ये डडवां गांव का रास्ता किधर से जाता है? इस सवाल के जवाब में सामने खड़ा अधेड़ उम्र का वह व्यक्ति पहले मुझे ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखता है, उसके बाद बिना कुछ बोले हाथ के इशारे से बाईं तरफ वाली कच्ची सड़क पर जाने को कहता है. जैसे ही कार गांव में प्रवेश करती है वैसे ही बाहर खड़े लोग अपने घरों के भीतर चले जाते हैं. कुछ लोग हमें अपने घरों की छतों से छिपकर देखते हैं. सामने से आ रहे एक बुजुर्ग को हम हाथ से इशारा करके रुकने के लिए कहते हैं, वह हाथ जोड़ते हुए आगे निकल जाता है.
थोड़ी ही देर में एक बच्चा साइकिल चलाते हुए वहां आता है. उसे हम रोकते हैं और सुनील भोला के घर का पता पूछते हैं. वह सामने वाले घर की तरफ इशारा करता है. हम दरवाजा खटखटाते हैं, लेकिन अंदर से कोई आवाज नहीं आती. ‘जासूसों के गांव’ के नाम से चर्चित डडवां में जाने के पहले ही हमें ऐसे किसी असामान्य व्यवहार के लिए चेताया गया था लेकिन यह कुछ ज्यादा ही अजीब है.
दरवाजे के सुराख से अंदर देखने पर एक महिला खड़ी होकर दरवाजे की तरफ देखती हुई नजर आती है. काफी प्रयास के बाद भी जब वह दरवाजा नहीं खोलती तो हमारे साथ खड़े जासूस करामत राही कोशिश करते हैं. वे वृद्ध महिला को संबोधित करते हुए कहते हैं, ‘अरे अम्मा मैं जासूस करामत राही हूं, मैंने भी भोला की तरह ही पाकिस्तान में जासूसी का काम किया है. मेरे साथ ये दिल्ली से पत्रकार आए हैं. हम लोग भोला से मिलना चाहते हैं.’ कुछ देर बाद दरवाजा खुलता है. एक ऐसी महिला का चेहरा हमारे सामने होता है जिसे देखकर लगता है मानो प्रकृति ने दुनिया की सारी तकलीफें इसी के हिस्से में दे दी हों. ये भोला की मां हैं. वे प्लास्टिक की दो कुर्सियां निकालकर बाहर रखती हैं. इससे पहले कि हम उनसे कुछ पूछते वे बेतहाशा रोने लगती हैं. इस बीच में अड़ोस-पड़ोस से कई महिलाएं और पुरुष वहां इकट्ठा हो जाते हैं.
15 मिनट से लगातार रो रही उस महिला को पड़ोस की एक महिला पानी पिलाती है. वे बुजुर्ग महिला हमें बताती हैं, ‘भोला नहीं जाना चाहता था, वह जाते वक्त रो रहा था, घर के बाहर खड़ी गाड़ी में साहब लोग बैठे थे. वे उसे गाड़ी में बैठाकर ले गए. वह अभी तक वापस नहीं लौटा. उसने मुझसे कहा कि माई मैं नहीं जाना चाहता लेकिन एजेंसी वाले मुझे परेशान कर रहे हैं. डेढ़ साल हो गए हैं, हमें अब तक उसकी कोई खबर नहीं मिली.’ उस महिला के मुंह से यह सुनकर हमें हैरानी होती है. दरअसल सितंबर, 2009 में अहमदाबाद में वरिष्ठ अधिवक्ता किशोरी पॉल ने एक पत्रकार वार्ता की थी जिसमें पाकिस्तान में जासूसी करने के लिए लंबी सजा काट चुके तीन लोगों को मीडिया के सामने पेश किया गया था. उन्होंने घंटों विभिन्न खुफिया एजेंसियों के लिए किए गए अपने काम, पाकिस्तान में मिली प्रताड़ना और खुफिया एजेंसियों के विश्वासघात से संबंधित बातें पत्रकारों को बताई थीं. इन तीन जासूसों में से एक सुनील भोला भी था. हमारी हैरानी की वजह यह थी कि उसी भोला को फिर पाकिस्तान भेज दिया गया था.
डडवां में ज्यादातर परिवार ऐसे हैं जिनका कोई न कोई सदस्य पाकिस्तान जाकर विभिन्न एजेंसियों के लिए जासूसी कर चुका है.
गांववाले बताते हैं कि पिछले कुछ सालों तक जासूसी ही इस गांव के लिए रोजगार का एकमात्र जरिया थी. एजेंसियों द्वारा तमाम तरह के वादे करके मुकरने, जरूरत के वक्त कोई सहायता न करने और इस काम में जानलेवा जोखिम होने जैसी वजहों के चलते यहां के लोग अब किसी भी कीमत पर जासूसी के काम में पड़ना नहीं चाहते. लेकिन यही बात अब इन लोगों के लिए खुफिया एजेंसियों का एक और बर्बर चेहरा सामने ला रही है. गांववाले बताते हैं कि यदि लोग जासूसी करने से इनकार करते हैं तो उन्हें कई तरह की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ती हैं. इसमें स्थानीय पुलिस से टॉर्चर कराने से लेकर उनके ऊपर फर्जी केस दर्ज कराना, यहां तक कि बम ब्लास्ट तक के झूठे मामलों में उन्हें फंसाना तक शामिल है. तहलका ने इस संबंध में जब खोजबीन शुरू की तो इस तरह का आरोप लगाने वाले कई लोग सामने आए.
