हिंदी सिनेमा में स्त्री
रा.वन की शुरुआत के एक दृश्य में बहुत सारे मेकअप और कम कपड़ों के साथ सलीब पर लटकी प्रियंका ‘बचाओ बचाओ’ की गुहार लगा रही हैं और तब हीरो शाहरुख उन्हें बचाने आते हैं. यह सपने का सीन है लेकिन हमारे सिनेमा के कई सच बताता है. एक यह कि हीरोइन की जान (और उससे ज्यादा इज्जत) खतरे में होगी तो हीरो आकर बचाएगा और इस दौरान और इससे पहले और बाद में हीरोइन का काम है कि वह अपने शरीर से, पुकारों से और चाहे जिस भी चीज से, दर्शकों को पर्याप्त उत्तेजित करे. लेकिन अच्छा यही है कि इज्जत बची रहे और लड़की इस लायक रहे कि हीरो उसे साड़ी पहनाकर मां के सामने ले जा सके.
हिंदी फिल्मों में ‘इज्जत’ सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में से है और जैसा ‘जब वी मेट’ का स्टेशन मास्टर अपनी बिंदास नायिका से कहता भी है कि अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है. यह हैरान करने वाली बात है कि नायिका की इज्जत अगले कुछ ही क्षणों में खतरे में पड़ जाती है और नायक न हो तो अब तक साहसी लग रही नायिका के साथ कुछ भी हो सकता है. इसीलिए वह बार-बार पुरुष के कदमों में गिरती है. अधिकतर जगह नायिका को नायक के बराबर दिखाने वाली ‘बॉबी’ की नायिका भी ‘झूठ बोले कव्वा काटे’ गाने में अपने प्रेमी के पैरों की धूल अपने माथे पर लगाती है. क्योंकि जब वह मायके जाने की बात करती है तो प्रेमी दूसरा ब्याह रचाने को कहता है और लड़की तुरंत कदमों में – ‘मैं मायके नहीं जाऊंगी’.
‘इंसाफ का तराजू’ की जीनत अपने पति से कहती है, ‘हां, शादी के बाद मैं मॉडलिंग नहीं करूंगी.’ ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की सिमरन कहती है कि सपने नहीं देखूंगी. ‘अभिमान’ की जया कहती है कि गाना नहीं गाऊंगी. बहुत सारी फिल्मों की नायिकाएं खुशी-खुशी नौकरी छोड़ने और बेडरूम के अलावा कहीं भी छोटे कपड़े न पहनने के लिए तैयार हो जाती हैं और ‘साहिब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू कहती है कि जब तक कोठे पर शराब के नशे में धुत्त पड़े पति के पैरों की धूल नहीं मिलेगी, उपवास नहीं तोड़ेगी.
’जो हुक्म मेरे आका’ वाले इस ‘नहीं’ और पैरों की धूल की बात बार-बार होती है. ‘बंदिनी’ की प्रगतिशील लगती नायिका फिल्म के सब मुख्य पुरुष किरदारों के पैर बार-बार छूती है. ‘मुकद्दर का सिकंदर’ के आखिर में जब सिकंदर अपनी रामकहानी सुनाता है तो राखी उसे भगवान कहते हुए पैरों में गिर जाती हैं.
‘कभी कभी’ में राखी और अमिताभ की शादी नहीं हो पाती क्योंकि अमिताभ नहीं चाहते कि अपनी खुशी के लिए मां-बाप को दुखी किया जाए. इसके बाद आखिर तक फिल्म दुखी अमिताभ को नैतिक रूप से ज्यादा सही दिखाती है और राखी के मन में अपराधबोध रहता है. यह अपराधबोध हमारे समाज और सिनेमा की उन सब लड़कियों में भी है, जो खूबसूरत नहीं हैं, जिनके पिता उनकी शादी के लिए दहेज नहीं जुटा पा रहे या जिनकी तथाकथित इज्जत लुट गई है. ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की जीनत का चेहरा जला हुआ है, इसलिए वह अभागी है और मंदिर में ज्यादा वक्त बिताती है. ‘गाइड’ सबसे विद्रोही फिल्मों में से है, जिसकी नायिका बिना तलाक लिए अपने पति को छोड़ती है और एक गाइड के साथ लिव-इन में रहती है, लेकिन उसमें भी देव आनंद जब वहीदा को अपनी मां के पास ले जाते हैं तो कहते हैं कि मां, यह एक अभागन है.
