बिहार में लोकसभा चुनाव से पहले जातिगत जनगणना की शुरुआत करने को बड़ा सियासी दाँव माना जा रहा है, जिससे अन्य राज्यों में भी आगामी लोकसभा चुनाव में यह मुद्दा फिर गर्मा सकता है। ज़ाहिर है कि नीतीश कुमार और लालू यादव हमेशा इसके पक्ष में रहे हैं। जानने की कोशिश करते हैं कि आख़िर क्या है जातिगत जनगणना? और इसके सियासी मायने क्या हैं? जो बिहार की सियासत और इसके चुनावी समीकरणों को गर्म करने का माहौल बना रहे हैं।
दरअसल भारत में पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी कितनी है, इसका आज तक कोई ठोस प्रमाण फ़िलहाल नहीं है। भारत में जातिगत जनगणना का अपना इतिहास रहा है। जब अंग्रेज भारत आये, तो उन्होंने जाति आधारित जनगणना शुरू की थी, जो सन् 1931 तक जारी रही। हालाँकि सन् 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा एकत्रित किया तो गया; लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया गया।
केंद्र में कांग्रेस की मनमोहन सरकार के दौरान सन् 2010 में मुख्य विपक्षी दल भाजपा के दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे ने जाति आधारित जनगणना के पक्ष में तर्क देते हुए सदन में सवाल उठाया था कि अगर ओबीसी जातियों की गिनती नहीं हुई, तो उनको न्याय देने में दशकों लग जाएँगे? मज़े की बात तो यह है कि यह तब की बात है, जब कांग्रेस सत्ता में थी और भाजपा विपक्ष में। उस समय गोपीनाथ मुंडे जैसे भाजपा के ओबीसी चेहरों ने ज़ोरशोर से जातीय जनगणना का मुद्दा उठाया था। लेकिन जब भाजपा सत्ता में आयी, तो पार्टी का रुख़ ही बदल गया। जब पिछले महीने संसद के मानसून सत्र के दौरान सरकार से सवाल पूछा गया कि 2021 की जनगणना जातियों के हिसाब से होगी? तो सरकार ने लिखित जवाब दिया, जिसमें कहा गया कि केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी, एसटी) को ही गिना जाएगा। यानी सरकार की ओबीसी जातियों को गिनने की कोई योजना नहीं है। साफ़ है कि केंद्र की सत्ता में जो भी पार्टी आती है, वो जातीय जनगणना को लेकर आनाकानी करने लगती है; और जब विपक्ष में होती है, तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती है। हालाँकि लालू यादव जैसे कांग्रेस के सहयोगियों के दबाव में मनमोहन सरकार को जाति जनगणना पर विचार करना पड़ा और सन् 2011 में प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक समिति बनी, जिसने जाति जनगणना के पक्ष में सुझाव दिया। इस जनगणना का नाम ‘सोशियो – इकोनॉमिक एंड कास्ट सेन्सस’ रखा गया। ज़िलेवार पिछड़ी जातियों को गिनने के बाद जातीय जनगणना का डेटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया। उसके बाद भाजपा के सत्ता मे आने कई वर्षों तक इस डेटा की कोई बात नहीं हुई। अब इस डेटा पर फिर सुगबुगाहट शुरू हुई, तो जातीय जनगणना के डेटा वर्गीकरण के लिए एक विशेषज्ञ ग्रुप बनाया गया है। लेकिन इस ग्रुप के रिपोर्ट दिये जाने की जानकारी नहीं मिल पायी है। तो साफ़ है कि कुल मिलाकर भाजपा की मोदी सरकार भी जातिगत आँकड़ों को जारी करना मुनासिब नहीं समझ रही है।
सामाजिक कार्यकर्ता बिसन ढिंढार नेहवाल कहते हैं कि उसके बाद भी सन् 1951 से सन् 2011 तक की जनगणना तो हुई है; लेकिन उसमें हर बार सिर्फ़ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ही आँकड़े दिये जाते रहे हैं, ओबीसी और दूसरी जातियों को उसमे सम्मिलित नहीं किया जाता है।
हालाँकि सन् 1990 में जब केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की एक सिफ़ारिश के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 फ़ीसदी आरक्षण देने की सिफ़ारिश की, तो इस फ़ैसले ने भारत, ख़ासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदलकर रख दिया।
