जाति नहीं जाती कहीं

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

बक्सर लोकसभा सीट. ब्रह्मपुर ब्लॉक. एक मास्टर साहब मिलते हैं. चुनावी चर्चा चलने पर नंदपुर गांव के रहने वाले ये शिक्षक इत्मीनान से गणित बताने लगते हैं. कहते हैं, ‘देखिए हमारे क्षेत्र से इस बार बाबाजी यानी पंडित के नाम पर भाजपा ने अश्विनी चौबे को टिकट दे दिया है. अब वे भागलपुर इलाके के छी-छा वाले पंडितजी हैं तो कहां से हम लोग अपना तालमेल बिठा पाएंगे?’ मास्टर साहब आगे कहते हैं, ‘ठीक है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर हवा-आंधी और ना जाने का-का है, लेकिन सांसद तो हमंे अपना ही चाहिए न. अपना माने हर तरह से अपना…!’ यह सब बताने के बाद मास्टर साहब चवन्निया हंसी दिखाते हैं और विदा ले लेतेे हैं.

औरंगाबाद जिले के ओबरा बाजार में अजय महतो से बात होती है. वे कहते हैं, ‘देखिए, बिहार में भाजपा लव-कुश यानि कुरमी-कोईरी गठजोड़ तोड़ने की तैयारी में है और उसके लिए राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी से उसका गठजोड़ भी हुआ है. हम कोईरी लोग यह गठजोड़ तोड़ भी देते, लेकिन काराकाट सीट यानी हमारे इलाके से चुनाव लड़ने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के सर्वेसर्वा उपेंद्र कुशवाहा जी खुद आ गए हैं. अब उ गंगा पार के कुशवाहा हैं, अपना कोई कुशवाहा देते तो….! ’

बिहार में कई जगहों पर ऐसी ही बातें होती हैं. हर जगह अपने-अपने तरीके से लोग जाति की राजनीति का मुहावरा और गणित समझाते हैं. संकेत मिलता है कि बिहार इस बार के लोकसभा चुनाव में जाति के खोल में समाने की अकुलाहट में है. शायद यही वजह रही कि लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारे के पहले अलग तरह के अनुमान लगाए जा रहे थे, लेकिन टिकट तय होने के बाद से अनुमानों की दिशा दूसरी हो गई है. जो लोग कल तक यह आकलन कर रहे थे कि नरेंद्र मोदी के जरिये भाजपा राज्य में उफानी जीत की तरफ बढ़ रही है, वे अब ऐसा नहीं कह पा रहे हैं और जो कल तक नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू के कुछ सीटों पर सिमट जाने का आकलन कर रहे थे, उनके सुर अब बदलते जा रहे हैं. वजह साफ है. बिहार में इस बार लोकसभा चुनाव में उसने ही संभावनाओं को अपने पक्ष में किया है, जिसने जाति के साथ ही कुछ दूसरे समीकरण भी ध्यान में रखे हैं.

इस नजरिये से बिहार में सभी दलों ने अपने तरीके से पुरजोर मंथन किया. लेकिन कई दल उस मंथन की प्रक्रिया में ही ऐसे भटके कि टिकट बंटवारे का वक्त आते-आते दूसरी दिशा में चले गए. देखा गया कि पार्टियों को अपने नेताओं पर भरोसा नहीं रहा. पाला बदलकर दूसरे दलों में गए ऐसे नेताओं को तरजीह मिली जो सिर्फ जाति के आधार पर वोट जुगाड़ने की क्षमता रखते थे. ऐसे नेता रातों-रात टिकट पाने में भी सफल हुए.

बिहार में सभी दलों ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है उसे एक बार सरसरी तौर पर देखने पर सियासी गणित साफ-साफ दिखने लगता है.

बंटवारे का गणित
बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. भाजपा 30 पर चुनाव लड़ रही है. शेष 10 सीटों में से सात उसकी सहयोगी पार्टी लोजपा के पास हैं और तीन राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के खाते में. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में जदयू 38 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. उसने दो सीट सीपीआई के लिए छोड़ी हैं. लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) 26 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 13 सीटें उसने गठबंधन सहयोगी कांग्रेस को दी हैं और एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के खाते में है.