वे अब भी प्रेम करती हैं और गाने गाती हैं, लेकिन उनके पास जादू की एक क्लिप भी है जिससे वे बाल भी बांधती हैं, ताले भी खोलती हैं और सिर भी
जैसा अमिताभ ‘कभी कभी’ में राखी से कहते हैं, वैसा ही कुछ ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के शाहरुख काजोल से कहते हैं. वह भागना चाहती है, उसकी मां भी चाहती है कि वे भाग जाएं, लेकिन शाहरुख ‘हिंदुस्तानी’ हैं, उन्हें ‘हिंदुस्तानी लड़कियों’ की इज्जत की फिक्र है. लंदन में पली बढ़ी सिमरन भी ‘मेरे ख्वाबों में जो आए’ गाती है और जब ख्वाब वाला आता है, तब कबूतरों को उड़ाते और बेटियों को बांधते बाउजी की पालतू गाय बनकर अपने पंजाब आ जाती है. जहां खूब सरसों है, गाने हैं, खुशी है लेकिन आजादी नहीं है. ऊपर से उसका प्रेमी उसे यह बता रहा है कि तुम अपने पिता की संपत्ति हो इसलिए उनके साइन के बिना तुम्हें नहीं ले सकता. आखिर में मार खाते हुए वह सिमरन को बाउजी को सौंप भी देता है – आपकी अमानत है – और चूंकि हैप्पी एंडिंग है, लड़की अपने प्रेमी के रूप में दूसरे बाउजी के साथ चली जाती है.
यही फिल्मों की अच्छी भारतीय लड़की की परिभाषा है. ‘कुछ कुछ होता है’ के शाहरुख को भी यही चाहिए, इसीलिए माइक्रो मिनी स्कर्ट वाली रानी ‘ओम जय जगदीश हरे’ गाकर अपनी पवित्रता सिद्ध करती हैं. अच्छी लड़कियों को इसी तरह पवित्र रहना होगा क्योंकि जैसा अधिकांश हिंदी फिल्मों की तरफ से ‘जख्मी औरत’ की डिंपल अदालत में कहती हैं कि औरत की इज्जत एक बार लुट गई तो कभी नहीं लौट सकती या ‘इंसाफ का तराजू’ की नायिका कहती है कि औरत के मन की पवित्रता से बड़ी उसके तन की पवित्रता है. यह तब, जब ये फिल्में उन औरतों की कहानियां हैं, जो ‘एंग्री यंग मैन’ के से तेवरों से अपने बलात्कारियों को खत्म करती हैं. इसी साल आई ‘हेट स्टोरी’ की नायिका ऐसे एक हादसे के बाद कहती है कि शहर तो बदला जा सकता है, शरीर नहीं.
हालांकि नायिका की इज्जत तो आम तौर पर बचा ली जाती है, लेकिन नायक की बहनें अक्सर नहीं बच पातीं. वे इस तरह कहानी में मकसद पैदा करती हैं. साथ ही खलनायक या नायक के विरोधी पक्ष के किसी भी आदमी की बेटियां, बहनें किसी बहाने से नायक के करीब आने की कोशिश करें तो उसे उनसे कैसा भी सलूक करने का पूरा हक है. ‘बाजीगर’ में वह उनसे प्यार करके उनकी हत्या कर सकता है और ‘बंदिनी’ में तो खुद नूतन एक औरत की इसलिए हत्या कर देती हैं क्योंकि उनके देशभक्त प्रेमी ने उनसे शादी न करके उस औरत से की. फिल्म उस प्रेमी से कभी सवाल नहीं करती और नूतन ने तो खैर अच्छा काम किया ही.
