कृष्णा सोबती का जाना समय के शिलालेख से साहस का और कम हो जाना कृष्णा सोबती से अक्सर पहला साक्षात्कार बहुत बचपन में ही हो जाता है- उनकी कहानियों और संस्मरण के जरिये। कहानियों की कद्दावर महिला बहुत सरलता से अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। कारण यही नहीं कि कृष्णा सोबती में कथन की अद्भुत कला है बल्कि इसलिए कि वह निर्भीक और विद्रोही लेखिका हैं। एक ऐसी लेखिका जो सही को सही और गलत को गलत कहने में जीवन भर नहीं चूकीं। अंत तक वे अपने विवेक को बनाए रखकर उचित अनुचित का अंतर करती रहीं, बिना किसी दल की प्रतिबद्धता स्वीकारे, बिना किसी वाद की सदस्य बने! नारीवाद से अलग और किसी राजनीतिक दल से भी अलग होकर कृष्णा सोबती रचनात्मक यात्रा जीती रही..निरंतर लेखन की चाह लिए और नई रचना की इच्छा लिए!
पाकिस्तान के गुजरात में 1925 में जन्मी कृष्णा सोबती की शुरुआती पढ़ाई लाहौर में हुई। विभाजन के बाद वे भारत आई। विभाजन की स्मृतियाँ उनके साहित्य का अविभाजित सत्य है। ‘जि़ंदगीनामा’ हो या ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्ता न’ सब जगह विभाजन के दौरान हुए अनुभव जीवंत दस्तावेज की तरह मौजूद हैं।
कृष्णा सोबती हमारे समय में हमेशा साहस का पर्याय बनी रहीं। हॉस्पिटल में रहते हुए भी उनका वजूद कभी बीमार व्यक्ति का नहीं रहा। जीवट से भरी 94 वर्ष की आयु की लेखिका उसी साहस और ऊर्जा से भरी रहीं जितनी वह अपने लेखन में थी- भीतर बाहर से एकमेक। लेखन और जीवन उनके लिए कभी दो अलग कैनवस नहीं रहे- जीवन ही लेखन में उतरा और लेखन में वही निर्भीकता आई, जो जीवन में थी। लेखकों की दुनिया की यशस्वी कलाकार किसी सम्मान को लेखक की आवाज से बड़ा नहीं मानती थी।
उन्होंने यूपीए सरकार के दौरान पद्मभूषण लेने से इनकार कर दिया था। 2015 में असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था। मुझे याद है निर्भया काण्ड के पश्चात कृष्णा सोबती का लेख 1 जनवरी 2013 को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था जहाँ वह राष्ट्रपति को महामहिम सम्बोधित करते हुए नागरिक सुरक्षा विशेषकर स्त्री सुरक्षा की गुहार लगाती हैं और बलात्कार जैसी घिनौनी प्रवृत्ति का मुखर विरोध करती हैं। सरकार से जिम्मेदारी की मांग करती हैं और आम आदमी का दर्द बयाँ करती हैं। 88-89 वर्ष की लेखिका की इतनी सशक्त लेखनी देखकर दिल सलाम कर उठता है। उनके इस लेख के कुछ अंश फिर से देखे जाने चाहिए जहाँ उनका पूरा विश्वास नई पीढी और शिक्षित युवाओं पर है-
”महामहिम, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज भारतीय परिदृश्य पर ताजी पीढिय़ों की पौध खड़ी है। इनका समाज पुरानों से कहीं अधिक खुला और व्यापक होगा। जिन्हें आज हम निर्भय, जागृति या क्रांति के पक्ष में शांतिपूर्वक प्रदर्शन करते देख रहे हैं वे राजनीतिक विचर के लोग ही नहीं, वह भारत की शिक्षित जनता है जो लोकमत से लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने लोकतांत्रिक ढंग से अपना सोच और सरोकार प्रस्तुत कर रही है। विरोध का ऐसा इजहार लोकतंत्र का जायज सिद्धांत है, सत्तातंत्र या सर्वोपरि संसद की अवमानना नहीं। फिर उनके रास्ते क्यों बंद किए जा रहे हैं? राजनीति का सांसदीय पितृवर्ग इस विराट जन-आन्दोलन को समझने में ढील क्यों कर रहा है?…क्या सचमुच संसद और सरकार के पास निर्णयात्मक शक्ति और ऊर्जा का टोटा है? (जनसत्ता, 1 जनवरी 2013)
