ा था, उसे एक किस्म का बुद्धिजीवी माना जाता था. हालांकि मेरी उम्र महज 27 साल थी, लेकिन मुझे लगा कि मुझे तत्कालीन सोवियत संघ की राजनीति में अपने ढंग से हस्तक्षेप करना चाहिए.
आपके नाना कट्टर मार्क्सवादी थे. कम से कम 70 के दशक में खाद्यान्न की कमी होने तक तो ऐसा ही था. आपके भीतर क्या देश की मौजूदा व्यवस्था के प्रति यह अविश्वास एकदम शुरुआती दौर में ही पैदा हो गया था?
हां, मेरे नाना को इस व्यवस्था में गहरा विश्वास था हालांकि वर्ष 1981 में उनकी मौत होने से कुछ साल पहले उनके मन में एक किस्म का अविश्वास घर करने लगा था क्योंकि वे खाद्यान्न समस्या को करीब से देख रहे थे. घर में हमारी अच्छी-खासी बहस होती थीं क्योंकि मैं किताबें पढ़ता था, विदेशी रेडियो सुनता था और अपने चाचा के अलावा अन्य यहूदी रिश्तेदारों के साथ संपर्क में था. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मैं 1976 से विदेश यात्राएं कर रहा था और दुनिया देख रहा था. मुझे पता चल चुका था कि सरकारी प्रचार से इतर जमीनी हकीकत कितनी अलग है. लेकिन इसके साथ ही मेरे मन में यह बात भी स्पष्ट थी कि मुझे इसी देश में रहना है और इन्हीं नियमों का पालन करते हुए जीत हासिल करनी है. इसीलिए 1985-86 के पहले मैंने कोई खास राजनीतिक रुझान नहीं दिखाया.
आपने कहा कि बकू में उन हादसों के वक्त आप महज 27 साल के थे. उन घटनाओं ने आपको राजनीतिक रूप से बहुत अधिक प्रभावित भी किया, लेकिन उसके बाद अगले 15 साल तक आप दुनिया में एकदम शीर्षस्तर पर शानदार शतरंज भी खेल रहे थे. इस दौरान आपने अपने भीतर की राजनीतिक इच्छाओं को कैसे दबाया?
इस अवधि में भी मैं तमाम चुनौतियों से जूझता रहा. अंतरराष्ट्रीय शतरंज महासंघ से मेरा लगातार झगड़ा होता रहा. मुझे लग रहा था कि सोवियत संघ के पतन के बाद कई अवसर गंवाए जा रहे थे. इस बीच शतरंज में मेरा मुकाबला अपेक्षाकृत नए खिलाड़ियों से होने लगा था. रूस में घट रही घटनाओं पर भी मेरी पूरी नजर थी. सन 1996 में बोरिस येल्तसिन के दोबारा राष्ट्रपति चुनाव लड़ने पर मैंने उनका खुलकर समर्थन किया था. हालांकि अब मुझे नहीं लगता कि वह पूरी तरह सही था क्योंकि उन चुनावों में धांधली हुई थी. उस वक्त कम्युनिस्ट शासन की वापसी का खतरा भी था. मैं पूरी तरह राजनीति में नहीं था बस कोशिश कर रहा था कि मैं भी कुछ भूमिका निभाऊं. 2000 में मैंने पुतिन के नकारात्मक प्रभाव को भांप लिया था, लेकिन इस बीच मैं उन सब कामों की तैयारी में लगा रहा जो मैंने बाद में किए.
शतरंज के सर्वकालिक महान खिलाड़ी होने का दर्जा रूस में आपको कितनी सुरक्षा देता है, खासतौर पर जब आप पुतिन का विरोध करते हैं?
अगर हम 2005 के बाद से देखें तो यह सुरक्षा लगातार घटती गई है. शुरुआत में शासन थोड़ा हिचकिचाया, दो सालों तक कुछ खास नहीं हुआ. 2007 में पहली बार मुझे गिरफ्तार किया गया, कुछ घंटों के लिए. उसी साल के अंत में मुझे पांच दिन के लिए गिरफ्तार किया गया. वह पहला मौका था जब किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए गिरफ्तार किया गया. बाद में तो यह सब आम चलन में आ गया. यह दुखद है कि इस क्रम में एक के बाद एक कर रूसी संविधान तक का उल्लंघन किया जाने लगा. एक वक्तऐसा आया जब मेरे प्रदर्शन अथवा मेरे बड़ा खिलाड़ी होने के तथ्य का भी मुझे कोई फायदा नहीं मिला. मुझे सोचना पड़ा कि मैं अपनी जान तथा अपने चाहने वालों की आजीविका को जोखिम में डालूं अथवा नहीं.
और आपने जोखिम उठाने का फैसला किया क्योंकि आप 2007 के अंत में पुतिन के विरोध में बने ‘अदर रशिया गठजोड़’ के उम्मीदवार भी बने?
देखिए, जब भी मुझसे रूस की राजनीतिक हालत की बात की जाती है तो मैं यही कहता हूं कि रूस में हमारी लड़ाई चुनाव जीतने की नहीं बल्कि सही मायनों में चुनाव कराने की लड़ाई है. एक ऐसे देश में रहने वाले लोग इसे नहीं समझ सकते जहां चुनाव की पूरी प्रक्रिया लोकतांत्रिक है. जहां लोग राजनीतिक दल बनाकर आसानी से चुनाव लड़ सकते हैं. एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि शतरंज की मेरी विशेषज्ञता किस तरह रूस की राजनीति मंे नई रणनीति बनाने में आपकी मदद करेगी. मैंने कहा कि मुझे नहीं लगता कि शतरंज मेरी मदद कर पाएगा क्योंकि शतरंज में तयशुदा नियम होते हैं और ऐसे परिणाम निकलते हैं जिनका अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन रूस की राजनीति इसके एकदम उलट है.