हीरोइन के नहाने, तैरने या कपड़े बदलने के दृश्य अक्सर उसे चाहने वाले पुरुष की मौजूदगी में और सिर्फ उसकी मौजूदगी में ही होते हंै. ऐसा नहीं कि वह हेलन की तरह आधे-अधूरे कपड़ों में भीड़ के सामने कैबरे में नाचने लगे. तब उसे अपने प्रेमी के साथ कुर्सी पर बैठकर वह नाच देखना चाहिए और जब कैबरे डांसर नाचती हुई आकर प्रेमी को यहां-वहां छुए तो मुस्कुराते रहना चाहिए या ज्यादा से ज्यादा कुछ सेकंड का झूठा गुस्सा दिखाना चाहिए. नायिका ‘शोले’ में खलनायक के सामने नाचेगी तो नायक की जान बचाने के लिए. तब सब चलता है. तब वह ‘चोली के पीछे क्या है’ पर भी नाच सकती है, भले ही वह पुलिस ऑफिसर हो. नायक की जान बचाना महान काम है और उसके जीवन का जरूरी कर्तव्य. इसके बदले में वह कभी भी ‘डर’ के सनी की तरह खून से उसकी मांग भरेगा और कहेगा, ‘तुम कहीं भी जाओ, रहोगी तो किरण सुनील मल्होत्रा ही.’
‘तुम मेरी हो’ का यह अधिकार अनगिनत गानों के बोलों में भी देखा जा सकता है और ‘ब्लड मनी’ के कुणाल खेमू अपने सच्चे प्यार का ऐलान करते हैं, ‘तेरे जिस्म पे, तेरी रूह पे, बस हक है मेरा.’
रूह का तो कहना मुश्किल है, लेकिन नायिका के इसी जिस्म पर हिंदी सिनेमा का इतना हक रहा है कि वह जैसे ही आजाद होकर इसे अपने सुख के लिए इस्तेमाल करना चाहती है तो संस्कृति घोर खतरे में पड़ जाती है. ‘फायर’ इसीलिए प्रतिबंधित होती है. ऐसा शायद नहीं मिलेगा कि स्पष्ट शारीरिक इच्छाओं के साथ भी वह ‘अच्छी’ लड़की के किरदार में हो और हीरो उससे प्यार करे. संभव है कि यह यथार्थ की विडंबना ही हो कि ‘ओए लकी लकी ओए’ की नायिका की बहन कभी हिन्दी फिल्मों की नायिका नहीं हो पाती. ‘जिस्म’ की बिपाशा या ‘गुलाल’ की आयशा मोहन भी शारीरिक पहलें करती हैं लेकिन यह उनके षड्यंत्र का हिस्सा है और इस तरह वे बुरी हैं, भले ही दूसरी वजहों से. ‘रॉकस्टार’ की नरगिस अपनी जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं करती लेकिन हिंदी सिनेमा के लिए यही बड़ी बात है कि हीरोइन हीरो के साथ जाकर ‘जंगली जवानी’ देखे, और वह भी तब, जब वे प्यार न करते हों. इसी तरह ‘ख्वाहिश’ की मल्लिका लाज-शरम को कूड़ेदान में फेंकती है और कंडोम खरीदने जाती है. ‘नो वन किल्ड जेसिका’ एक कदम आगे जाती है और पत्रकार रानी की प्रेमकहानी दिखाए बिना उन्हें एक लड़के के साथ अंतरंग होते हुए दिखाती है. तभी फोन बजता है और सब कुछ बीच में छोड़कर रानी निकल पड़ती हैं. काम प्यार या सेक्स से ज्यादा जरूरी है या नहीं, ऐसा पहले अक्सर पुरुष ही तय करते आए हैं.