ग़ौरतलब है कि मंडल कमीशन ने अपनी सिफ़ारिश में सन् 1931 की जनगणना को ही आधार माना था, जिसके आधार पर भारत में अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की आबादी 52 फ़ीसदी मानी जाती रही है। उसके उपरांत अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आँकड़े को अपने चुनावी एजेंडे को पूरा करने के लिए तोड़-मरोडक़र पेश करती रहीं हैं; लेकिन अपने दावे को साबित करने के लिए आज तक कोई भी सियासी दल एक ठोस आधार नहीं बता पाया है। हालाँकि कुछ विश्लेषक इसे बड़ा जोखिम भरा $कदम बताते हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा करने से समाज में जातिगत भेदभाव बढ़ जाएगा; लेकिन वो भूल जाते हैं। भारत एक विविधताओं से भरा देश है, जहाँ लोग अलग-अलग जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र, पेशे और व्यवसाय से जुड़े हैं। यह भारत की अनेकता में एकता, संस्कृति एवं राष्ट्रीयता की भावना है, जो समूचे देश को एकसूत्र में बाँधकर रखती है।
भारत का संविधान भी आपको आपका धर्म, व्यवसाय, या क्षेत्र बदलने की आज़ादी देता है; लेकिन सिर्फ़ आपकी जाति है, जिसे आप संवैधानिक रूप से भी नहीं बदल सकते। आज तकनीकी और डिजिटलाइजेशन का दौर है। अर्थव्यवस्था भी डाटा आधरित है। यही डाटा आज कहीं-न-कहीं लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। ऐसे समय में लोगों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए उनकी समाजिक आर्थिक जाति जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक ऐंड कास्ट सेंसस) आधारित डेमोग्राफिक सूचनाएँ एकत्रित करना अति आवश्यक हो जाता है। जातिगत जनगणना भी इसी डेमोग्राफिक सूचना का एक हिस्सा है। हालाँकि आज़ादी के बाद से ही जातिगत जनगणना की माँग उठती रही है और पूर्ववर्ती सरकारों, चाहे वो भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई दूसरी पार्टियाँ विपक्ष में रहते हुए, तो सब इस माँग का पुरज़ोर समर्थन करती हैं। लेकिन सत्ता में आते ही इन्हें न जाने क्यों साँप सूँघ जाता है। तमाम नेता और उनके सियासी दल इस मुद्दे पर मौन पड़ जाते हैं। केंद्र सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति को तो इसमें शामिल करती है, परन्तु पिछड़े वर्ग की जातियों को इसमें शामिल नहीं करती, जो उनके साथ एक तरह का सामाजिक अन्याय ही है।
हालाँकि बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाते हुए राज्य में जातिगत जनगणना प्रारम्भ करायी है। इससे न केवल दलित, पिछड़ों की सही संख्या मालूम चलेगी, बल्कि इससे लोगों के शिक्षा का स्तर, जीवन स्तर, व्यवसाय (निजी, सरकारी, गजटेड, नॉन-गजटेड आदि), कार्य दक्षता, आय के अन्य साधन, परिवार में कितने कमाने वाले सदस्य हैं। एक व्यक्ति पर कितने आश्रित हैं, गाँव में जातियों की संख्या आदि के बारे में भी सटीक जानकारी मिलेगी, जिससे राज्य सरकार को भी अपने राज्यों में सामाजिक आर्थिक समन्वय बैठाकर विकास के नये आयाम स्थापित करने में सहायता मिलेगी। इसके अनुसार, इसे आगे बढ़ाया जा सकेगा। जातीय-सामाजिक-आर्थिक जनसंख्या के अनुसार ही राज्य में योजनाएँ बनायी जाएँगी, समाज के दबे कुचले वंचित पिछड़े वर्गों को भी आगे लाने का मौका मिलेगा। अगर संख्या एक बार पता चल जाए, तो क्या पता ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ को चरितार्थ करते हुए, उस हिसाब से हिस्सेदारी भी दी जाने लगे। जो देश में हुए कितने ही सामाजिक आन्दोलनों का आधार रहा है।
जबसे बिहार में जातिगत जनगणना प्रारम्भ हुई है, इसका असर दूसरे राज्यों में भी दिखने लगा है। विभिन्न विपक्षी दल इस मुद्दे पर सत्तारूढ़ पार्टियों की सरकारों पर दबाव डालने के लिए रणनीति बनाने लगे हैं, जो कभी भी एक व्यापक आन्दोलन का रूप ले सकता है। इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। परन्तु अन्य राज्यों को भी बिहार जैसे प्रदेश से सबक़ लेते हुए अपने-अपने राज्यों में जातिगत जनगणना प्रारम्भ करवा देनी चाहिए, यह वर्षों से फैली सामाजिक-आर्थिक असमानता दूर करने में एक महत्त्वपूर्ण क़दम होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)