अब इन पार्टियों के टिकट बंटवारे में जाति के समीकरण देखते हैं. भाजपा ने राजपूत जाति के सात, ब्राह्मण जाति के तीन, यादव जाति के चार, भूमिहार जाति के तीन, कायस्थ जाति के एक, अनुसूचित जाति के तीन, कुशवाहा जाति के एक, वैश्य समुदाय के तीन, अतिपिछड़ा समूह के तीन और मुस्लिम समुदाय के एक उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. भाजपा के नये-नवेले सहयोगी बने रामविलास पासवान ने अपनी पार्टी लोजपा के लिए सात सीटें रखी हैं, लेकिन उनमें से तीन सीटें अपने परिवार के खाते में ही डाल दी हैं. एक और पासवान को भी रामविलास ने तरजीह दी है. शेष तीन सीटों पर उन्होंने एक राजपूत, एक भूमिहार और एक मुस्लिम समुदाय के उम्मीदवार को मैदान में उतारा है. जदयू की बात करें तो उसने छह टिकट यादव समुदाय से ताल्लुक रखने वाले उम्मीदवारों को दिए हैं तो छह कुशवाहा समुदाय को.  इसके अलावा पार्टी ने पांच मुस्लिम , पांच महादलित, एक दलित, चार भूमिहार, दो ब्राहमण, दो राजपूत, एक कायस्थ, दो वैश्य, एक कुरमी और तीन अतिपिछड़ा समुदायों के प्रतिनिधियों को मैदान में उतारा है.

राजद ने 27 सीटों पर जिन उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है उनमें नौ यादव समुदाय से हैं और छह मुस्लिम, तीन राजपूत, एक ब्राहमण, एक कायस्थ और दो कुशवाहा समुदाय से. इसके अलावा उसके तीन उम्मीदवार अतिपिछड़ा समूह से और दो अनुसूचित जाति से आते हैं. भाजपा के नए साथी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के खाते में तीन सीट आई हैं जिनमें दो पर कुशवाहा उम्मीदवार उतारे गए हैं जबकि एक पर भूमिहार प्रत्याशी है. जदयू ने जो दो सीट सीपीआई को दी हैं उनमें एक पर भूमिहार और एक पर यादव प्रत्याशी है. 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस ने पांच सीटों पर दलित-महादलितों को मैदान में उतारा है. बाकी में एक राजपूत, दो यादव, एक भूमिहार, एक ब्राहमण, एक कुरमी और एक मुस्लिम समुदाय का प्रत्याशी मैदान में हैं.

बंटवारे के निहितार्थ
बिहार में विभिन्न दलों द्वारा जाति व समूह को साधने के फेरे में जिस तरह से टिकटों का बंटवारा हुआ है, उसने चुनावों और नतीजों से पहले ही काफी कुछ कह दिया है. लालू प्रसाद यादव पिछले कुछ सालों में लगातार सवर्णों से माफी मांग रहे थे. माना जा रहा था कि अपनी पार्टी में तीन-तीन राजपूत सांसद होने की वजह से वे राजपूतों को ज्यादा तरजीह देकर एक नये किस्म का समीकरण बनाने की कोशिश करेंगे. लेकिन जब टिकट बंटवारे पर फैसला करने का समय आया तो उन्होंने सबसे ज्यादा भरोसा अपने पुराने समीकरण माई पर ही किया. यानी मुस्लिम और यादव समुदाय के उम्मीदवारों को ही ज्यादा तरजीह दी. आश्चर्य यह रहा कि लालू प्रसाद ने लव-कुश समीकरण में एक समूह यानी कुशवाहा को तो टिकट दिया, लेकिन नीतीश कुमार जिस कुरमी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, उससे उन्होंने एक भी उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘अगर लालू सोच रहे हैं कि मुसलमान अब भी पूरी तरह उनके साथ है तो ऐसा नहीं है. मुसलमान अब देखते हैं कि लालू या नीतीश में जिसके उम्मीदवार जीत की स्थिति में होंगे, वे उनके साथ ही जाएंगे.’