लेकिन ऐसा कम है कि वे काम करती हों या उनका काम, प्रेम या पुरुषों से इतर भी कहानी का हिस्सा हो. अस्सी के दशक की कई फिल्मों में हेमा, डिंपल और रेखा पुलिसवाली बनी हैं, लेकिन वे अक्सर औरतों के या अपने ऊपर हुए अन्याय का बदला ले रही होती हैं. अन्याय और उसकी लड़ाई की कहानियों के अलावा स्त्रियों की मजबूत या मुख्य भूमिकाओं वाली फिल्मों में वे सबसे ज्यादा बार वेश्या या नर्तकी होती हैं. और जहां कहानी अपने मुख्य किरदार के लिंग पर निर्भर नहीं है, वहां निन्यानवे फीसदी संभावना है कि पुरुष ही मुख्य भूमिका में होगा. स्त्री की ‘चमेली’, ‘बवंडर’, ‘पाकीजा’ या ‘डर्टी पिक्चर’ तो हैं लेकिन उसकी कोई ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ या ‘रंग दे बसंती’ नहीं. उनमें वह बस सहायक है. यूं तो ‘आवारा’ में नरगिस और ‘ऐतराज’ में करीना वकील बनी हैं लेकिन दोनों का पेशा फिल्म के लिए तभी अहमियत रखता है, जब उन्हें अपने प्रेमियों/पतियों को बचाना हो. आम फिल्मों में वैसे तो उनका पेशा दिखाने की जरूरत नहीं समझी जाती लेकिन दिखाया जाता है तो सबसे ज्यादा बार वे टीचर या डॉक्टर बनती हैं. वे ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी कई फिल्मों में कम्प्यूटर साइंस पढ़ती बताई जाती हैं लेकिन कम्प्यूटर के पास भी नहीं फटकतीं. नायिका को ज्यादा दिमाग के काम करते नहीं दिखाया जाता और अक्सर उसके बेवकूफ होने को उसका ‘क्यूट’ होना कहकर बेचा जाता है. अगर हीरोइन चश्मा लगाती है, खूब पढ़ती है तो या तो फिल्म के अंत तक उसका मेकओवर हो जाएगा और वह आपको एक तड़कते-भड़कते गाने पर नाचकर दिखाएगी या हीरो को दूसरी ‘सुन्दर’ हीरोइन से प्रेम हो जाएगा. चश्मे वाली, पढ़ने-पढ़ाने वाली लड़कियां/औरतें बहुत नाखुश रहेंगी, अतिवादी होंगी और ‘मासूम’ जैसी कई फिल्मों में वे मासूम नायिका को आजादी और स्त्री-समानता जैसी बातों से बरगलाने की भी कोशिश करेंगी लेकिन नायिका झांसे में नहीं आएगी. आखिर में वे लौटकर आएंगी और कहेंगी कि तुम सही थी, पति के बिना जीवन नर्क है. सबक यह कि पढ़ने और सोचने से दिमाग खराब हो जाता है. चश्मा लगाने से चेहरा खराब होता है इसलिए उसे उतरवाने के लिए ‘कल हो न हो’ का शाहरुख जान लगा देगा. इन्हीं सब वजहों से ‘प्यासा’ की माला सिन्हा से ‘चुपके चुपके’ की जया और ‘दिल’ की माधुरी तक वे किताबें लेकर तो बहुत घूमती है, लेकिन उनका खास महत्व नहीं होता. प्यार और शादी के बाद तो बिल्कुल भी नहीं.
अपने करियर में ज्यादा महत्वाकांक्षी होकर ‘आंधी’ या ‘कॉर्पोरेट’ जैसी फिल्मों में वह अपने साथ के पुरुषों जैसे काम करने लगती है तो हारती है, अकेली रह जाती है. यथार्थ क्या सिर्फ इतना ही है या यह उसे सबक है? ‘बन्दिनी’ के अशोक कुमार की वही हिदायत कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने की कोई जरूरत नहीं है, यह तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक होगा.
सबक बहुत हैं. मसलन बहुत बार वह गुरूर में होगी और गोविन्दा जैसे नायक उसके गुरूर को जूते तले कुचलकर उसे सुधारेंगे और तब प्यार करेंगे. वह किसी ‘भली’ औरत का घर तोड़ने की कोशिश करेगी तो आखिर में लानतें मिलेंगी और मियां-बीवी खुश रहेंगे, भले ही वह ‘सिलसिला’ हो या ‘बीवी नंबर वन’. सबक ‘प्यार का पंचनामा’ जैसी लड़कों की दोस्ती की फिल्में भी हैं, जिनमें उनके ‘बराबर’ काम करने वाली सब लड़कियां संवेदनहीन और बुरी सिद्ध की जाती हैं और लड़के उन्हें गाली देते हुए उनके बिना खुशी से रहना तय करते हैं. लड़कियों की दोस्ती की इक्का-दुक्का ‘टर्निंग थर्टी’ या ‘आयशा’ हैं लेकिन उनमें जय-वीरू की मिसालें कहां!