इसी गांव के 40 वर्षीय ग्रेफान, जो अभी सब्जियां बेचकर अपने परिवार का पेट पालते हैं, ने भी थोड़े समय के लिए खुफिया जासूसी का काम किया है. वे पाकिस्तान जाते थे और यहां के अधिकारियों के कहे अनुसार खुफिया जानकारियां और पाकिस्तानी लोगों को वहां से लाते थे. ग्रेफान के मुताबिक, ’कुछ दिनों में ही मुझे जासूसों के प्रति खुफिया एजेंसियों का असंवेदनशील रवैया समझ में आ गया. यह भी कि इस काम में भारी खतरे हैं. इसलिए मैंने जासूसी छोड़ने का मन बना लिया. यह बात जब मैंने अपने अधिकारियों को बताई तो वे नाराज हो गए. वे चाहते थे कि मैं काम करता रहूं. जब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया तो उन्होंने मुझे तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया. थोड़े ही समय बाद उन्होंने मुझ पर पठानकोट में बम धमाका करने का फर्जी केस डाल दिया. यह धमाका तब हुआ था जब मैं पाकिस्तान में भारत के लिए जासूसी कर रहा था. उस दौरान वे लगातार मुझसे कहते रहे कि तुम जासूसी करने के लिए तैयार हो जाओ तो हम ये केस हटा लेंगे.’ केस चलता रहा और आखिरकार कोर्ट ने ग्रेफान को इस आरोप से बरी कर दिया गया. वे बताते हैं, ‘मुझे लगा कि अब एजेंसी वाले मुझे छोड़ देंगे लेकिन उन्होंने मुझ पर पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का केस दर्ज करवा दिया. मैं लंबे समय तक जेल में रहा. अभी जमानत पर बाहर हूं. पुलिसवालों ने स्कूल की किताबों में छपे भारत के नक्शे, किताबों में छपी पुल आदि की तस्वीरें को सबूत के तौर पर पेश करते हुए कहा कि मैं पाकिस्तान के लिए यहां जासूसी कर रहा हूं. ये मामला पिछले 10 साल से चल रहा है. अभी भी इंटेलीजेंस वाले कहते हैं, जासूसी के लिए तैयार हो जाओ तो केस हटवा लेंगे.’
इसी गांव के 50 वर्षीय डेनियल ने सन1993 से 1997 तक खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जासूसी की थी. उनका मुख्य काम विभिन्न संवेदनशील दस्तावेजों एवं वहां से लोगों को जासूसी के लिए तैयार करके यहां अपने अधिकारियों तक पहुंचाना था. वे पाकिस्तान में गिरफ्तार हुए और उन्हें चार साल की सजा हुई. सजा काटने के बाद जब डेनियल वापस अपने गांव आए तो उन्होंने इस पेशे को छोड़ने की ठानी. उन्होंने जब अपने इरादे के बारे में अधिकारियों को बताया तो उनके साथ भी वही हुआ जो ग्रेफान के साथ हुआ था. डेनियल को 1993 के अमृतसर बम ब्लास्ट केस में फंसा दिया गया. डेनियल के मुताबिक पुलिसवाले कहते थे कि तुम 1993 में ब्लास्ट करके पाकिस्तान भाग गए थे. यह मामला तीन साल तक चला. आखिरकार डेनियल भी इस मामले में दोषमुक्त साबित हो गए. अभी वे एजेंसियों के एक चक्रव्यूह से बाहर निकले ही थे कि उन पर अवैध तरीके से बॉर्डर क्रॉस करने का केस दर्ज कर दिया गया. यह केस अभी तक चल रहा है. फिलहाल रिक्शा चलाकर अपना और परिवार का पेट पाल रहे डेनियल कहते हैं, ‘अभी भी एजेंसी वाले मिलते हैं तो कहते हैं, हमारे लिए काम करो, तुम्हारा जीवन बना देंगे नहीं तो तुम देख ही रहे हो.’
यही हाल गांव के डेविड का है. लंबे समय तक उन्होंने खुफिया एजेंसियों के लिए जासूसी की.
फिर पाकिस्तान में गिरफ्तार हुए और सात साल की सजा हो गई. कुछ दिनों पहले ही उन पर लकवा का अटैक हुआ. आज शरीर का एक हिस्सा काम करना बंद कर चुका है. लकवा के अटैक के कारण डेविड ठीक से बोल नहीं पाते. उनकी पत्नी बताती हैं, ‘जब ये जेल से सजा काटकर वापस आए तो जासूसी छोड़कर मजदूरी करना शुरू कर दिया. इन्होंने एजेंसी वालों को बता दिया कि अब मैं जासूसी नहीं करूंगा. एजेंसी वालों ने फिर से जासूसी करने का इन पर दबाव बनाया. जब इन्होंने मना किया तो इन पर बॉर्डर क्रॉस करने का केस डाल दिया. वह केस चार साल तक चला.’ गांवोवाले बताते हैं कि जब तक डेविड सही-सलामत थे तब तक दिहाड़ी करके किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे. आज उनकी पत्नी दूसरों के घरों में मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह परिवार को पाल रही हैं.
