जब से अवनी को गोली मारी गई है। तब से हमारे लिए यह राहत की बात है कि हम बोझा ढोने वाले तो बच गए। आज की दुनिया और सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था में शेर, चीतों, हाथियों और आवाज़ मुखर करने वालों की ज़रूरत किसे है। हमारी बिरादरी पर कोई गोली नहीं चलाता क्योंकि हम कभी अपने हकों के लिए नहीं लड़ते। न हमारी खाल और दांत बाज़ार में अच्छी कीमत बटोर सकते हैं। हमें इस बहस में भी नहीं पडऩा है कि अवनी आदमखोर थी या नहीं, किसी हाथी ने किसी ग्रामीण को मारा कि नहीं, हमें तो खुशी है कि हम लोग सुरक्षित हैं। हमारे लिए कोई खतरा नहीं।
एक बात और समझने की है। वैसे तो हम लोग ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते, पर कई पढ़े-लिखे हम जैसे ज़रूर होते हैं। उन्ही पढ़े-लिखों ने बताया कि हमारे देश में जानवरों के हमलों या युद्ध में उतने लोग नहीं मरते जितने सड़़क हादसों में मर जाते हैं। अब अगर कोई व्यक्ति किसी वाहन की चपेट में आ कर मर गया तो हमने कभी सरकार को यह हुक्म सुनाते नहीं देखा कि उस वाहन को ‘गोली मार दो’ या उसके ‘चालक’ को फांसी पर लटका दो। यहां तक की हत्या के मामले में भी मौत की सज़ा किसी खास ही हालात में दी जाती है। वह भी उसे अपनी सफाई का पूरा मौका देने के बाद। यह सज़ा देने का अधिकार भी सत्र न्यायाधीश से नीचे की अदालत को नहीं है। उस सज़ा मिलने के बाद भी उस हत्यारे के पास सर्वोच्च न्यायालय तक अपील करने का विकल्प खुला रहता है। पर जंगली जानवरों के पास यह अवसर भी नहीं है। किसी सरकारी वन विभाग ने आज तक ये आंकड़े जारी नहीं किए कि जंगली जानवरों ने कितने लोगों की हत्या की है। एक विमान क्रैश हो जाता है उसमें सैंकड़ों लोग मारे जाते हैं, पर किसी ने कभी उस विमान कंपनी या विमान यात्रा पर प्रतिबंध लगाने की मांग कभी नहीं उठाई। ज़हरीली शराब पीने से कितने लोग मरते हैं, पर आज तक किसी नेता, अभिनेता या पत्रकार ने यह आवाज़ नहीं उठाई कि देश में शराब बंद होनी चाहिए। नकली दवाओं से मरने वालों की तो गिनती ही उपलब्ध नहीं, पर कभी नहीं सुना कि किसी माई के लाल ने उनके खिलाफ कोई बहुत कड़ी कार्रवाई की हो। खाद्य पदार्थों में लगातार होने वाली मिलावट के कारण हर साल लाखों लोग मरते हैं पर हमें याद नहीं कि कभी किसी धन्नासेठ को फांसी की सज़ा सुनाई गई हो। ‘ऑनर किलिंग’ के आरोपी भी खुले घूमते रहते हैं कोई नहीं पूछता। गालियों में खास समुदाय के लोगों को चुन-चुन कर मारा जाता है पर मजाल है कोई आवाज़ उठे।
इन सभी को एक हादसे की संज्ञा दे कर पल्ला झाड़ लिया जाता है और जानवर के हाथों किसी व्यक्ति के मारे जाने पर प्रशासन ऐसे प्रतिक्रिया करता है कि जैसे उस जानवर ने पूरी योजना बना कर ज़मीन जायदाद, पैसे के लालच या किसी प्रेमिका के लिए किसी की हत्या कर दी हो। वे लोग उसे ‘हादसा’ मानने को तैयार नहीं होते। कारण है कि सत्ता के गलियारों तक इन जानवरों की पहुंच नहीं होती। वहां कुछ पालतू किस्म के तो होते हैं पर वे खुद को इंसान दिखाने की कोशिश में इन बेजुंबा जानवरों की तरफदारी में मुंह नहीं खोलते।
अगर हम भी इंसान होते तो कह सकते थे कि हम तो बच गए हमें क्या लेना है। पड़ोसी को कोई मार-काट दे हमें क्या फर्क पड़ता है। पर शुक्र है हम इंसान नहीं हैं, हम अपने साथियों की पीड़ा जानते हैं इसलिए खामोश नहीं बैठ सकते। हम तो किसी कवि की इन पंक्तियों से सभी को संदेश देना चाहते हैं कि अन्याय के खिलाफ आवाज़ न उठाना एक पाप है और वह अन्याय का भ्ंावर कभी आपको भी अपने चंगुल में ले सकता है। कवि ने लिखा है-
”उसके कत्ल पे मैं कल चुप था
आज मेरा नंबर आया है।
मेरे कत्ल पे आज तुम चुप हो
अगला नंबर तुम्हारा है’’।