खैर, नाउम्मीदी की यह पुरुष-सत्तात्मक उमस तो है लेकिन इसमें समय-समय पर ठंडी हवा के झोंके और कभी-कभी एयर कंडीशनर भी हैं. ‘मदर इंडिया’ है जो भूखी औलाद के लिए खाना लाने को कीचड़ में भी उतर सकती है लेकिन साथ ही उस औलाद के कीचड़ होने पर उसे गोली भी मार सकती है. ‘चक दे इंडिया’ है, जिसकी लड़कियों को उन सब चीजों से लड़ने और जीतने की जिद है जो उन्हें चूल्हों और परदों में झोंकना चाहती हैं. ‘डोर’ की गुल पनाग और ‘कहानी’ की विद्या बालन हैं जो भले ही उस परम कर्तव्य यानी पति की जान बचाने या जान का बदला लेने के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर जाएं, लेकिन औरत होना उनके रास्ते में नहीं आता. शरीर न उनकी बाधा बनता है, न हथियार. दिलचस्प यह है कि उनकी कहानियों में पुरुष वैसे ही चुप और भले सहायक हैं, जैसे औरतें ज्यादातर फिल्मों में रहती आई हैं. ‘लव आजकल’ की नायिका शादी से अगले दिन भी शादी तोड़कर किसी और के पास जा सकती है और इस बार उसे मंडप छोड़कर भागने पर ‘कटी पतंग’ की आशा पारेख की तरह उम्र भर पछताना नहीं पड़ता. ‘अर्थ’ की शबाना और ‘लक बाय चांस’ की कोंकणा को कोई शिकवा नहीं, लेकिन वे अपने पुरुषों के बिना अलग रहना चुनती हैं, और इस निर्णय के बाद वे दुखी नहीं हैं. नई पारो भी अपने शक्की और स्वार्थी देव के बिना रो-रोकर नहीं मरती और शादी कर लेती है. ‘एक हसीना थी’ की उर्मिला, ‘खून भरी मांग’ की रेखा और ‘ओमकारा’ की कोंकणा अपने साथ बुरा करने वाले पुरुषों को खत्म करते हुए इस बात का बिल्कुल लिहाज नहीं करतीं कि वे उनके प्रेमी या पति थे. ‘सात खून माफ’ की प्रियंका तो ऐसा छह बार करती हैं. ‘सीता और गीता’ की हेमा और ‘चालबाज’ की श्रीदेवी एक फिल्म के भीतर ही एक कमजोर औरत को निडर औरत का जवाब हैं. ‘आई एम’ की नंदिता दास को बच्चा चाहिए, लेकिन इसके लिए भी उसे किसी की जरूरत नहीं. ‘जूली’ से लेकर ‘क्या कहना’ तक वे बिना शादी के अकेली अपने बच्चे को पालने को तैयार हैं, लेकिन घुटने टेकने के लिए नहीं. ‘चीनी कम’ की तब्बू और ‘जॉगर्स पार्क’ की पेरिजाद को जब प्यार होता है तो उन्हें अपने प्रेमी की उम्र और समाज की तिनका भर भी परवाह नहीं है. ‘वेक अप सिड’ में वह लापरवाह बच्चे जैसे अपने दोस्त को बेहतर जीना सिखाती है और ‘प्यासा’ में वह एक वेश्या है लेकिन पूरे सभ्य समाज के बीच वही है जो उसके नायक को पहचानती है और उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचाती है. ‘देव डी’ की चंदा है जो अपनी मर्जी से वेश्या बनती है और पढ़ती भी है, खुश भी रहती है और ‘शोर इन द सिटी’ बिना झिझक के कहती है कि उसकी गृहिणी नायिका ने ‘द एल्केमिस्ट’ अपने प्रकाशक पति से पहले और बेहतर ढंग से पढ़ी है. ‘जुबैदा’ अपने ऊपर लगे सब तालों को तोड़कर फेंकना चाहती है और ‘मम्मो’ देशों के बीच लगे तालों को. ‘तनु वेड्स मनु’ की कंगना शादी के लिए देखने आए लड़के से पव्वा चढ़ाकर मिलती है, जेसिका छूकर गुजरने वाले मनचलों को गालियां देते हुए मारती है और ‘ये साली जिंदगी’ की चित्रांगदा खुद को मारने वाले अपहरणकर्ता को जान से मार देती है.
वे अब भी प्रेम करती हैं और गाने गाती हैं लेकिन उनके पास जादू की एक क्लिप भी है जिससे वे बाल भी बांधती हैं, ताले भी खोलती हैं और सिर भी. उनकी आवाज अब भी नर्म है लेकिन उन्होंने नाखूनों की धार तेज कर ली है.
बाहर देखिए, उजाला हो रहा है.