स्त्री सुरक्षा के मसले पर 88 बरस की उम्र में कृष्णा सोबती एकदम समझौते के लिए तैयार नहीं। उनकी रचनाएँ भी इसकी प्रमाण हैं। ऐ लड़की, जि़ंदगीनामा, मित्रो मरजानी, हम-हशमत दिलो-दानिश, सूरजमुखी अंधेरे के, डार से बिछुड़ी, समय सरगम, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक, मुक्तिबोध मार्फत दिल्ली, लेखक का जनतंत्र, चन्ना जैसी दशकों के बीच फैली रचनाएँ लगातार पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि ये रचनाएँ अपने समय का ही दस्तावेज नहीं हैं बल्कि हर रचना स्त्री मन और स्त्री पीड़ा की एक सजग लड़ाई है। इसी लड़ाई को वे हमेशा लड़ती रहीं चिर युवा शैली में..शरीर ढल रहा था पर मन उतना ही सशक्त। एकदम शाहनी की तरह। शाहनी जो तब भी नहीं टूटी जब सिक्का बदल गया और तब भी नहीं जब अपने पराए हो गए।
साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ज्ञानपीठ उन्हें मिला। एक समय ऐसा भी आया जब ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने-ना मिलने की बहस भी चली और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी चला। कृष्णा सोबती ने यहाँ भी अपना पक्ष बड़ी शालीनता से रखा और असंयत और अशालीन भाषा का प्रतिरोध किया।
भारतीय समाज में आज स्त्री की जो जगह है, वह सब उसने एक तरह से अर्जित किया है। आप अपने घर में रोटियां बनाने वाली औरत को देखते हैं और इस तरह की बातें कहते हैं कि देखिए हमारी लड़कियां पायलट हैं, पर्वतारोही हैं, खिलाड़ी हैं, उद्योगपति हैं, सेना और पुलिस में हैं और दिन-रात काम कर रही हैं, मेहनत कर रही हैं। हमारी छोटी-छोटी बच्चियां आज कहां से कहां जा रही हैं, आपको पता नहीं। पता नहीं आप कौन से समय की बात कर रहे हैं? वैसे मैं स्त्री विमर्श को खास गंभीरता से नहीं लेती। इस वक्त पुरुष वर्ग में हड़बड़ाहट है। परिवार रूपी संस्था में भी स्त्रियों को लेकर चिंता सता रही है। हम लोगों की जो पद्धति है, परिवार को संभाले रखने की, वह भी हमारे हाथ से निकलने वाली है। इन सबको लेकर पुरुष वर्ग के भीतर एक बौखलाहट है। ऐसे स्त्री विमर्श का कोई स्वरूप नहीं निकलेगा। आप सिर्फ अपने घर की तरफ देख रहे हैं, यह ठीक नहीं है। (समय का सच, वर्डप्रेस-कॉम)
एकदम सशक्त और सजग। अपने शब्दों पर पूरी जिम्मेदारी से खड़ी और अपने समय से सीधा संवाद करती हुईं। कृष्णा सोबती की नारी चरित्रों के जुझारूपन की जितनी सराहना की जाए, कम ही होगी। अकुंठित, मुक्त मन और मुक्त आवाज। यही थी कृष्णा सोबती और यही थीं उनके नारी पात्र। देह की सच्चाई को उन्होंने इतनी बेबाकी से प्रस्तुत किया। ‘मित्रों’ के साथ उनकी रचनाओं में जो शिफ्ट आता है- भाषा और कंटेंट के स्तर पर, वह उनकी ताकत बना। अपनी इस ताकत को उन्होंने पहचाना और स्वीकारा भी!
कृष्णा सोबती की कहानियों में उनका शहर और उनका अतीत अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा होता है। जिस शहर को वे आते वक्त कह आई थी कि ‘भूलना मत हम भी कभी यहाँ थे’ वह शहर अपनी पूरी चेतना में उनकी रचनाओं में फैला और मौजूद रहा है।
विभाजन की पीड़ा, अतीत की गलियों की स्मृति और इस विस्थापन के बीच सब कुछ छूटते जाने का अहसास उनकी कहानियों में मौजूद है। याद है मुझे, पिता से सबसे ज्यादा कहानियां मैंने विभाजन की ही सुनी हैं। अपने शहर से छूट जाने की पीड़ा और नए शहर में खुद को खड़ा कर पाने की जिस जद्दोजहद को वे हमें सुनाते थे, कृष्णा सोबती की कहानियों से उसका पूरा खाका हमारे सामने आ खड़ा होता था। इसी माह पिता गए औए इसी माह कृष्णा सोबती भी। विस्थापन की कहानियाँ सुनाने वाले दो किस्सागो एक ही माह में चले गए। मेरा नमन।
कृष्णा सोबती की ही पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करती हूँ-
कौन जानेगा
कौन समझेगा
अपने वतनों को छोडऩे
और उनसे मुँह मोंडऩे के दर्दों को
पीड़ों को !
जेहलम और चनाब
बहते रहेंगे इसी धरती पर।
लहराते रहेंगे
खुली-डुली हवाओं के झोंके
इसी धरती पर
इसी तरह।
हर रुत-मौसम में
इसी तरह
बिलकुल इसी तरह
सिर्फ
हम यहाँ नहीं होंगे।
नहीं होंगे,
फिर कभी नहीं होंगे,
नहीं। (जिंदगीनामा)