राजद जैसा ही हाल भाजपा का भी रहा. पार्टी लगातार अतिपिछड़ों और महादलितों में सेंधमारी की कोशिश कर रही थी. नरेंद्र मोदी अतिपिछड़े समुदाय से आते हैं, यह शोर भी मचाया जा रहा था. लेकिन टिकट बंटवारे में तरजीह मिली सवर्णों को.

इन सबके बीच नीतीश कुमार ने बहुत ही चतुराई से टिकट का बंटवारा किया है. जानकार मानते हैं कि उन्होंने सभी जातियों व समूहों को साधने की कोशिश की है. भाजपा जहां उपेंद्र कुशवाहा के साथ गठजोड़ करके नीतीश कुमार के लव-कुश समीकरण को तोड़ने का अभियान चलाने में लगी रही, वहीं नीतीश ने अधिक से अधिक कुशवाहा प्रत्याशियों को मैदान में उतारकर चुनाव के पहले ही भाजपा के अरमानों व उम्मीदों पर एक तरीके से पानी फेरने का काम किया है. जानकारों का यह भी मानना है कि अपने समुदाय यानी कुरमी समुदाय से सिर्फ एक उम्मीदवार को टिकट देकर नीतीश यह संदेश देने में भी सफल रहे हैं कि वे अपनी जाति के एकमात्र नेता हैं और टिकट दें या न  दंे, उनकी जाति पूरी तरह से उनके साथ है.

बिहार में टिकट बंटवारे के बाद जो स्थितियां बनी हैं उन्हें देखकर माना जा रहा है कि द्वंद्व और दुविधा का सबसे ज्यादा शिकार भाजपा हुई है. एक तरफ तो वह नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़े समूह का बताकर अतिपिछड़े समूह को अपने पक्ष में करने का अभियान चलाती रही, लेकिन टिकट बंटवारे में उस समूह का उस तरह से ख्याल नहीं रख सकी. इतना ही नहीं, भाजपा ने सबसे ज्यादा दांव सवर्णों पर और उनमें भी राजपूतों पर लगाया है जबकि बिहार की जमीनी हकीकत यह भी है कि सवर्ण समूह के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा या तो पलायित कर बाहर रहता है या रहता भी है तो जल्दी वोट देने नहीं आता.

राजद नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि 1989 में भाजपा ने पूरे देश में 50 प्रतिशत ब्राह्मणों को ही उम्मीदवार बनाया था और ऐसी ही नीतियों की वजह से लालू और मुलायम जैसे नेताओं का आसानी और तेजी से उभार हुआ था. वे कहते हैं कि फिर से भाजपा उसी राह पर है–यानी राजनीति तो वह अतिपिछड़ों की करती रही, लेकिन टिकट बंटवारे में वह हिस्सेदारी नहीं दे सकी. हालांकि रालोसपा के रामबिहारी सिंह जैसे नेता कहते हैं कि किसी समूह की राजनीति करना और उसी समूह के नेता को अधिक से अधिक टिकट देना, दो बातें हैं. वे कहते हैं, ‘बिहार में तो भाजपा के दो तीन बड़े नेता ही पिछड़े समूह से आते हैं, क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है!’

जानकारों के मुताबिक भाजपा को लग रहा है कि इस बार मुसलमानों का वोट लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच बंटेगा जिससे उसे फायदा होगा. एक ओर तो कांग्रेस के साथ होने और खुद की भी धर्मनिरपेक्ष छवि होने की वजह से लालू प्रसाद के खाते में मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग जाएगा. दूसरी ओर चूंकि नीतीश कुमार की छवि नरेंद्र मोदी का खुलकर विरोध करनेवाले नेता की बनी है, इसलिए मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग नीतीश के पक्ष में बात करता है.

हालांकि जानकार यह भी मानते हैं कि भाजपा को चिंता भी होनी चाहिए. उनके मुताबिक पार्टी ने अपने कोर वोट बैंक और संसदीय क्षेत्र के हिसाब से प्रत्याशी मैदान में उतार तो दिए हैं, लेकिन कई जगहों पर सिर्फ जाति का ही काॅकटेल तैयार करने की कोशिश की है. उसमें यह ध्यान नहीं रखा कि क्या जाति के नाम पर आयातित प्रत्याशी भी चल जाएंगे या फिर स्थानीय प्रत्याशियों को उतारने का अपना महत्व होता है.