डडवां में 90 फीसदी आबादी दलित ईसाइयों की है. बहुत पहले से इस गांव के लोग जासूसी का काम करते आए हैं. एजेंसियों की नजर में यह गांव हीरे की खान जैसा है. इन लोगों को आसानी से जासूस बनाया जा सकता है. इसकी पहली वजह यह है कि इनके साथ बाल और दाढ़ी का धार्मिक बंधन नहीं है जो सिखों के साथ होता है. दूसरी बात यह कि पूरा गांव बेहद गरीब है. यहां के लोग किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं. यहां कोई सब्जी बेचता है तो कोई मजदूरी करता है या रिक्शा चलाता है. तीसरी बात यह कि डडवां गांव सीमा के नजदीक है इसलिए इस पूरे इलाके पर स्थानीय प्रशासन की तुलना में सेना की पकड़ ज्यादा मजबूत है.
ग्रेफान बताते हैं कि एजेंसियों ने उनके साथ ही और दो लोगों को फर्जी तरीके से फंसाया है. संतोष और अमृत नाम के इन दो लोगों से भी एजेंसियों ने जासूस बनने के लिए कहा लेकिन इन्होंने मना कर दिया. ऐसे में उन पर भी झूठा केस कर दिया गया.
गांव का ही एक आदमी सतपाल खुफिया विभाग के लिए लंबे समय से पाकिस्तान में जासूसी करता था. वह कुछ दिन अपने गांव में रहता और बाकी समय पाकिस्तान में एजेंसियों द्वारा सौंपे गए कामों को अंजाम देता. इस तरह से उसका सरहद पार जाना-आना लगा ही रहता था. 1999 में भी हर बार की तरह वह अपने ‘असाइनमेंट’ पर पाकिस्तान गया हुआ था. जब वह वापस नहीं लौटा तो घरवालों ने एजेंसी वालों से संपर्क किया. मगर उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. कुछ दिनों बाद यह खबर आई कि सतपाल की पाकिस्तानी जेल में मौत हो गई है. सतपाल की मौत के बाद पाकिस्तानी सरकार ने भारत सरकार को सतपाल की लाश ले जाने के लिए कहा.
लेकिन सरकार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. सतपाल का शव लाहौर के सरकारी अस्पताल में पूरे एक महीने तक पड़ा रहा. स्थानीय समाचार पत्रों ने इस मामले को काफी प्रमुखता से उठाना शुरू किया. शुरुआत में संबंधित अधिकारियों ने मामले को टालने की कोशिश की लेकिन जब पूरा स्थानीय मीडिया जोर-शोर से इस मसले को उठाने लगा तब जाकर स्थानीय नेताओं ने इस मामले को ध्यान देने लायक समझा. मीडिया का दबाव कुछ ऐसा पड़ा कि सरकार ने महीने भर बाद सतपाल की लाश लेने के लिए पाकिस्तान से बात की. सरकार ने सतपाल का शव उसके गांव लाने की व्यवस्था कर दी. उस समय गांववालों की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा जब सतपाल के शव को तिंरगे में लपेटकर उसके गांव लाया गया. जो लोग तिरंगे में लपेटकर सतपाल का शव उसके गांव लाए थे ये वही लोग थे जो कुछ समय पहले तक उसकी लाश को भारत लाने के लिए इनकार कर चुके थे. इस मामले में एक और चौंकाने वाली चीज यह हुई कि सतपाल के शव के साथ जो मृत्यु प्रमाण पत्र लाहौर अस्पताल की तरफ से जारी किया गया था उसमें मृतक का नाम सतपाल की जगह दर्शन सिंह था. यह मामला कुछ उसी तरह का था जो आज सरबजीत सिंह और मंजीत सिंह को लेकर चल रहा है.
इस घटना के बाद से गांववाले जासूसी के काम से परहेज करने लगे. लोगों ने रोजगार के लिए मजदूरी करने, रिक्शा चलाने और सब्जी बेचने जैसे काम तलाशना शुरू कर दिया. एजेंसियां इस बदलाव से बेहद परेशान हुईं और जासूसी से इनकार करने वालों को उनका फैसला बदलने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने लगीं. डेविड कहते हैं, ’हमारी जिंदगी तो नर्क बन गई है, हमारे पास अपनी जान लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है, अगर हम जासूसी करते हैं तो पाकिस्तानी एजेंसियां हमें मार डालेंगी और अगर जासूसी करने से इंकार करते हैं तो हमारी अपनी एजेंसियां हमें जीने नहीं देंगी.’