आपको रूस में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की अनुमति भी नहीं मिली थी.
चुनाव लड़ने का मतलब होता है कि आपको पूरी प्रक्रिया में शामिल होने दिया जाए. पार्टी गठित करना, फंड जुटाना, बहस करना. लेकिन रूस में ऐसा नहीं है, वहां का सत्ता प्रतिष्ठान अपनी पसंद के नियम बनाता है और उनको लागू करवाता है, अगर उनको कुछ पसंद नहीं आता है तो वे नए नियम-कानून थोप देते हैं. रूस में एक नियम यह भी है कि जब भी पुतिन चाहते हैं कानूनों में बदलाव कर दिया जाता है.
आपके हिसाब से यथास्थिति कैसे बदलेगी?
मुझे नहीं लगता है कि यह व्यवस्था हमेशा या कहें लंबे समय तक चलेगी. मेरे मन में केवल यही सवाल है कि रूस या बाकी दुनिया को इस व्यवस्था के पतन की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. पुतिन ने अपनी वापसी के बाद यह स्पष्ट कर दिया है कि वे आजीवन पद पर बने रहने वाले हैं. एकदम किसी तानाशाह की तरह. लेकिन उनकी अपनी योजना है. मुझे नहीं लगता है कि 21वीं सदी उनको ऐसा करने देगी. उनको जिन समस्याओं का सामना करना होगा उनमें से एक है अर्थव्यवस्था. रूस की अर्थव्यवस्था तेल एवं गैस पर आधारित है. भ्रष्टाचार भी वहां की व्यवस्था में गहरे तक जड़ जमा चुका है.
क्या पुतिन ने कभी आपसे संपर्क किया?
कभी नहीं. मैंने भी कभी उनसे बात करने की कोशिश नहीं की. मैं शुरू से कहता रहा हूं कि मैं क्रेमलिन (रूस की संसद) के साथ केवल एक मुद्दे पर बात करने का इच्छुक हूं कि वह इस मौजूदा व्यवस्था को कैसे खत्म करेगा. मौजूदा शासन किसी भी तरह की बातचीत के खिलाफ है. यह एक पार्टी की तानाशाही का मामला था जो अब एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल चुका है. वहां अब वफादारी ही इकलौता मानक है. अगर आप वफादार हैं तो आपको संरक्षण मिलेगा अगर नहीं तो आपके साथ कुछ भी हो सकता है.
क्या आपकी जान को खतरा है?
इस वर्ष फरवरी में मैंने रूस छोड़ दिया है. अब मैं न्यूयॉर्क में हूं और वहां कोई खतरा नहीं है. लेकिन हम जानते हैं कि पुतिन का विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं है. हालांकि हाल में शेष विश्व के नेताओं ने पुतिन के दबाव से निपटने में अक्षमता दिखाई है, लेकिन अभी भी मेरा यह मानना है कि दुनिया के देश पुतिन के विरोधियों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करा सकते हैं.
वापस शतरंज पर लौटते हैं. यहां बहुत सारे लोग हैं जो आपके खेल के बारे में जानना चाहते हैं. बड़ी प्रतियोगिताओं के पहले किस तरह की कड़ी तैयारी करनी होती है? अनातोली कारपोव के साथ आपके मैच की बात करते हैं. कितनी और कैसी तैयारी करनी पड़ती थी?
यह एक बड़ा सवाल है. यह सवाल केवल शतरंज के बारे में नहीं है बल्कि इस बारे में भी है कि कैसे कंप्यूटरों और नई तकनीक ने हमारे जीवन में बदलाव लाए. कारपोव से खेलने के पहले जाहिर है मैं कागज पर नोट लेकर तैयारी करता था. अलग-अलग तरह की ओपनिंग की तैयारी. बाद में जब मैं कंप्यूटर पर खेल का विश्लेषण करने लगा तो मैं पुराने दिनों की तैयारी के बारे में सोच कर चकित रह जाता. लेकिन एक बात है, आप शुरुआती तैयारी में जितना समय देंगे, जितने समर्पण से काम करेंगे, आपको उतना ही अच्छा परिणाम मिलेगा. आज कंप्यूटर का हस्तक्षेप बढ़ गया है और मैच छोटे हो गए हैं. इस वक्त जब हम यहां बात कर रहे हैं चेन्नई में विश्वनाथन आनंद और मैगनस कार्लसन का मैच चल रहा है. उनका पहला मैच बहुत जल्दी ड्रॉ हो गया. बाहरी लोगों को केवल परिणाम दिखता है, जबकि उसके पीछे गहरी तैयारी शामिल होती है.
कारपोव से मैच में आपको किस तरह की तैयारी करनी होती थी? दिन में 12 घंटे, छह घंटे या छह घंटे, आप जॉगिंग करते थे? जिम जाते थे?
अगर मैं 80 के दशक में अपने रुटीन की बात करूं तो मैं रोजाना छह घंटे अभ्यास किया करता था. इसके साथ साथ मैं दो घंटे शारीरिक व्यायाम भी किया करता था और यही वजह थी कि 90 के दशक में मैं अपेक्षाकृत युवा प्रतिस्पर्धियों के साथ मुकाबला करने में कामयाब रहा. कारपोव के साथ विश्व चैंपियनशिप के मैचों के पहले मैं कुल मिलाकर दो महीने अभ्यास करता था. मैं उन मैचों से बहुत गहराई से जुड़ा था, मैं मैच खेलता और उनका विश्लेषण करता.